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Blog / 20 Dec 2025

लिव-इन जोड़ों को संरक्षण देने का आदेश

सन्दर्भ:

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुलिस को निर्देश दिया कि वे लिव-इन संबंधों में रह रहे 12 जोड़ों को तत्काल सुरक्षा प्रदान करें। इन जोड़ों ने आरोप लगाया था कि उन्हें अपने परिवारों की ओर से धमकियाँ और उत्पीड़न झेलना पड़ रहा है तथा स्थानीय प्रशासन से उन्हें पर्याप्त संरक्षण नहीं मिला।

निर्णय के प्रमुख पहलू:

      • जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण: न्यायालय ने स्पष्ट किया कि लिव-इन संबंधों में रहने वाले वयस्कों को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है। पीठ ने कहा कि विवाह का अभाव किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के दावे को कमजोर नहीं करता।
      • लिव-इन संबंधों की विधिक स्थिति: न्यायालय ने स्वीकार किया कि भारतीय समाज में लिव-इन संबंधों को समान रूप से स्वीकार्यता नहीं मिली है, किंतु यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे संबंध अवैध नहीं हैं और स्वयं में कोई आपराधिक कृत्य नहीं माने जा सकते। पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विधिक वैधता और सामाजिक या नैतिक स्वीकार्यता में अंतर है, तथा जब तक आचरण कानून का उल्लंघन नहीं करता, तब तक व्यक्तिगत पसंद का सम्मान किया जाना चाहिए।
      • पुलिस संरक्षण से जुड़े निर्देश: न्यायालय ने निर्देश दिया कि स्वेच्छा से साथ रह रहे वयस्क जोड़ों को यदि धमकी या उत्पीड़न का सामना करना पड़े, तो उन्हें पुलिस संरक्षण दिया जाए। इसके लिए पुलिस अधिकारियों को आयु और स्वैच्छिक सहमति की पुष्टि करने की प्रक्रिया बताई गईशैक्षणिक प्रमाण-पत्रों के माध्यम से अथवा दस्तावेज़ उपलब्ध न होने की स्थिति में अस्थि-परीक्षण (ऑसिफिकेशन टेस्ट) द्वारा और उसके पश्चात आवश्यक सुरक्षा प्रदान करने के निर्देश दिए गए।

संवैधानिक और विधिक आयाम:

      • अनुच्छेद 21 : जीवन और स्वतंत्रता: यह निर्णय इस तथ्य को रेखांकित करता है कि अनुच्छेद 21 वयस्कों को अपने निवास और अंतरंग संबंधों से जुड़े व्यक्तिगत निर्णय लेने की स्वायत्तता प्रदान करता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मौलिक अधिकारों को औपचारिक वैवाहिक स्थिति पर निर्भर नहीं बनाया जा सकता।
      • घरेलू हिंसा कानून की व्याख्या: पीठ ने महिलाओं के संरक्षण हेतु घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम, 2005 का भी संदर्भ दिया, जो विवाह की अनिवार्यता के बिना घरेलू संबंधोंमें रहने वाली महिलाओं को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है। इससे यह संकेत मिलता है कि भारतीय कानून कुछ संदर्भों में गैर-वैवाहिक सहवास को मान्यता देता है।

चिंताएँ:

सामाजिक नैतिकता बनाम विधिक अधिकार:

न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि लिव-इन संबंधों को लेकर समाज में अभी भी कलंक और नैतिक बहस मौजूद है। आलोचकों का तर्क है कि औपचारिक कानूनी मान्यता के बिना ऐसे संबंधों का समर्थन संपत्ति अधिकार, भरण-पोषण, उत्तराधिकार और बच्चों की वैधता से जुड़ी जटिलताएँ उत्पन्न कर सकता है। वहीं समर्थकों का मानना है कि वयस्कों को अपने जीवनसाथी चुनने का अंतर्निहित अधिकार है, जिसमें राज्य या समाज का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

निर्णय का महत्त्व:

      • विधिक स्पष्टता: लिव-इन संबंधों को अवैध न मानते हुए अनुच्छेद 21 के तहत वयस्कों की स्वायत्तता की पुनः पुष्टि।
      • उत्पीड़न से संरक्षण: सामाजिक या पारिवारिक शत्रुता का सामना कर रहे जोड़ों के लिए संवैधानिक अधिकारों के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना।
      • लैंगिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता: विशेष रूप से महिलाओं की सुरक्षा को सुदृढ़ करना, यह स्पष्ट करते हुए कि मौलिक अधिकार वैवाहिक स्थिति से ऊपर हैं।

निष्कर्ष:

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह आदेश संवैधानिक नैतिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सशक्त बनाता है। यह लिव-इन संबंधों को विधिसम्मत मानते हुए ऐसे वयस्क जोड़ों के लिए राज्य संरक्षण का निर्देश देता है, जो धमकियों या उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं। यह निर्णय सामाजिक और पारिवारिक दबाव के विरुद्ध व्यक्तिगत स्वायत्तता की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को रेखांकित करता है।