संदर्भ:
एक ऐतिहासिक फ़ैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि शरिया अदालतों और ऐसी अन्य संस्थाओं को भारतीय क़ानूनी प्रणाली में कोई आधिकारिक मान्यता प्राप्त नहीं है तथा उनके निर्णय बाध्यकारी नहीं माने जा सकते। इस निर्णय ने न्यायिक मंचों पर भारतीय क़ानून की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित किया है।
- यह फ़ैसला शाहजहां नामक एक मुस्लिम महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान आया। महिला ने भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 125 के तहत भरण-पोषण के अपने अधिकार को लेकर निचली अदालत के निर्णय को चुनौती दी थी।
मुख्य बिंदु:
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने स्पष्ट किया कि शरिया अदालत जैसी संस्थाओं द्वारा दिए गए निर्णय या घोषणाएं किसी भी व्यक्ति पर बाध्यकारी नहीं होतीं, विशेष रूप से तब जब संबंधित व्यक्ति स्वयं उन्हें स्वीकार करने को तैयार न हो।
- पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि शरिया अदालत, क़ाज़ी की अदालत या दारुल क़ज़ा जैसे नामों से कार्यरत संस्थाएं अपने फ़ैसलों को बलपूर्वक लागू नहीं कर सकतीं।
- यह टिप्पणी वर्ष 2014 में दिए गए विश्व लोचन मदान बनाम भारत सरकार फ़ैसले के अनुरूप है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि शरिया अदालत जैसे समानांतर न्यायिक तंत्र भारतीय क़ानूनी प्रणाली के तहत वैध नहीं माने जा सकते।
- हालांकि, न्यायालय ने यह भी माना कि नागरिक धार्मिक परामर्श के लिए इन संस्थाओं से संपर्क कर सकते हैं, लेकिन इनके निर्णय केवल तभी मान्य होंगे जब दोनों पक्ष स्वेच्छा से उन्हें स्वीकार करें।
शरिया अदालतों के बारे में:
शरिया अदालतें वे धार्मिक न्यायिक संस्थाएं होती हैं जो विशेषकर मुस्लिम समुदाय के बीच इस्लामी क़ानून (शरिया) के आधार पर विवादों का समाधान करती हैं।
- इसका आधार क़ुरान, हदीस (पैग़म्बर मुहम्मद साहब के कथन और कार्य) और अन्य इस्लामी ग्रंथ होते हैं।
- शरिया की व्याख्या अलग-अलग विचारधाराओं (जैसे हनफ़ी, मालिकी, शाफ़ई, हंबली) और देशों के अनुसार भिन्न हो सकती है।
भारत में क़ानूनी और धार्मिक व्यवस्था पर प्रभाव:
- यह फ़ैसला एक बार फिर यह स्पष्ट करता है कि धार्मिक न्यायिक संस्थाओं को भारत के धर्मनिरपेक्ष क़ानूनी ढांचे में कोई वैधानिक अथवा बाध्यकारी अधिकार प्राप्त नहीं है।
- कोई भी व्यक्ति धार्मिक संस्थाओं से परामर्श ले सकता है, किंतु उनके निर्णय भारतीय क़ानून या किसी नागरिक के संवैधानिक अधिकारों से ऊपर नहीं हो सकते।
- यह निर्णय विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों के अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल है, विशेषकर उन मामलों में जो आर्थिक तंगी या पारिवारिक उपेक्षा से संबंधित हों।
निष्कर्ष:
सुप्रीम कोर्ट का यह स्पष्ट रुख़ एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में संविधान की प्रधानता को दोहराता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि कोई समानांतर न्यायिक व्यवस्था, जो मूल अधिकारों की रक्षा नहीं करती, भारतीय न्यायपालिका की सत्ता को चुनौती नहीं दे सकती और न ही संवैधानिक सुरक्षा को प्रभावित कर सकती है।