संदर्भ:
हाल ही में इंडिया जस्टिस रिपोर्ट (IJR) ने “किशोर न्याय और कानून से संघर्षरत बच्चे: अग्रिम मोर्चे पर क्षमता का अध्ययन (जुवेनाइल जस्टिस एंड चिल्ड्रेन इन कॉन्फ्लिक्ट विद द लॉ: ए स्टडी ऑफ कैपेसिटी एट द फ्रंटलाइन्स)” शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह रिपोर्ट किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 के तहत स्थापित संस्थाओं की 31 अक्टूबर 2023 तक की क्षमता का मूल्यांकन करती है। इसके लिए संसदीय उत्तरों, एक वर्ष तक चली RTI जांच और राज्य-वार डेटा का उपयोग किया गया है।
रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष:
1. लंबित मामलों की उच्च संख्या
· 31 अक्टूबर 2023 तक, 362 जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड (JJB) के पास मौजूद 1,00,904 मामलों में से 55% अभी भी लंबित थे।
· इस अवधि में केवल लगभग 45,097 मामलों का निपटारा हो सका।
· राज्यों में लंबित मामलों की दर अलग-अलग “ओडिशा में 83%, जबकि कर्नाटक में 35%” है।
2. संस्थागत और मानव संसाधन की कमी
· 24% जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड पूरी बेंच के बिना काम कर रहे हैं (या तो प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट नहीं, या दो सामाजिक कार्यकर्ताओं में से कोई कमी, जिनमें से एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता का होना अनिवार्य है)।
· जबकि 30% में लीगल सर्विस क्लिनिक नहीं है, जिससे कानून से संघर्षरत बच्चों को सहायता पाना कठिन हो जाता है।
3. अपर्याप्त बुनियादी ढांचा और निगरानी
· देश में 319 निरीक्षण गृह, 41 विशेष गृह और 40 सुरक्षा स्थान हैं, लेकिन 14 राज्यों (जम्मू-कश्मीर सहित) में 16–18 वर्ष के गंभीर अपराधों के आरोपित बच्चों के लिए किसी भी “सुरक्षा स्थान” की व्यवस्था नहीं है।
4. विश्वसनीय और पारदर्शी डेटा की कमी
· बाल-केंद्रित, केंद्रीकृत डेटा सिस्टम का गंभीर अभाव है। मुख्यधारा अदालतों में उपलब्ध नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड जैसा कोई एकीकृत व सार्वजनिक डेटा प्लेटफॉर्म जुवेनाइल जस्टिस सिस्टम में नहीं है।
5. राज्य-स्तरीय असमानताएँ
· भारत के 765 जिलों में से 92% में जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड गठित हैं, लेकिन अलग-अलग राज्यों में उनकी कार्यक्षमता काफी भिन्न है।
प्रभाव:
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- इतने बड़े पैमाने पर मामलों के लंबे समय तक लंबित रहने से बच्चे कानूनी अनिश्चितता में फँस जाते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई, मानसिक स्वास्थ्य और पुनर्वास की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- यदि जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में पूरी बेंच मौजूद न हो या कानूनी सहायता समय पर न मिले, तो सुनवाई की गुणवत्ता घट जाती है और बच्चों के अधिकार कमजोर हो जाते हैं।
- कमजोर बुनियादी ढाँचे और निगरानी की कमी के कारण प्रभावी रूप से पुनर्वास नहीं हो पाता, जिससे बच्चों में दोबारा अपराध करने का जोखिम बढ़ सकता है।
- इतने बड़े पैमाने पर मामलों के लंबे समय तक लंबित रहने से बच्चे कानूनी अनिश्चितता में फँस जाते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई, मानसिक स्वास्थ्य और पुनर्वास की प्रक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
सुझाव:
1. जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की क्षमता को मजबूत करना: सुनिश्चित किया जाए कि सभी जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड में अनिवार्य रूप से पूरी बेंच (प्रिंसिपल मजिस्ट्रेट और दो सामाजिक कार्यकर्ता, जिनमें एक महिला हो) मौजूद हो।
2. संस्थागत बुनियादी ढांचे में सुधार: सभी राज्यों में, खासकर 16–18 वर्ष के बड़े किशोरों के लिए “सुरक्षा स्थल” (Place of Safety) की स्थापना की जाए। लड़कियों के लिए चाइल्ड केयर इंस्टीट्यूट की संख्या बढ़ाई जाए और आयु तथा अपराध की प्रकृति के अनुरूप संवेदनशील संस्थान विकसित किए जाएँ।
3. केंद्रीय डेटा ग्रिड विकसित करना: नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड (NJDG) की तर्ज पर एक राष्ट्रीय जुवेनाइल जस्टिस डेटा ग्रिड बनाया जाए, ताकि केसों, निपटानों, पुनरावृत्ति (Recidivism) और क्षमता से जुड़ा डेटा एकत्र, मानकीकृत और सार्वजनिक किया जा सके।
4. कानूनी सहायता और परामर्श को बढ़ावा देना: सभी जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड से कानूनी सेवा क्लिनिक जोड़े जाएँ, ताकि बच्चों को समय पर वकील और काउंसलिंग मिल सके। लीगल एड वकीलों को बच्चों से जुड़े संवेदनशील न्याय (Child-Sensitive Adjudication) और रेस्टोरेटिव जस्टिस के सिद्धांतों में विशेष प्रशिक्षण दिया जाए।
निष्कर्ष:
इंडिया जस्टिस रिपोर्ट के निष्कर्ष यह स्पष्ट संकेत देते हैं कि अब तत्काल नीतिगत सुधार आवश्यक हैं, जिसमें संस्थागत क्षमता को मजबूत करना, विश्वसनीय डेटा सिस्टम विकसित करना और यह सुनिश्चित करना कि पूरा जुवेनाइल जस्टिस सिस्टम वास्तव में “बच्चे के सर्वोत्तम हित” के सिद्धांत पर कार्य करे आदि शामिल है।

