सन्दर्भ:
हाल ही में द लांसेट इन्फेक्शियस डिज़ीज़ जर्नल में प्रकाशित एक बहु-देशीय अध्ययन ने भारत समेत निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMICs) में दवा-प्रतिरोधी संक्रमणों के इलाज के लिए उपयुक्त एंटीबायोटिक दवाओं तक सीमित और चिंताजनक पहुंच को उजागर किया है।
कार्यक्षेत्र और कार्यप्रणाली
इस शोध के लिए आंकड़े लैंसेट के ग्लोबल बर्डन ऑफ एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (GRAM) अध्ययन और वर्ष 2019 के लिए IQVIA के फार्मास्युटिकल डेटा से प्राप्त किये गए थे।
शोधकर्ताओं ने दो प्राथमिक मापदंडों का अनुमान लगाया:
1. उपचार की कुल आवश्यकता, अर्थात दवा प्रतिरोधी जीवाणु संक्रमणों की संख्या।
2. ऐसे व्यक्तियों की संख्या जिन्हें संभावित रूप से उचित उपचार दिया गया, जिसमें सीआरजीएन संक्रमण पर विशेष जोर दिया गया।
अध्ययन के प्रमुख बिंदु:
· ग्लोबल एंटीबायोटिक रिसर्च एंड डेवलपमेंट पार्टनरशिप (जीएआरडीपी) द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि भारत में दवा प्रतिरोधी संक्रमण वाले केवल 7.8% रोगियों को ही उचित एंटीबायोटिक उपचार मिल पाया।
· हालांकि यह आठों देशों की औसत दर (6.9%) से थोड़ी अधिक है, लेकिन फिर भी यह स्थिति गंभीर है।
· संक्रमण के पैमाने और ज़रूरत और पहुँच के बीच बेमेल के मामले में भारत का मामला अलग है। अध्ययन के अनुसार:
· 2019 में, भारत में लगभग 10 लाख (1 मिलियन) सीआरजीएन संक्रमण दर्ज किए गए।
· इनमें से 1 लाख से भी कम (लगभग 78,000) रोगियों को उचित एंटीबायोटिक उपचार मिला।
· यह दर्शाता है कि केवल 7.8% को ही इलाज मिल पाया, जिससे इलाज में बड़ी कमी उजागर होती है।
· अनुमान के अनुसार 2019 में इन संक्रमणों के कारण केवल भारत में लगभग 3.5 लाख मौतें हुईं।
आगे की राह:
· वैश्विक पहुँच अंतराल और कार्रवाई योग्य कदम : एएमआर (एंटीमाइक्रोबियल रेज़िस्टेंस) पर संयुक्त राष्ट्र राजनीतिक घोषणापत्र में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि एएमआर से ज़्यादा लोगों की प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं तक पहुँच की कमी से मृत्यु होती है। सीमित निगरानी क्षमताओं के कारण इस पहुँच अंतराल की कमी को ठीक से समझा नहीं जा सका है। इस चुनौती से निपटने के लिए वैश्विक और क्षेत्रीय पहुँच पहलों का समर्थन करने के लिए सिक्योर एंटीबायोटिक सुविधा की स्थापना की गई है।
· पहुँच की कमी को दूर करने में भारत की भूमिका : एंटीबायोटिक दवाओं सहित चिकित्सा उपकरणों तक समय पर और समान पहुँच सुनिश्चित करने की भारत की प्रतिबद्धता को अब ठोस कार्रवाई में बदलाव किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय एएमआर रोकथाम कार्यक्रम, ICMR और CDSCO को ऐसे नियम बनाने चाहिए जो नई दवाओं तक समय पर पहुंच के साथ-साथ उनके जिम्मेदार उपयोग को भी सुनिश्चित करें।
· पहुँच का विस्तार करना और प्रतिरोध को नियंत्रित करना : भारत में दवा-प्रतिरोधी संक्रमणों का खतरा लगातार बढ़ रहा है। ऐसे में, गंभीर रूप से बीमार मरीजों, खासकर MDR संक्रमण वाले मरीजों के लिए जीवनरक्षक एंटीबायोटिक्स की पहुंच बढ़ानी होगी। साथ ही, एंटीबायोटिक्स के अंधाधुंध इस्तेमाल पर भी रोक लगानी होगी ताकि आगे प्रतिरोध न बढ़े।
· सहयोग और SECURE की भूमिका : भारत को टीबी कार्यक्रम से सीख लेते हुए अंतरराष्ट्रीय संगठनों के साथ मिलकर काम करना चाहिए। SECURE जैसी पहलों को अपनाना और एक साझा खरीद प्रणाली बनाना ज़रूरी है, जिससे पूरे देश में नियंत्रित तरीके से नई एंटीबायोटिक्स तक पहुंच हो और उनका लंबे समय तक प्रभाव बना रहे।