संदर्भ:
हाल ही में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत एक महत्वपूर्ण संवैधानिक सवाल पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है। इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी किया है। सवाल यह है कि क्या राज्य विधेयकों पर राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा स्वीकृति देने की कोई समय-सीमा तय करना संविधान के तहत वैध और बाध्यकारी माना जा सकता है?
पृष्ठभूमि:
8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने एक ऐतिहासिक निर्णय में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों की स्वीकृति रोकने को "गैरकानूनी और त्रुटिपूर्ण" करार दिया। इन विधेयकों को बाद में राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजा गया था।
इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार कुछ महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश निर्धारित किए:
• राज्यपाल को किसी भी विधेयक पर "यथाशीघ्र" निर्णय लेना चाहिए।
• यदि विधेयक अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति को भेजा गया है, तो तीन महीने के भीतर निर्णय अनिवार्य है।
• यदि निर्णय में देरी हो, तो कारणों को स्पष्ट रूप से लिखित रूप में दर्ज कर संबंधित पक्षों को सूचित किया जाना चाहिए।
इस निर्णय को विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता और गति लाने वाला कदम माना गया, लेकिन इस फैसले से संघीय कार्यपालिका में संवैधानिक सीमाओं को लेकर चिंता उत्पन्न हुई। इसी पृष्ठभूमि में राष्ट्रपति ने 14 संवैधानिक प्रश्नों को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के पास राय के लिए भेजा है।
राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए प्रमुख संवैधानिक सवाल:
1. विवेकाधिकार की न्यायिक समीक्षा: क्या अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल के विवेकाधिकार (discretion) की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, जब संविधान ने कोई समय-सीमा तय नहीं की है?
2. न्यायालय की शक्ति की सीमा: क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे संवैधानिक पदाधिकारियों पर समय-सीमा लागू कर सकता है, जब संविधान स्वयं इस पर चुप है?
3. अनुच्छेद 142 की भूमिका: क्या सुप्रीम कोर्ट अपने विशेष अधिकारों (Article 142) के तहत कार्यपालिका (Executive) के अधिकार क्षेत्रों में हस्तक्षेप कर सकता है?
4. मंत्रिपरिषद की सलाह की बाध्यता: क्या राज्यपाल राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं, जब बात विधेयकों को स्वीकृति देने या रोकने की हो?
5. स्वतः स्वीकृति (Deemed Assent): क्या "स्वतः स्वीकृति" (यानी समय पर कोई फैसला न होने पर विधेयक को स्वीकृत मान लेना) का विचार संविधान के अनुरूप है, जबकि संविधान में इसका कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है?
कानूनी और संवैधानिक महत्त्व:
राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजी गई यह राय मांग संवैधानिक व्यवस्था में शक्ति-संतुलन को पुनः जाँच करने का अवसर है। इससे कई बड़े मुद्दे उजागर हुए हैं:
· केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक रिश्तों की नाजुकता
· न्यायपालिका की सीमाएं और सक्रियता की बहस
· क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान की "चुप्पी" को "अनिवार्यता" में बदल सकता है?
सुप्रीम कोर्ट का पूर्ववर्ती निर्णय एक संवैधानिक रिक्तता को भरने का प्रयास था, जिसमें विधेयकों की स्वीकृति को लेकर समय-सीमा तय की गई। हालांकि, आलोचकों का मानना है कि यह न्यायिक अति-हस्तक्षेप (Judicial Overreach) का उदाहरण है, क्योंकि अनुच्छेद 200 और 201 में किसी स्पष्ट समय-सीमा का उल्लेख नहीं किया गया है।
अब यह मामला केवल विधायी प्रक्रियाओं की दक्षता का प्रश्न नहीं, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में राष्ट्रपति, राज्यपाल और न्यायपालिका की भूमिकाओं और सीमाओं की स्पष्टता से भी जुड़ा हुआ है।