संदर्भ:
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025) मामले में पटना उच्च न्यायालय के उस आदेश को निरस्त कर दिया, जिसमें आरोपी की सहमति के बिना नार्को टेस्ट कराने की अनुमति दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से दोहराया कि ज़बरन नार्को एनालिसिस संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। यह निर्णय सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) में स्थापित संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप है।
नार्को टेस्ट के बारे में:
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- नार्को टेस्ट में व्यक्ति को कुछ नशीली औषधियाँ, जैसे सोडियम पेंटोथल (एक बार्बिट्यूरेट), दी जाती हैं, जिनका उद्देश्य उसकी मानसिक सजगता और झिझक को कम करना होता है, ताकि उससे जानकारी प्राप्त की जा सके।
- व्यावहारिक रूप से नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग परीक्षणों के समान ही है, क्योंकि इन सभी विधियों का लक्ष्य व्यक्ति के सचेत मानसिक नियंत्रण को कमजोर करके उसकी अवचेतन जानकारी तक पहुँच बनाना होता है।
- यद्यपि इस प्रक्रिया को शारीरिक रूप से अहिंसक माना जाता है, फिर भी यह व्यक्ति की मानसिक स्वायत्तता और निजी विचारों में गंभीर हस्तक्षेप करती है, जिससे महत्वपूर्ण संवैधानिक, कानूनी और नैतिक प्रश्न उत्पन्न होते हैं।
- नार्को टेस्ट में व्यक्ति को कुछ नशीली औषधियाँ, जैसे सोडियम पेंटोथल (एक बार्बिट्यूरेट), दी जाती हैं, जिनका उद्देश्य उसकी मानसिक सजगता और झिझक को कम करना होता है, ताकि उससे जानकारी प्राप्त की जा सके।
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संबंधित संवैधानिक संरक्षण:
1. आत्म-अभियोग के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 20(3)):
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- यह अधिकार किसी भी आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य या गवाही देने के लिए बाध्य किए जाने से संरक्षण प्रदान करता है।
- ज़बरन कराया गया नार्को टेस्ट इस अधिकार का उल्लंघन करता है, क्योंकि नशीली दवाओं के प्रभाव में दिया गया कथन स्वतंत्र इच्छा (free will) और सचेत निर्णय (conscious choice) का परिणाम नहीं होता।
- बिना स्वतंत्र, स्पष्ट और सूचित सहमति के प्राप्त कोई भी जानकारी आत्म-अभियोग के दायरे में आती है और उसे वैध साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
- यह अधिकार किसी भी आरोपी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध साक्ष्य या गवाही देने के लिए बाध्य किए जाने से संरक्षण प्रदान करता है।
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2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं निजता का अधिकार (अनुच्छेद 21):
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- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शारीरिक स्वायत्तता, मानसिक निजता तथा मानव गरिमा का संरक्षण निहित है।
- ज़बरन नार्को टेस्ट “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया” की ज़रूरत का उल्लंघन करता, क्योंकि यह प्रक्रिया निष्पक्षता, तर्कसंगतता और गैर-मनमानेपन की संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती।
- यह संरक्षण मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (1978) में प्रतिपादित अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तथाकथित “स्वर्ण त्रिकोण” से जुड़ा है, जिसके अनुसार किसी भी विधिक प्रक्रिया का न्यायसंगत और उचित होना अनिवार्य है।
- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शारीरिक स्वायत्तता, मानसिक निजता तथा मानव गरिमा का संरक्षण निहित है।
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नार्को टेस्ट से जुड़े न्यायिक निर्णय:
1. सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010):
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- न्यायालय ने बिना सहमति के नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट को असंवैधानिक घोषित किया। साथ ही कुछ अनिवार्य सुरक्षा शर्तें तय कीं, जैसे:
- सहमति स्वतंत्र, पूरी जानकारी के साथ और न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज होनी चाहिए।
- टेस्ट के दौरान सख्त चिकित्सकीय और कानूनी प्रक्रियाओं का पालन होना चाहिए।
- टेस्ट के परिणाम अकेले साक्ष्य नहीं हो सकते; उन्हें स्वतंत्र प्रमाण से पुष्ट करना आवश्यक है।
- सहमति स्वतंत्र, पूरी जानकारी के साथ और न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज होनी चाहिए।
- न्यायालय ने बिना सहमति के नार्को, पॉलीग्राफ और ब्रेन-मैपिंग टेस्ट को असंवैधानिक घोषित किया। साथ ही कुछ अनिवार्य सुरक्षा शर्तें तय कीं, जैसे:
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2. बाद के न्यायिक पुष्टिकरण:
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- मनोज कुमार सैनी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) और विनोभाई बनाम केरल राज्य (2025) में यह दोहराया गया कि नार्को टेस्ट के नतीजे केवल जांच में सहायता कर सकते हैं, सीधे अपराध सिद्ध नहीं कर सकते।
- मनोज कुमार सैनी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2023) और विनोभाई बनाम केरल राज्य (2025) में यह दोहराया गया कि नार्को टेस्ट के नतीजे केवल जांच में सहायता कर सकते हैं, सीधे अपराध सिद्ध नहीं कर सकते।
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सहमति और नैतिक सिद्धांत:
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- सूचित सहमति: नार्को टेस्ट केवल आरोपी की स्वतंत्र, स्वेच्छिक और पूर्णतः सूचित सहमति के आधार पर ही किया जा सकता है। यह सिद्धांत भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 253 के अंतर्गत बचाव साक्ष्य (defence evidence) के चरण में भी समान रूप से लागू होता है।
- हालाँकि, यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को नार्को टेस्ट कराने की मांग करने का कोई पूर्ण या निहित अधिकार प्राप्त नहीं है, भले ही वह स्वयं आरोपी ही क्यों न हो।
- हालाँकि, यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को नार्को टेस्ट कराने की मांग करने का कोई पूर्ण या निहित अधिकार प्राप्त नहीं है, भले ही वह स्वयं आरोपी ही क्यों न हो।
- नैतिक आधार: न्यायालय ने जर्मनी के महान दार्शनिक इमैनुएल कांत के नैतिक सिद्धांतों का संदर्भ लेते हुए यह माना कि ज़बरन कराया गया ऐसा परीक्षण निम्नलिखित मूल नैतिक और संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करता है:
- मानव गरिमा
- शारीरिक एवं मानसिक अखंडता
- प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत
- मानव गरिमा
- सूचित सहमति: नार्को टेस्ट केवल आरोपी की स्वतंत्र, स्वेच्छिक और पूर्णतः सूचित सहमति के आधार पर ही किया जा सकता है। यह सिद्धांत भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 253 के अंतर्गत बचाव साक्ष्य (defence evidence) के चरण में भी समान रूप से लागू होता है।
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भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पर प्रभाव:
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- अधिकार-आधारित पुलिसिंग को मजबूती: यह सुनिश्चित करता है कि जांच की प्रभावशीलता के नाम पर मौलिक अधिकारों की अनदेखी न हो।
- पीड़ितों और आरोपियों के अधिकारों में संतुलन: न्यायिक निगरानी से प्रभावी जांच के साथ-साथ संवैधानिक संरक्षण भी सुनिश्चित होता है।
- न्यायिक निरंतरता की पुनः पुष्टि: सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य (2010) निर्णय तथा उसके बाद आए न्यायिक फैसलों पर निरंतर भरोसा आपराधिक न्याय प्रणाली में कानूनी स्थिरता, स्पष्टता तथा नागरिक स्वतंत्रताओं की प्रभावी रक्षा सुनिश्चित करता है।
- अधिकार-आधारित पुलिसिंग को मजबूती: यह सुनिश्चित करता है कि जांच की प्रभावशीलता के नाम पर मौलिक अधिकारों की अनदेखी न हो।
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निष्कर्ष:
अमलेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2025) में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि आपराधिक जांच की प्रत्येक प्रक्रिया में संवैधानिक नैतिकता सर्वोपरि होनी चाहिए। न्यायालय ने यह रेखांकित किया कि ज़बरदस्ती या दबाव पर आधारित जांच तकनीकों के समक्ष व्यक्ति की स्वायत्तता, गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी जानी अनिवार्य है। यह निर्णय भारत की अधिकार-आधारित आपराधिक न्याय प्रणाली को और अधिक मजबूत करता है।

