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Blog / 30 Apr 2025

पोक्सो (POCSO) मामलों को समझौते के माध्यम से समाप्त करना

प्रसंग:

हाल ही में केरल हाई कोर्ट ने निर्णय दिया है कि बच्चों के यौन अपराधों से संरक्षण अधिनियम (POCSO) के तहत दर्ज सभी मामलों को ट्रायल तक ले जाना जरूरी नहीं है, यदि संबंधित पक्षों के बीच वास्तविक समझौता हो गया हो। यह फैसला न्यायमूर्ति सी. जयचंद्रन ने दिया है और यह नाबालिगों तथा यौन अपराधों जैसे गैर-संविधानिक अपराधों को समाप्त करने को लेकर चल रही कानूनी बहस के बीच आया है।

केरल हाई कोर्ट का अवलोकन

न्यायमूर्ति सी. जयचंद्रन ने पोक्सो अधिनियम के तहत दर्ज दो अलग-अलग मामलों को रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि किसी मामले की आगे की कार्यवाही को तय करने में वास्तविक समझौते की भूमिका अहम होती है। दोनों मामलों में आरोपी और पीड़िता के बीच विवाह हो चुका था और वे स्थिर पारिवारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे।
अदालत ने यह तर्क दिया कि यदि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 307 (हत्या के प्रयास) जैसे गंभीर आरोप को वास्तविक समझौते के आधार पर रद्द किया जा सकता है, तो पोक्सो अधिनियम के अंतर्गत अपेक्षाकृत कम गंभीर अपराध को भी ऐसे ही हालात में समाप्त किया जा सकता है।
अदालत ने यह भी रेखांकित किया कि हालांकि बलात्कार (IPC की धारा 376) और पोक्सो अधिनियम के तहत भेदनात्मक यौन हमला जैसे अपराधों को परंपरागत रूप से समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है और इसलिए ये समझौते योग्य नहीं होते, फिर भी कुछ अत्यधिक सहानुभूतिपूर्ण परिस्थितियों में इन्हें रद्द करना न्यायोचित हो सकता है।
ऐसे मामलों में निर्णय प्रत्येक केस की तथ्यों की स्थिति पर आधारित होना चाहिए, न कि कानूनी शब्दावली के कठोर पालन पर।

समझौते योग्य बनाम गैर-समझौते योग्य अपराध

भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 320 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता – BNSS की धारा 359 में परिलक्षित) के अनुसार, अपराधों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है: समझौते योग्य और गैर-समझौते योग्य।
समझौते योग्य अपराध वे होते हैं जहाँ पीड़ित और आरोपी अदालत की अनुमति से आपसी समझौते के आधार पर मामला समाप्त कर सकते हैं। उदाहरण:
o साधारण चोट (धारा 323 IPC)
o आपराधिक विश्वासभंग (धारा 406 IPC)
o मानहानि (धारा 500 IPC)
गैर-समझौते योग्य अपराध गंभीर माने जाते हैं और आमतौर पर उन्हें समझौते से हल नहीं किया जा सकता क्योंकि इन्हें राज्य या पूरे समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है। उदाहरण:
o हत्या (धारा 302 IPC)
o गंभीर चोट (धारा 326 IPC)
o बलात्कार (धारा 376 IPC)
o अपहरण (धारा 363 IPC)

न्यायिक विवेक और उच्च न्यायालयों की भूमिका
हालांकि गैर-समझौते योग्य अपराधों को सुलझाने पर कानूनी प्रतिबंध है, लेकिन भारत में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के पास असाधारण मामलों में आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का विवेकाधिकार है।
सर्वोच्च न्यायालय, संविधान के अनुच्छेद 142 और दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत, निम्नलिखित आधारों पर गैर-समझौते योग्य अपराधों में भी समझौता स्वीकार कर सकता है:
अपराध की प्रकृति और गंभीरता
मामले की पृष्ठभूमि
पक्षकारों के बीच समझौते या समाधान की सीमा

आगे की राह:
केरल हाई कोर्ट का यह निर्णय कई कारणों से महत्वपूर्ण है:
यह समझौते के बाद पुनर्वास और पारिवारिक सौहार्द की पुनःस्थापना के महत्व को रेखांकित करता है।
यह पोक्सो अधिनियम के तहत कार्यवाही को रद्द करने में न्यायिक विवेक की भूमिका को स्वीकार करता है, विशेषकर जब सहानुभूतिपूर्ण कारक मौजूद हों।
यह न्याय की एक संतुलित और तथ्यों पर आधारित दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है, जो कठोर कानूनी निषेधों से आगे निकलता है।