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Blog / 24 Jun 2025

भारत में अंग प्रतिरोपण

संदर्भ:

19 जून को केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी एक हालिया रिपोर्ट में देश के अंग प्रतिरोपण कार्यक्रम से जुड़ी गंभीर समस्याओं को रेखांकित किया गया है। यह रिपोर्ट नेशनल ऑर्गन एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (NOTTO) द्वारा तैयार की गई है और इसमें सरकारी अस्पतालों में अंग प्रतिरोपण से संबंधित गतिविधियों की उच्च-स्तरीय समीक्षा शामिल है।

रिपोर्ट की मुख्य बातें:

1.      अंग प्रतिरोपण की संख्या बहुत कम:

देश में मानव अंगों की मांग लगातार बढ़ रही है, लेकिन प्रतिरोपण सेवाएं उस गति से विकसित नहीं हो पाई हैं।

·         वर्ष 2023 में देशभर के सरकारी और निजी अस्पतालों में कुल मिलाकर केवल 13,476 गुर्दा प्रतिरोपण किए गए, जबकि हर साल करीब एक लाख गुर्दा प्रतिरोपण की आवश्यकता होती है।

·         रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी अस्पतालों की मौजूदा क्षमता इस बढ़ती जरूरत को पूरा करने में सक्षम नहीं है। ऐसे में नए प्रतिरोपण केंद्रों की स्थापना और मौजूदा केंद्रों का विस्तार की आवश्यकता है।

2.     सरकारी अस्पतालों में बुनियादी ढांचे की कमी:

इस क्षेत्र की सबसे बड़ी चुनौती, उचित और समर्पित सुविधाओं का अभाव है।

·         अधिकांश सरकारी अस्पतालों में अंग प्रतिरोपण के लिए अलग ऑपरेशन थियेटर और गहन चिकित्सा इकाई (Intensive Care Units-ICU) उपलब्ध नहीं हैं।

·         ICU बेड विशेष रूप से उन मस्तिष्क-मृत दाताओं के लिए जरूरी होते हैं जिनसे अंग लिए जाने हैं, लेकिन ट्रॉमा सेंटरों में बेड पहले से ही पूरी तरह भरे रहते हैं। इससे समय पर अंगों की प्राप्ति में बाधा आती है और सफल प्रतिरोपण की संभावना कम हो जाती है।

·         यहां तक कि एम्स जैसे प्रमुख संस्थानों में भी HLA (ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन) क्रॉस-मैचिंग के लिए अपनी प्रयोगशाला नहीं है। ऐसे में अस्पतालों को बाहरी प्रयोगशालाओं पर निर्भर रहना पड़ता है, जिससे प्रतिरोपण की प्रक्रिया में अनावश्यक देरी होती है।

Organ Transplantation in India

3.     विशेषज्ञ स्टाफ की भारी कमी:

रिपोर्ट में यह प्रमुख चिंता जताई गई है कि अंग प्रतिरोपण से जुड़ी चिकित्सा सेवाओं में विशेषज्ञ डॉक्टरों और प्रशिक्षित स्टाफ की गंभीर कमी है।

·         इसमें ट्रांसप्लांट सर्जन, नेफ्रोलॉजिस्ट, यूरोलॉजिस्ट, एनेस्थेटिस्ट, न्यूरोलॉजिस्ट और इंटेंसिविस्ट जैसे विशेषज्ञ शामिल हैं।

·         जहां ये विशेषज्ञ उपलब्ध भी होते हैं, वहां बार-बार होने वाले तबादले कार्यक्रमों की निरंतरता को बाधित करते हैं। इसका असर न केवल सेवाओं की गुणवत्ता पर पड़ता है, बल्कि नए विशेषज्ञों के प्रशिक्षण की प्रक्रिया भी प्रभावित होती है।

4.     मरीजों पर वित्तीय बोझ:

अंग प्रतिरोपण के बाद की देखभाल, विशेषकर प्रतिरक्षा-रोधी (इम्यूनोसप्रेसिव) दवाओं का आजीवन सेवन, अत्यंत महंगा होता है।

·         वर्तमान में अधिकांश सरकारी योजनाएं केवल प्रतिरोपण के पहले वर्ष तक ही आर्थिक सहायता प्रदान करती हैं। इसके बाद मरीजों को दवाओं और नियमित जांचों का खर्च स्वयं वहन करना पड़ता है, जो कई लोगों के लिए बहुत भारी साबित होता है।

·         कई अस्पतालों ने यह भी बताया है कि सीमित वित्तीय संसाधनों के चलते वे अपने प्रतिरोपण कार्यक्रम शुरू नहीं कर पा रहे हैं या पहले से चालू कार्यक्रमों को जारी रखना मुश्किल होता जा रहा है।

सिफारिशें:

रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY) का दायरा बढ़ाया जाए, ताकि इसमें लिवर और हृदय प्रतिरोपण को भी शामिल किया जा सके। इसके साथ ही, प्रतिरोपण के बाद आवश्यक इम्यूनोसप्रेसिव दवाओं की आजीवन लागत को भी योजना के तहत कवर किया जाए। इससे विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के मरीजों को बड़ी राहत मिलेगी और प्रतिरोपण सेवाओं तक उनकी पहुंच बढ़ेगी।

अन्य प्रमुख सिफारिशें:

  • अधिक सरकारी अस्पतालों में समर्पित ट्रांसप्लांट यूनिट की स्थापना।
  • ICU बेड और प्रयोगशाला सुविधाओं को बढ़ाना।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में स्थायी, प्रशिक्षित और समर्पित विशेषज्ञों की टीम विकसित करना।

निष्कर्ष:

भारत का अंग प्रतिरोपण तंत्र कई संरचनात्मक और प्रणालीगत चुनौतियों से जूझ रहा है। बेहतर बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षित स्टाफ की उपलब्धता और मरीजों को आर्थिक सुरक्षा देने जैसे कदमों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। एक समन्वित राष्ट्रीय प्रयास से ही प्रतिरोपण सेवाओं को प्रभावी और समावेशी बनाया जा सकता है, जिससे समय पर जीवनरक्षक अंगों की उपलब्धता सुनिश्चित हो और अधिक से अधिक लोगों की जान बचाई जा सके।