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Blog / 28 Jun 2025

कोल्हापुरी चप्पल विवाद

संदर्भ:

हाल ही में इटली की लग्जरी फैशन ब्रांड प्राडा (Prada) के नए कलेक्शन में प्रदर्शित सैंडल्स को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। भारत के कोल्हापुरी चप्पल निर्माताओं ने आरोप लगाया है कि यह डिज़ाइन कोल्हापुरी चप्पलों की नकल है, जो कि भारत सरकार द्वारा भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्राप्त पारंपरिक उत्पाद है। यह विवाद न केवल बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR) का उल्लंघन है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक अस्मिता और कारीगरों के अधिकारों से भी जुड़ा गंभीर मामला है।

कोल्हापुरी चप्पल की सांस्कृतिक और आर्थिक महत्ता:

कोल्हापुरी चप्पलें महाराष्ट्र की एक सदियों पुरानी कारीगरी का प्रतीक हैं। शुद्ध चमड़े से निर्मित यह चप्पलें न केवल स्थानीय पहचान हैं बल्कि हजारों कारीगरों की आजीविका का आधार भी हैं। इन्हें वर्ष 2019 में GI टैग प्राप्त हुआ, जिसका अर्थ है कि इस विशिष्ट डिज़ाइन और निर्माण तकनीक को कोल्हापुर और उसके आस-पास के क्षेत्र से जोड़ा गया है और इसके संरक्षण की कानूनी व्यवस्था है।

प्राडा द्वारा प्रस्तुत सैंडल डिज़ाइन को कोल्हापुरी चप्पलों की हूबहू नकल माना गया है परंतु इसमें कहीं भी भारतीय स्रोत या प्रेरणा का उल्लेख नहीं किया गया है। इसकी कीमत लगभग ₹1 लाख रखी गई है, जबकि वही डिज़ाइन भारत में कई गुना सस्ते दाम पर हज़ारों कारीगरों द्वारा बनाया जाता है।
भौगोलिक संकेत (
GI) टैग:
भौगोलिक संकेत (Geographical Indication - GI) टैग एक प्रकार का बौद्धिक संपदा अधिकार है, जो किसी उत्पाद को उसके विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र से जोड़ता है। इसका मतलब है कि उस उत्पाद की गुणवत्ता, प्रतिष्ठा या विशेष विशेषताएँ उस क्षेत्र की भौगोलिक उत्पत्ति पर निर्भर करती हैं। उदाहरण: कोल्हापुरी चप्पल, दरजीलिंग चाय, बनारसी साड़ी आदि।

भौगोलिक संकेत का महत्त्व:

  • यह स्थानीय कारीगरों और किसानों को पहचान और बाज़ार में लाभ दिलाता है।
  • नकली या घटिया उत्पादों से उत्पाद की प्रतिष्ठा की रक्षा करता है।
  • क्षेत्रीय आजीविका, परंपरा व सांस्कृतिक विरासत को संरक्षण देता है।
  • वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्धा की क्षमता बढ़ाता है।

विधिक और नैतिक पक्ष-
GI टैग प्राप्त उत्पाद की नकल करने पर भौगोलिक संकेत (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत कानूनी उल्लंघन माना जाता है:

·         आपराधिक कार्रवाई: नकली उत्पाद बेचने या बनाने पर 6 महीने तक की जेल और जुर्माना (₹50,000 या अधिक) हो सकता है।

·         सिविल कार्रवाई: अदालत से निषेधाज्ञा (injunction) लेकर नकली उत्पादों की बिक्री पर रोक लगाई जा सकती है और हर्जाने की मांग की जा सकती है।

·         सीमा शुल्क उपाय: नकली उत्पादों के आयात-निर्यात पर भी रोक लगाई जा सकती है।

·         ब्रांड की प्रतिष्ठा की रक्षा: कानूनी कार्रवाई से उत्पाद की पहचान और स्थानीय कारीगरों की आजीविका सुरक्षित रहती है।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर GI टैग प्राप्त उत्पादों की रक्षा के लिए निम्न उपाय उपलब्ध हैं:

·         TRIPS समझौता (WTO के तहत): सदस्य देशों को GI संरक्षण देना अनिवार्य है। भारत WTO में शिकायत दर्ज कर सकता है।

·         WIPO (World Intellectual Property Organization): इसके जरिए GI का अंतर्राष्ट्रीय पंजीकरण व संरक्षण संभव है (Lisbon Agreement के तहत)।

·         राजनयिक कदम: भारत अन्य देशों से द्विपक्षीय समझौते कर GI उत्पादों की नकल पर रोक लगाने की मांग कर सकता है।

·         विदेशी अदालतों में मुकदमा: GI धारक विदेशी बाजारों में भी नकली उत्पाद बेचने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं।

नैतिक दृष्टिकोण से भी यह स्पष्ट है कि वैश्विक ब्रांडों को पारंपरिक डिज़ाइनों से प्रेरणा लेने के साथ-साथ उनकी उत्पत्ति को स्वीकार करना, स्थानीय कारीगरों को श्रेय देना, और राजस्व साझाकरण पर विचार करना चाहिए।

निष्कर्ष

प्राडा और कोल्हापुरी चप्पल विवाद न केवल एक डिज़ाइन तक सीमित है, बल्कि यह भारत जैसे देश की सांस्कृतिक और बौद्धिक संपदा की वैश्विक स्तर पर रक्षा का मामला बन गया है। यदि इस मुद्दे को समय रहते प्रभावी ढंग से नहीं उठाया गया, तो अन्य GI टैग प्राप्त उत्पादों जैसे बनारसी साड़ी, कांच की चूड़ियाँ, मधुबनी चित्रकला पर भी ऐसे ही खतरे मंडरा सकते हैं। यह समय है कि भारत न केवल कानूनी रूप से GI टैग की रक्षा करे, बल्कि वैश्विक मंचों पर भी सांस्कृतिक संपदा की रक्षा के लिए नैतिक और कूटनीतिक दबाव बनाए। यह मामला केवल डिज़ाइन की चोरी नहीं है, बल्कि एक प्रकार की "सांस्कृतिक चोरी" बन जाता है, जब कोई वैश्विक ब्रांड किसी परंपरागत शिल्प को बाज़ार में उतारकर स्थानीय शिल्पकारों को श्रेय दिए बिना लाभ कमाता है।