संदर्भ:
हाल ही में भगवान बुद्ध के पवित्र पिपरहवा अवशेषों को 127 वर्षों बाद हांगकांग से पुनः प्राप्त कर भारत वापस लाया गया। यह भारत सरकार और गोदरेज इंडस्ट्रीज समूह के संयुक्त प्रयास का परिणाम है, जो भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विरासत के संरक्षण में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
बुद्ध के पिपरहवा अवशेष:
पिपरहवा अवशेष भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेषों से जुड़े माने जाते हैं। माना जाता है कि इन्हें तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में उनके अनुयायियों ने प्रतिष्ठित किया था।
· इन अवशेषों में शामिल एक ताबूत पर अंकित ब्राह्मी लिपि का शिलालेख यह पुष्टि करता है कि ये भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेष हैं, जिन्हें शाक्य वंश द्वारा संरक्षित किया गया था।
· इनमें अस्थि-खंड, सोपस्टोन और क्रिस्टल के ताबूत, बलुआ पत्थर का संदूक, तथा सोने के आभूषण और रत्न जैसे चढ़ावे शामिल हैं।
· इन अवशेषों की खोज 1898 में ब्रिटिश इंजीनियर विलियम क्लैक्सटन पेप्पे ने उत्तर प्रदेश के पिपरहवा (लुम्बिनी के ठीक दक्षिण) में की।
· ब्रिटिश शासन ने 1878 के भारतीय खजाना अधिनियम के तहत इन पर दावा किया और अस्थियों व राख के कुछ हिस्सों को सियाम (वर्तमान थाईलैंड) के राजा चुलालोंगकोर्न को भेंट कर दिया।
· बौद्ध धर्म में इनका गहरा आध्यात्मिक महत्व है और इनका दुनिया भर में सम्मान किया जाता है। इनका भारत लौटना केवल एक सांस्कृतिक धरोहर की पुनर्प्राप्ति ही नहीं, बल्कि बुद्ध की शिक्षाओं और उनके जन्मभूमि के बीच आध्यात्मिक बंधन का नवीनीकरण भी है।
· इन अवशेषों का अधिकांश भाग 1899 में भारतीय संग्रहालय, कोलकाता में स्थानांतरित किया गया और भारतीय कानून के तहत इन्हें ‘A.A. पुरावशेष’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिससे इनके हटाने या बेचने पर पूर्ण प्रतिबंध है।
सांस्कृतिक कूटनीति का एक आदर्श:
पिपरहवा अवशेषों की सफल वापसी अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक सहयोग की एक महत्वपूर्ण मिसाल है। यह उदाहरण दर्शाता है कि सार्वजनिक एवं निजी संस्थान किस प्रकार वैश्विक विरासत के संरक्षण और पुनर्प्राप्ति के लिए एकजुट हो सकते हैं। सांस्कृतिक कूटनीति का यह प्रयास भारत सरकार की उस नीति के अनुरूप है, जिसके अंतर्गत भारत अपनी प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों को पुनः प्राप्त कर रहा है और शांति एवं विरासत के वैश्विक संरक्षक के रूप में अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर रहा है।
निष्कर्ष:
पिपरहवा अवशेषों की भारत वापसी देश द्वारा अपनी सांस्कृतिक विरासत को पुनः प्राप्त करने और संरक्षित करने के प्रयासों में एक महत्वपूर्ण अध्याय है। यह प्राचीन सभ्यताओं की विरासत के संरक्षण में सांस्कृतिक कूटनीति, कॉर्पोरेट भागीदारी और सरकारी हस्तक्षेप के महत्व पर प्रकाश डालता है। यह वापसी न केवल विरासत के वैश्विक संरक्षक के रूप में भारत की भूमिका को सुदृढ़ करती है, बल्कि शांति, करुणा और आध्यात्मिक ज्ञान के उन शाश्वत मूल्यों की भी पुनः पुष्टि करती है, जिन्हें भगवान बुद्ध की शिक्षाएँ निरंतर विश्व को प्रदान करती रही हैं।