संदर्भ:
केंद्र सरकार आगामी मानसून सत्र में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव पेश करने की तैयारी में है। इसके लिए वह सभी राजनीतिक दलों के साथ सहमति बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
महाभियोग का कारण:
- 14 मार्च 2025 को न्यायमूर्ति वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना हुई। आग बुझाने के बाद वहाँ से आधे जले हुए नकदी से भरे कई बोरे बरामद हुए। इस गंभीर मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एक विशेष जांच समिति ने की।
- समिति ने 4 मई को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें उल्लेख किया गया कि न्यायमूर्ति वर्मा उक्त धनराशि के स्रोत के बारे में कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण नहीं दे सके। समिति ने उनके आचरण को गभीर कदाचार की श्रेणी में रखते हुए उनके विरुद्ध महाभियोग चलाने की सिफारिश की।
भारत में न्यायाधीशों का महाभियोग:
भारत में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल और दुर्लभ है। यह संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 124(5) के अंतर्गत संचालित होती है। किसी न्यायाधीश को केवल राष्ट्रपति द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है, वह भी तब जब संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित एक प्रस्ताव के माध्यम से ऐसा अनुरोध किया गया हो।
हटाने के आधार:
1. सिद्ध दुराचार (Proved Misbehaviour): इसमें जानबूझकर अनुचित आचरण, भ्रष्टाचार, ईमानदारी में कमी, अथवा नैतिक पतन से संबंधित अपराध शामिल होते हैं।
2. असमर्थता (Incapacity): जब कोई न्यायाधीश शारीरिक या मानसिक रूप से अपने न्यायिक कर्तव्यों को निभाने में अक्षम हो जाता है, तो यह आधार बनता है।
न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत विस्तृत प्रक्रिया:
· महाभियोग प्रस्ताव लाना: राज्यसभा में कम से कम 50 सदस्य अथवा लोकसभा में कम से कम 100 सदस्य मिलकर न्यायाधीश को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करते हैं।
· प्रस्ताव की स्वीकृति: प्रस्ताव प्राप्त होने के बाद, राज्यसभा के सभापति या लोकसभा के अध्यक्ष उसे स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेते हैं।
· तीन सदस्यीय जांच समिति का गठन: यदि प्रस्ताव स्वीकार कर लिया जाता है, तो एक तीन सदस्यीय जांच समिति गठित की जाती है, जिसमें एक सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, एक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा एक प्रख्यात विधिवेत्ता (jurist) शामिल होते हैं।
· आरोपों की जांच: यह समिति आरोपों की विस्तृत जांच करती है और अपनी रिपोर्ट तैयार कर प्रस्तुत करती है।
· परिणाम: यदि समिति न्यायाधीश को निर्दोष घोषित करती है, तो प्रक्रिया यहीं समाप्त हो जाती है। लेकिन यदि न्यायाधीश दोषी पाए जाते हैं, तो समिति की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत की जाती है, जहाँ प्रस्ताव को विशेष बहुमत (दो-तिहाई) से पारित करना आवश्यक होता है।
महाभियोग की उल्लेखनीय घटनाएँ:
· न्यायमूर्ति वी. रमास्वामी (1993): वे पहले न्यायाधीश थे जिनके विरुद्ध संसद में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया। हालांकि, लोकसभा में प्रस्ताव को आवश्यक दो-तिहाई बहुमत प्राप्त नहीं हो सका, जिसके कारण प्रस्ताव असफल हो गया।
· न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011): वे पहले न्यायाधीश थे जिन्हें राज्यसभा ने दुराचार के लिए दोषी ठहराया और महाभियोग प्रस्ताव पारित किया। हालांकि, लोकसभा में मतदान से पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
· इस्तीफे जिनसे महाभियोग प्रक्रिया टली:
o न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन (2011): उन पर भ्रष्टाचार, भूमि हड़पने और न्यायिक पद के दुरुपयोग जैसे गंभीर आरोप लगे थे। महाभियोग की प्रक्रिया प्रारंभ होने से पहले ही उन्होंने सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद से इस्तीफा दे दिया।
निष्कर्ष:
महाभियोग की प्रक्रिया न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने और उसके सम्मान की रक्षा करने के लिए एक संवैधानिक उपाय है। हालांकि, यह प्रक्रिया अत्यंत जटिल और दुर्लभ होती है, जिसे सावधानीपूर्वक और संविधान द्वारा निर्धारित नियमों का पूर्ण पालन करते हुए ही आगे बढ़ाया जाता है।