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Blog / 03 Jul 2025

संथाल हुल दिवस

सन्दर्भ:

30 जून 2025 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संथाल हुल दिवस के अवसर पर संथाल समुदाय के अद्वितीय साहस और बलिदान को नमन किया। उन्होंने सिद्धू, कान्हू, फूलो, झानो और उन हजारों संथालों को श्रद्धांजलि अर्पित की, जिन्होंने 1855 में ब्रिटिश शासन और शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह किया था। यह दिवस भारत के इतिहास में दर्ज सबसे शुरुआती और प्रभावशाली आदिवासी आंदोलनों में से एकसंथाल हुलकी स्मृति में मनाया जाता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

1832 में ब्रिटिश प्रशासन ने एक विशेष क्षेत्र "दामिन-ए-कोह" की स्थापना की, जिसमें आज के झारखंड राज्य के साहिबगंज, गोड्डा, दुमका, देवघर, पाकुड़ और जामताड़ा जिले शामिल थे। इस क्षेत्र में संथाल समुदाय को बसाकर उन्हें खेती के लिए प्रोत्साहित किया गया। प्रारंभ में यह पहल सहायक प्रतीत हुई, लेकिन समय के साथ संथालों को स्थानीय जमींदारों और महाजनों द्वारा लगाए गए अत्यधिक करों, भूमि हड़पने की घटनाओं और शोषणकारी श्रम प्रथाओं का सामना करना पड़ा। धीरे-धीरे यह व्यवस्था उनके जीवन और आजीविका के लिए एक गंभीर संकट बन गई।

बंधुआ मजदूरी की शोषणकारी प्रथाएँ: संथालों का शोषण करने के लिए दो प्रमुख बंधुआ मजदूरी प्रथाएँ प्रचलित थीं:

         कमिओटी: इस प्रणाली में कर्ज लेने वाला व्यक्ति जीवनभर साहूकार के लिए काम करता रहता था, लेकिन ब्याज और शर्तें इतनी कठोर होती थीं कि कर्ज कभी पूरी तरह चुकता ही नहीं हो पाता था।

         हरवाही: इस प्रथा में कर्जदार को न केवल साहूकार की जमीन जोतनी पड़ती थी, बल्कि जब भी साहूकार आदेश देता, उसे घरेलू और व्यक्तिगत सेवा भी देनी होती थी।

इन प्रथाओं से संथालों में भारी गरीबी और आक्रोश फैल गया।

विद्रोह:

30 जून 1855 को संथालों ने अंग्रेजी हुकूमत और शोषक जमींदारों-साहूकारों (जिन्हें वे 'दिकू' कहते थे) के खिलाफ एक संगठित विद्रोह का बिगुल फूंका। इस आंदोलन का नेतृत्व सिद्धू, कान्हू, चाँद, भैरव और उनकी बहनों फूलो एवं झानो ने किया।

करीब 60,000 संथाल योद्धाओं ने इस जनविद्रोह में भाग लिया। उन्होंने पुलिस थानों, सरकारी कार्यालयों और दिकू वर्ग की संपत्तियों पर हमला किया। गुरिल्ला युद्ध तकनीकों के माध्यम से उन्होंने कई क्षेत्रों में प्रारंभिक सफलता भी हासिल की।

हालांकि, संथालों के पास न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैन्य संसाधन। लगभग छह महीने तक चले इस भीषण संघर्ष के बाद जनवरी 1856 में ब्रिटिश सेना ने इस आंदोलन को क्रूरता से दबा दिया। इस दमन में 15,000 से अधिक संथालों को जान से हाथ धोना पड़ा, और 10,000 से अधिक गाँव पूरी तरह नष्ट कर दिए गए।

प्रभाव और सुधार:

हालाँकि संथाल हुल को ब्रिटिश सत्ता ने बलपूर्वक दबा दिया, लेकिन इस विद्रोह ने शासन को गहरी चोट पहुँचाई। यह आंदोलन इतना प्रभावशाली था कि ब्रिटिश प्रशासन को आदिवासी समुदायों की पीड़ा को स्वीकार करना पड़ा और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कानूनों में सुधार करने को बाध्य होना पड़ा।

प्रमुख कानूनी सुधार इस प्रकार थे:

         संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम, 1876: इस अधिनियम ने आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को बेचे जाने या हस्तांतरित किए जाने पर रोक लगाई। इसके तहत समुदाय के भीतर उत्तराधिकार को कानूनी मान्यता दी गई और पारंपरिक भूमि प्रशासन की प्रणाली को संरक्षित किया गया।

         छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, 1908: यह अधिनियम झारखंड और आसपास के अन्य आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भूमि अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने हेतु लाया गया, जिससे आदिवासियों की जमीन पर बाहरी हस्तक्षेप रोका जा सके।

संथाल हुल न केवल एक स्थानीय विद्रोह था, बल्कि इसने आगे चलकर अन्य जनजातीय आंदोलनों को भी प्रेरणा दी और भारत के व्यापक स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

संथाल समुदाय के बारे में:

संथाल भारत के प्रमुख और सबसे बड़े जनजातीय समुदायों में से एक हैं। इनकी मुख्य आबादी झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और ओडिशा राज्यों में निवास करती है। ये 'संथाली' भाषा बोलते हैं, जो ऑस्ट्रोएशियाटिक भाषा परिवार की मुंडा शाखा से संबंधित है।

संथाल समाज अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं, लोकनृत्य, संगीत, पारंपरिक त्योहारों और प्रकृति के प्रति गहरे लगाव के लिए जाना जाता है।

निष्कर्ष:

संथाल हुल आज भी जनजातीय स्वाभिमान, संघर्ष और न्याय का एक जीवंत प्रतीक है। यह केवल एक विद्रोह नहीं, बल्कि एक ऐसी चेतना थी जिसने शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई और आदिवासी अस्मिता को इतिहास में अमिट रूप से दर्ज किया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संथाल समुदाय को दी गई श्रद्धांजलि इस बात की स्मृति है कि सिद्धू-कान्हू और उनके साथियों का बलिदान भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का एक स्वर्णिम अध्याय है। उनकी वीरता आज भी आदिवासी अधिकारों की रक्षा, सांस्कृतिक पहचान की बहाली और सामाजिक न्याय के आंदोलनों को प्रेरणा प्रदान करती है।