संदर्भ:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज अपने मासिक रेडियो कार्यक्रम ‘मन की बात’ में महाराष्ट्र की पारंपरिक कारीगरी पैठणी साड़ियों की प्रशंसा की। उनका यह उल्लेख विशेष रूप से छत्रपति संभाजीनगर जिले (पूर्व में औरंगाबाद) की ग्रामीण महिलाओं द्वारा संजोई गई इस परंपरागत हस्तकला की सामाजिक और आर्थिक महत्ता को रेखांकित करता है।
पैठणी साड़ियाँ क्या हैं?
पैठणी साड़ियाँ महाराष्ट्र के गोदावरी नदी के किनारे बसे प्राचीन नगर पैठन से जुड़ी एक सदी पुरानी हथकरघा परंपरा हैं। इन्हें “रेशमी साड़ियों की रानी” कहा जाता है और ये भारत की सबसे बारीक, भव्य और महंगी पारंपरिक साड़ियों में गिनी जाती हैं।
पैठणी साड़ियों की खास बातें:
• ये साड़ियाँ शुद्ध रेशम और असली ज़री (सोने या चाँदी की धागा) से बनाई जाती हैं।
• इन पर बने आकर्षक डिजाइन जैसे मोर, कमल के फूल, बेल-बूटे और ज्यामितीय आकृतियाँ इन्हें खास बनाते हैं।
• रेशम के दो अलग-अलग रंगों के धागों को मिलाकर बुने जाने से इसमें एक खास तरह की दोहरी रोशनी (शॉट इफेक्ट) दिखाई देती है।
• पल्लू (साड़ी का सजीला किनारा) बेहद बारीकी से और खास डिज़ाइन में बुना जाता है, जो इसे अन्य साड़ियों से अलग करता है।
• हर साड़ी पूरी तरह हाथ से बुनी जाती है, जिससे हर एक साड़ी अनोखी होती है और इसे बनाने में काफी समय लगता है।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व:
- प्राचीन काल में पैठन नगर सातवाहन वंश के दौरान एक प्रमुख व्यापार केंद्र था।
- पैठणी साड़ियाँ उस समय राजघरानों और अमीर लोगों की पहचान मानी जाती थीं।
- आज भी ये साड़ियाँ महाराष्ट्रीयन परंपरा और गौरव की प्रतीक हैं। इन्हें खासतौर पर शादियों, त्योहारों और पारंपरिक आयोजनों में पहना जाता है।
- कई परिवार इन साड़ियों को वंश परंपरा के तौर पर सहेजते हैं और पीढ़ियों तक उन्हें संभालकर रखते हैं।
हथकरघा और महिलाओं की आजीविका:
पैठणी साड़ियों का निर्माण आज ग्रामीण इलाकों, खासकर पैठन और आसपास के गांवों की महिलाओं के लिए रोज़गार का एक बड़ा साधन बन गया है।
सरकारी सहयोग से:
• रेशम के धागे और ज़री जैसे कच्चे माल की उपलब्धता कराई जाती है।
• बुनाई के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है।
• हस्तशिल्प मेलों और प्रदर्शनियों में भागीदारी के ज़रिए बाजार तक पहुँच बनाई जाती है।
एक पैठणी साड़ी का निर्माण करने के लिए अत्यधिक कौशल और धैर्य की आवश्यकता होती है:
• डिज़ाइन की जटिलता के अनुसार इसे तैयार करने में कई हफ्तों से लेकर महीनों तक का समय लगता है।
• हर प्रक्रिया “रेशम रंगने, करघा तैयार करने और बुनाई तक” सब कुछ हाथों से किया जाता है।
• यह पूरी प्रक्रिया बिना जैक्वार्ड और बिना पॉवर लूम के होती है, जिससे यह साड़ी पूरी तरह हस्तनिर्मित बनी रहती है।
निष्कर्ष:
पैठणी साड़ियों को मिला सम्मान केवल उनकी कलात्मक सुंदरता का सम्मान नहीं है, बल्कि यह भारत की जीवंत सांस्कृतिक विरासत, ग्रामीण महिलाओं की आत्मनिर्भरता, और पारंपरिक शिल्पकला के सतत अस्तित्व का प्रतीक है। इस प्रकार की कारीगरी को प्रोत्साहन देने से न केवल हमारी सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित रहती है, बल्कि कारीगर समुदायों के लिए सम्मानजनक और स्थायी आजीविका के अवसर भी उत्पन्न होते हैं। हस्तशिल्प के पुनरुद्धार और कला-आधारित उद्यमिता को बढ़ावा देने की दिशा में पैठणी साड़ियाँ एक जीवंत उदाहरण हैं कि किस तरह हमारी परंपरा वर्तमान को सशक्त बनाते हुए भविष्य की पीढ़ियों को दिशा दे सकती है।