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Blog / 06 Sep 2025

दाल उत्पादन के प्रोत्साहन हेतु नीति आयोग की रणनीति

सन्दर्भ:

सितंबर, 2025 को नीति आयोग ने आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर दाल उत्पादन में तीव्र वृद्धि हेतु रणनीतियाँ और मार्ग (Strategies and Pathways for Accelerating Growth in Pulses towards the Goal of Atmanirbharta) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में भारत के दलहन क्षेत्र को आत्मनिर्भर, टिकाऊ और उच्च प्रदर्शनकारी कृषि क्षेत्र में परिवर्तित करने हेतु विस्तृत कार्ययोजना प्रस्तुत की गई है।

दालों का महत्व:

भारत विश्व का सबसे बड़ा दाल उत्पादक और उपभोक्ता देश है। दालें महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि:

    • पोषण सुरक्षा: ये भारत की मुख्यतः शाकाहारी जनसंख्या के लिए प्रोटीन का प्रमुख स्रोत हैं।
    • सतत कृषि: दालें नाइट्रोजन निर्धारित कर मिट्टी की उर्वरता बढ़ाती हैं और तुलनात्मक रूप से कम पानी की आवश्यकता रखती हैं।
    • आजिविका: 5 करोड़ से अधिक किसान और उनके परिवार, जिनमें अधिकांश वर्षा-आश्रित क्षेत्रों से आते हैं, दाल उत्पादन पर निर्भर हैं।

वर्तमान चुनौतियाँ और प्रगति

इस क्षेत्र ने उल्लेखनीय प्रगति की है:

    • 2015–16 में दाल उत्पादन घटकर 16.35 मिलियन टन (एमटी) रह गया था, जिसके चलते 6 एमटी आयात करना पड़ा।
    • 2022–23 तक उत्पादन 59.4% बढ़कर 26.06 एमटी हो गया। उत्पादकता में 38% की वृद्धि से आयात निर्भरता 29% से घटकर 10.4% रह गई।

फिर भी चुनौतियाँ मौजूद हैं:

    • 2023–24 में उत्पादन 242.46 लाख मीट्रिक टन (LMT) तक पहुंचा, परंतु 50.04 LMT की कमी के कारण 47.39 LMT आयात करना पड़ा।
    • उत्पादन विशेष रूप से केंद्रित है: मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान मिलकर 55% का योगदान करते हैं, जबकि शीर्ष 10 राज्य कुल उत्पादन का 90% से अधिक भाग देते हैं।

रिपोर्ट की परिकल्पित रणनीति

केंद्रीय बजट 2025–26 में घोषित दालों में आत्मनिर्भरता हेतु मिशनछह वर्षीय पहल है, जिसमें मुख्य ध्यान निम्न फसलों पर है:

    • अरहर (Pigeonpea / Tur)
    • उड़द (Black gram / Urad)
    • मसूर (Lentil / Masoor)

यह मिशन मूल्य स्थिरीकरण कोष (Price Stabilisation Fund - PSF) द्वारा समर्थित है, जिसके तहत अप्रैल 2025 तक 15.7 लाख मीट्रिक टन का बफर स्टॉक उपलब्ध है। इसका उद्देश्य मूल्य स्थिरता, उपलब्धता सुनिश्चित करना और आयात को कम करना है।

रणनीतिक ढांचा

1.        क्षैतिज विस्तार (Horizontal Expansion)

o    धान की परती भूमि (rice fallows) का उपयोग

o    अंत:फसल (intercropping) को बढ़ावा

o    दाल-योग्य क्षेत्रों में अनुपयोगी भूमि का दोहन

2.      ऊर्ध्वाधर विस्तार (Vertical Expansion)

o    उच्च उत्पादक किस्मों एवं संकर बीजों का प्रचार

o    वैज्ञानिक बुवाई एवं कीट प्रबंधन

o    बीज उपचार एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करना

o    पोषक तत्व, खरपतवार तथा सिंचाई का समन्वित प्रबंधन

प्रमुख सिफारिशें

    • फसल-वार क्लस्टरिंग: विशिष्ट दालों के लिए लक्षित क्लस्टर तैयार किए जाएँ ताकि क्षेत्र स्थिर रहे और विविधीकरण को बढ़ावा मिले।
    • कृषि-पर्यावरणीय अनुकूलन: स्थान-विशिष्ट प्रौद्योगिकियों का उपयोग कर उत्पादकता एवं लचीलेपन को बढ़ाया जाए।
    • बीज आपूर्ति सुधार:
      • 111 उच्च क्षमता वाले जिलों, जो कुल उत्पादन का 75% योगदान देते हैं, में उच्च गुणवत्ता वाले बीज वितरित किए जाएँ।
      • वन ब्लॉकवन सीड विलेज मॉडल को किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) के सहयोग से लागू किया जाए।
    • जलवायु लचीलापन:
      • जलवायु-अनुकूल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना।
      • जलवायु जोखिम कम करने हेतु डेटा-आधारित निगरानी प्रणाली में निवेश करना।
    • जिला-वार चतुर्भुज दृष्टिकोण (Quadrant Approach):
      • उत्पादन क्षमता, जलवायु जोखिम, और अवसंरचनात्मक अंतरालों के आधार पर जिला क्लस्टरों की पहचान एवं प्रबंधन करना।

अनुमानित परिणाम

    • घरेलू उत्पादन में लगभग 20.10 एमटी की वृद्धि।
    • 2030 तक 48.44 एमटी एवं 2047 तक 63.64 एमटी के आपूर्ति लक्ष्य को प्राप्त करना।
    • आयात निर्भरता में महत्त्वपूर्ण कमी और निर्यात क्षमता का संवर्धन।

निष्कर्ष-

नीति आयोग की यह रणनीतिक कार्ययोजना दाल क्षेत्र को पुनर्जीवित करने हेतु एक व्यापक एवं साक्ष्य-आधारित खाका प्रस्तुत करती है। क्षेत्रीय शक्तियों, प्रौद्योगिकी एकीकरण, जलवायु लचीलापन तथा किसान-केंद्रित मॉडल पर ध्यान केंद्रित करके भारत दाल उत्पादन में आत्मनिर्भरता (Atmanirbharta) की दिशा में निर्णायक कदम बढ़ा सकता है।