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Blog / 28 Jun 2025

ट्रांसजेंडर पत्नी को 498A IPC के तहत संरक्षण

संदर्भ:
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया कि विषमलैंगिक विवाह में ट्रांसजेंडर महिला अपने पति व ससुराल वालों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत शिकायत दर्ज करा सकती है। यह फैसला ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों और लैंगिक समानता की दिशा में न्यायपालिका का बड़ा कदम माना जा रहा है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक NALSA बनाम भारत सरकार (2014) के निर्णय के अनुरूप है, जिसमें व्यक्ति को अपनी लैंगिक पहचान स्वयं तय करने का अधिकार दिया गया था।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला विश्‍वनाथन कृष्णमूर्ति और उनके माता-पिता द्वारा दर्ज किया गया था, जिन्होंने अपने खिलाफ दर्ज दहेज उत्पीड़न के मामले को रद्द करने की मांग की थी। यह शिकायत शबाना (एक ट्रांस महिला) ने दर्ज कराई थी, जिसमें उसने अपने पति और ससुरालवालों पर दहेज मांगने और मानसिक प्रताड़ना देने का आरोप लगाया था। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि शबाना चूंकि ट्रांस महिला हैं और संतान पैदा नहीं कर सकतीं, इसलिए IPC की धारा 498A के तहत उन्हें "महिला" नहीं माना जा सकता। हालांकि, कोर्ट ने शिकायत के तथ्यात्मक पक्ष की जांच के बाद पाया कि आरोप सामान्य, अस्पष्ट और ठोस साक्ष्यों से विहीन थे, परिणामस्वरूप याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कार्यवाही रद्द कर दी गई।

 न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ:

·        अदालत ने राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण (NALSA) बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि लैंगिक पहचान जन्म के समय दिए गए लिंग तक सीमित नहीं होती। प्रत्येक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को अपने लिंग की स्वयं पहचान का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है।

·        अदालत ने यह भी माना कि ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 2019 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बिना चिकित्सा या सर्जिकल हस्तक्षेप के अपनी लिंग पहचान स्वयं घोषित करने का अधिकार देता है। कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि हिंदू विवाह अधिनियम में 'दुल्हन' की परिभाषा में ट्रांसजेंडर महिलाएं भी शामिल हैं।

·        न्यायालय ने यह तर्क पूरी तरह खारिज कर दिया कि महिला होने की पहचान सिर्फ संतान पैदा करने की क्षमता से जुड़ी है। उन्होंने कहा कि यह सोच "पूरी तरह गलत और कानूनन अस्थिर है।" उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि महिला की परिभाषा को इतनी संकीर्णता से देखना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव निषेध) और 21 (जीवन और गरिमा का अधिकार) का उल्लंघन है।

·        न्यायालय ने यह दोहराया कि लैंगिक पहचान व्यक्ति की अपनी पहचान है, जो केवल शारीरिक गुणों पर आधारित नहीं हो सकती। ट्रांस महिलाओं को धारा 498A के तहत संरक्षण से वंचित करना केवल उनके लिंग के आधार पर भेदभाव करना होगा।

 IPC की धारा 498A:

·        भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498A विशेष रूप से विवाहिता महिलाओं को दहेज उत्पीड़न और घरेलू हिंसा से बचाने के उद्देश्य से बनाई गई है। यह धारा पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा महिला के साथ शारीरिक या मानसिक क्रूरता, दहेज की मांग, या मानसिक उत्पीड़न जैसे कृत्यों को अपराध की श्रेणी में लाती है।

·        इस धारा का मुख्य उद्देश्य महिलाओं को वैवाहिक जीवन में सुरक्षित वातावरण देना है, विशेषकर दहेज प्रथा और घरेलू उत्पीड़न के मामलों में। हालांकि, समय-समय पर इस धारा के दुरुपयोग की भी शिकायतें सामने आती रही हैं, जहां कोर्ट ने संतुलन बनाए रखने के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं ताकि बेगुनाहों को अनुचित परेशानी न हो।

निष्कर्ष:

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट का ट्रांस महिलाओं को महिलाके रूप में कानूनी मान्यता का निर्णय भारतीय संविधान की मूल भावना  समानता, गरिमा और पहचानको और अधिक मजबूती प्रदान करता है। न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि महिला होने की परिभाषा केवल जैविक विशेषताओं पर आधारित नहीं हो सकती, बल्कि यह व्यक्ति की आत्म-परिभाषा और लिंग पहचान के अधिकार पर आधारित है। यह फैसला न केवल ट्रांसजेंडर समुदाय के संवैधानिक अधिकारों की पुष्टि करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि वे भी उन सभी कानूनी संरक्षणों के हकदार हैं जो सामान्य महिलाओं को प्राप्त हैं, जैसे IPC की धारा 498A। यह भारत के न्याय तंत्र में समावेशिता और संवेदनशीलता की ओर बढ़ा एक महत्वपूर्ण कदम है, जो लैंगिक न्याय को नए आयाम देता है।