संदर्भ:
हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट की इन-हाउस जांच प्रक्रिया की कानूनी वैधता पर प्रश्न उठाए हैं। उनके इस वक्तव्य ने न्यायिक जवाबदेही को लेकर जारी बहस को एक बार फिर तेज कर दिया है। उन्होंने 1991 के ऐतिहासिक के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ मामले की पुनर्समीक्षा की आवश्यकता जताई, जिसमें वर्तमान में कार्यरत संविधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध FIR दर्ज करने पर प्रतिबंध लगाया गया है।
हाई कोर्ट के न्यायाधीश के खिलाफ FIR दर्ज करने की प्रक्रिया:
किसी वर्तमान उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के विरुद्ध FIR दर्ज करना एक अत्यंत सीमित और सावधानीपूर्वक नियंत्रित प्रक्रिया है, जिसे न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा के उद्देश्य से बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि जब तक भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) से पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो, तब तक किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध न तो FIR दर्ज की जा सकती है और न ही कोई आपराधिक कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है।
CJI का दायित्व होता है कि वे लगाए गए आरोपों की गंभीरता और विश्वसनीयता का प्रारंभिक मूल्यांकन करें। यह सुरक्षा प्रावधान इस उद्देश्य से लागू किया गया है ताकि असंतुष्ट वादियों द्वारा दुर्भावनापूर्ण या निराधार शिकायतों के माध्यम से न्यायपालिका की गरिमा को ठेस न पहुँचाई जा सके। साथ ही, यह न्यायिक जवाबदेही बनाए रखने हेतु भी आवश्यक है, विशेष रूप से उन मामलों में जो भ्रष्टाचार से संबंधित हों।
न्यायिक जवाबदेही के लिए इन-हाउस प्रक्रिया क्या है?
यह प्रक्रिया उन मामलों के लिए विकसित की गई है, जिनमें किसी न्यायाधीश का आचरण अनुचित तो होता है, लेकिन वह महाभियोग (impeachment) की संवैधानिक सीमा तक नहीं पहुँचता। इसकी पृष्ठभूमि 1995 में बॉम्बे हाई कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एम. भट्टाचार्य पर लगे वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों से जुड़ी है।
सी. रविचंद्रन अय्यर बनाम जस्टिस ए.एम. भट्टाचार्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्वीकार किया कि ‘गलत आचरण’ (misconduct) और ‘महाभियोग योग्य आचरण’ (proved misbehaviour) के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर है।
- इस उद्देश्य से एक पाँच-सदस्यीय समिति गठित की गई।
- समिति ने अपनी सिफारिशें 1997 में प्रस्तुत कीं, जिन्हें सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में औपचारिक रूप से अपनाया।
- वर्ष 2014 में यह प्रक्रिया और अधिक व्यवस्थित की गई, जब मध्य प्रदेश की एक महिला न्यायाधीश ने यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगाए (ए.डी.जे. 'एक्स' बनाम रजिस्ट्रार जनरल, उच्च न्यायालय मध्य प्रदेश)।
- इस संदर्भ में न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर और न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने एक स्पष्ट सात-चरणीय प्रक्रिया का प्रारूप प्रस्तुत किया, जिससे इन-हाउस जांच प्रणाली अधिक पारदर्शी और संरचित बन सके।
वीरास्वामी केस के बारे में:
जस्टिस के. वीरास्वामी (जो मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश थे) पर भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत अनुपात से अधिक संपत्ति रखने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने यह दलील दी कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को इस प्रकार की आपराधिक अभियोजन से छूट प्राप्त होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य निष्कर्ष:
- सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कोई न्यायाधीश ‘लोक सेवक’ (Public Servant) की श्रेणी में आ सकता है और उस पर भ्रष्टाचार के आरोप में मामला चलाया जा सकता है, परंतु इसके लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) से पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है।
- सामान्यतः, अभियोजन की अनुमति वह प्राधिकारी देता है जो संबंधित लोक सेवक की नियुक्ति करता है।
- किंतु न्यायपालिका की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि न्यायाधीश और राष्ट्रपति के बीच कोई नियोक्ता-कर्मचारी संबंध नहीं होता, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 53 के तहत कार्यपालिका की शक्तियों में वर्णित है।
- इसीलिए, CJI की पूर्व स्वीकृति को अनिवार्य किया गया, ताकि कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका में हस्तक्षेप को रोका जा सके और न्यायिक स्वतंत्रता सुरक्षित रह सके।
निष्कर्ष:
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की टिप्पणी ने न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन की बहस को एक बार फिर प्रासंगिक बना दिया है। जहां एक ओर वीरास्वामी निर्णय और इन-हाउस प्रक्रिया न्यायाधीशों को विधिक प्रणाली के दुरुपयोग से संरक्षण प्रदान करते हैं, वहीं दूसरी ओर पारदर्शिता और जनता के विश्वास को लेकर उठते सवाल यह संकेत देते हैं कि वर्तमान तंत्र की पुनर्समीक्षा आवश्यक है। अब समय आ गया है कि एक ऐसी प्रणाली विकसित की जाए जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को बनाये रखते हुए, जवाबदेही की एक ठोस और पारदर्शी रूपरेखा भी प्रस्तुत कर सके।