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Blog / 16 May 2025

राष्ट्रपति ने विधेयक की स्वीकृति की समयसीमा पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी

सन्दर्भ:

हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी है कि क्या न्यायपालिका राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधेयकों पर मंजूरी देने या अस्वीकृति जताने की कोई निश्चित समयसीमा निर्धारित कर सकती है। यह अभूतपूर्व संदर्भ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत भेजा गया है। इसकी पृष्ठभूमि में सुप्रीम कोर्ट का 8 अप्रैल 2025 का ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें कहा गया था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर निर्णय लेना अनिवार्य होगा।

संवैधानिक पृष्ठभूमि:

अनुच्छेद 200 के अनुसार, राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं:

                    विधेयक को मंजूरी देना,

                    मंजूरी से इनकार करना, या

                    उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना।

एक बार विधेयक सुरक्षित रख लिए जाने पर, अनुच्छेद 201 राष्ट्रपति को अनुमति देने या न देने, अथवा सिफारिशों के साथ विधेयक को राज्य विधानमंडल को वापस भेजने का अधिकार देता है।

लेकिन इन अनुच्छेदों में निर्णय लेने की कोई निश्चित समय-सीमा नहीं दी गई है। इसी अस्पष्टता की वजह से विधेयकों पर निर्णय में देरी एक विवाद का विषय बन गई है और न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा।

सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला:

अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित निर्देश दिए:

                    राज्यपालों को विधेयकों पर उचित समयके भीतर कार्य करना चाहिए।

                    राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा सुरक्षित विधेयकों पर 3 महीने के भीतर निर्णय लेना होगा।

                    यदि निर्णय में देरी हो, तो उसके कारण लिखित रूप में राज्य को बताए जाने चाहिए।

President Seeks Supreme Court Opinion on Bill Assent Timelines

राष्ट्रपति का संदर्भ:

अनुच्छेद 143(1) का उपयोग करते हुए राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 महत्वपूर्ण संवैधानिक सवाल पूछे हैं। उनमें से कुछ मुख्य प्रश्न ये हैं:

                    क्या न्यायालय अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल और अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के विवेकाधीन निर्णयों की न्यायिक समीक्षा कर सकते हैं?

                    क्या इन संवैधानिक पदाधिकारियों पर निर्णय के लिए न्यायिक रूप से कोई समयसीमा निर्धारित की जा सकती है?

                    क्या अनुच्छेद 361, जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को न्यायिक कार्यवाहियों से संरक्षण देता है, उनके कार्यों की न्यायिक जांच को प्रतिबंधित करता है?

                    क्या सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 142 (पूर्ण न्याय की शक्ति) का उपयोग कर राष्ट्रपति या राज्यपाल के निर्णय को रद्द या प्रतिस्थापित कर सकता है?

                    जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो उनके पास कौन-कौन से विकल्प उपलब्ध होते हैं?

                    क्या अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल, अपने विवेक का प्रयोग करते समय, राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे होते हैं?

सुप्रीम कोर्ट की सलाह देने की भूमिका:

संविधान का अनुच्छेद 143 सुप्रीम कोर्ट को परामर्श देने का अधिकार देता है। इसके तहत:

                    राष्ट्रपति किसी कानून या सार्वजनिक महत्व के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं।

                    सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी नहीं होती; यह केवल सलाह होती है।

                    1950 के बाद से यह केवल 13वीं बार है जब भारत के राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 का प्रयोग किया है, जो इसमें शामिल संवैधानिक प्रश्नों की गंभीरता को दर्शाता है।

निष्कर्ष:

इस संदर्भ पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय भारत में विधायी संघवाद (Legislative Federalism) की दिशा और भविष्य को प्रभावित करेगा। यह स्पष्ट करेगा कि संवैधानिक पदाधिकारियों, जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की कार्यप्रणाली पर न्यायपालिका की निगरानी की सीमा क्या होगी। साथ ही यह भी निर्धारित करेगा कि वे राजनीतिक रूप से संवेदनशील राज्य विधेयकों का सामना किस प्रकार करें और किन संवैधानिक मर्यादाओं में रहकर निर्णय लें।