संदर्भ:
हाल ही में आईआईटी-गांधीनगर के शोधकर्ताओं द्वारा भारत में आकस्मिक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) की बढ़ती घटनाएँ, उनके क्षेत्रों और इससे निपटने के लिए क्या रणनीतियाँ अपनानी चाहिए, विषय पर अध्ययन किया। यह अध्ययन 13 जुलाई 2025 को नेचर हैज़र्ड्स नामक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
आईआईटी-गांधीनगर अध्ययन की मुख्य बातें:
· आकस्मिक बाढ़ की घटनाएँ मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्र, पश्चिमी तट और मध्य भारत में दर्ज की गई हैं।
· कुल घटनाओं में से केवल 25% फ्लैश फ्लड सीधे अत्यधिक वर्षा के कारण होती हैं।
· बारिश से पहले की मिट्टी की स्थिति, विशेषकर जब मिट्टी पहले से ही संतृप्त (गीली) होती है, फ्लैश फ्लड के जोखिम को काफी बढ़ा देती है।
· केवल 23% मामलों में बारिश के छह घंटे के भीतर ही फ्लैश फ्लड आती है; अधिकांश घटनाएँ कई दिनों तक चलने वाली तेज़ या मध्यम वर्षा के बाद होती हैं।
· क्षेत्र विशेष की भौगोलिक संरचना और जल उपघाटियों की प्रवाह प्रतिक्रिया क्षमता (जिसे "फ्लैशिनेस" कहा जाता है) भी आकस्मिक बाढ़ की संभावना को प्रभावित करती है।
फ्लैश फ्लड क्या होती है?
फ्लैश फ्लड यानी आकस्मिक बाढ़ बहुत तेज़ और अचानक आने वाली बाढ़ होती है, जो आमतौर पर भारी बारिश के छह घंटे के भीतर आती है। ये बाढ़ भारत में अब सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाली जलवायु आपदाओं में शामिल हो गई हैं।
हर साल इनसे 5,000 से अधिक लोगों की मौत होती है और जीवन, ढाँचागत सुविधाओं तथा पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान होता है।
जलवायु परिवर्तन की भूमिका:
इस अध्ययन में ग्लोबल वार्मिंग और बाढ़ के बढ़ते जोखिम के बीच मजबूत संबंध पर प्रकाश डाला गया है:
- हर 1°C तापमान वृद्धि के साथ वातावरण में 7% अधिक नमी रुकती है, जिससे बारिश ज़्यादा तीव्र होती है।
- 1981 से 2020 के बीच:
- प्री-मानसून (मानसून पूर्व) की अत्यधिक बारिश की घटनाएँ दोगुनी हो गईं।
- मानसून काल की तीव्र घटनाएँ 56% बढ़ीं।
- मानसून के बाद की बारिश 40% और सर्दियों की बारिश 12.5% बढ़ी।
- 75% से अधिक फ्लैश फ्लड की घटनाएँ जून से सितंबर के मानसून सीज़न में हुईं।
- 1995 के बाद ब्रह्मपुत्र, गंगा और कृष्णा नदी घाटियों में इन घटनाओं में सबसे अधिक वृद्धि देखी गई।
फ्लैश फ्लड से निपटने के लिए सुझाव:
शोधकर्ताओं ने इस बढ़ते खतरे से बचाव के लिए विशेष रणनीतियाँ सुझाई हैं:
- सिर्फ बारिश की मात्रा पर नहीं, बल्कि इलाके की ऊँचाई-निचाई, मिट्टी की नमी और बारिश के पैटर्न पर आधारित इलाका-विशेष पूर्व चेतावनी प्रणाली बनाई जाए।
- अद्यतन हाइड्रोलॉजिकल डेटा और जलवायु मॉडल की मदद से नए संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान की जाए।
- मौसम-प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचा (जैसे सड़कें, पुल, तटबंध आदि) उन क्षेत्रों में बनाया जाए जहाँ जोखिम अधिक है।
- नदियों के किनारे और बाढ़ संभावित क्षेत्रों में भूमि उपयोग और निर्माण पर सख्त नियंत्रण लगाया जाए।
- स्थानीय समुदायों की भागीदारी बढ़ाई जाए, लोगों को बाढ़ के खतरे के बारे में जागरूक करना, आपदा से निपटने का प्रशिक्षण देना और तत्काल प्रतिक्रिया तंत्र विकसित करना ज़रूरी है।
निष्कर्ष:
आकस्मिक बाढ़ हमें यह साफ संकेत देती हैं कि भारत जलवायु संकट की चपेट में है। जैसे-जैसे यह संकट गहराता जा रहा है, वैसे-वैसे वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नीतियाँ बनाना, स्थानीय स्तर पर खतरे का मूल्यांकन करना और मज़बूत बुनियादी ढाँचा तैयार करना बेहद ज़रूरी हो गया है। इनसे प्रभावी रूप से निपटने के लिए हमें सरकार, वैज्ञानिक समुदाय, आम नागरिक और सभी क्षेत्रों के सहयोग की ज़रूरत है।