संदर्भ:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज को एक “अंतर-सांस्कृतिक सामाजिक बुराई” बताते हुए कहा है कि यह लंबे समय से कानूनी रूप से प्रतिबंधित होने के बावजूद आज भी विभिन्न धर्मों और सामाजिक वर्गों में व्यापक रूप से प्रचलित है। यह हालिया निर्णय न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. के. सिंह की पीठ द्वारा दिया गया, जो दहेज के कारण एक 20 वर्षीय महिला की मृत्यु से संबंधित था। न्यायालय ने इस फैसले में दहेज प्रथा से जुड़े गहरे सामाजिक, नैतिक और संवैधानिक प्रभावों को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है।
ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि:
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- दहेज की उत्पत्ति जाति-आधारित सामाजिक संरचना, पारिवारिक संबंधों और उच्चतर सामाजिक वर्ग में विवाह (अनुलोम विवाह) की परंपरा से जुड़ी रही है, जहाँ बेटियों का विवाह समान या उच्च सामाजिक स्तर वाले परिवारों में करना पारिवारिक प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने या उसे बढ़ाने का एक माध्यम माना जाता था।
- समय के साथ यह प्रथा एक सामाजिक रूप से स्वीकृत मानक के रूप में स्थापित हो गई, जिसे धार्मिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था ने निरंतर सुदृढ़ किया।
- दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के बावजूद, दहेज आज भी “उपहार” या “सामाजिक अपेक्षाओं” के आवरण में लिया–दिया जाता है और अनेक मामलों में इसे विवाह संबंधी वार्ताओं में सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रतिस्पर्धा का प्रतीक बना दिया गया है।
- दहेज की उत्पत्ति जाति-आधारित सामाजिक संरचना, पारिवारिक संबंधों और उच्चतर सामाजिक वर्ग में विवाह (अनुलोम विवाह) की परंपरा से जुड़ी रही है, जहाँ बेटियों का विवाह समान या उच्च सामाजिक स्तर वाले परिवारों में करना पारिवारिक प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने या उसे बढ़ाने का एक माध्यम माना जाता था।
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न्यायालय का अवलोकन:
न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की कि कुछ शहरी मुस्लिम परिवारों में दहेज की प्रथा ने समय के साथ मेहर की अवधारणा को कमजोर किया है या उसके महत्व को पीछे छोड़ दिया है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की सौदेबाजी की शक्ति और आर्थिक स्वतंत्रता कमजोर होती जा रही है।
संवैधानिक और कानूनी दृष्टिकोण:
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- सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज प्रथा में अंतर्निहित संवैधानिक विरोधाभासों पर प्रकाश डाला:
- जब महिलाओं को आर्थिक लाभ प्राप्त करने का साधन मात्र माना जाता है, तब संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
- दहेज प्रथा विवाह संस्था के भीतर आर्थिक अधीनता को संस्थागत रूप प्रदान करती है, जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा तथा भाईचारे के मौलिक अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि दहेज चाहे किसी भी धर्म, समुदाय या सामाजिक पृष्ठभूमि में प्रचलित हो, वह संविधान की मूल भावना और संवैधानिक नैतिकता के पूर्णतः विरुद्ध है।
- जब महिलाओं को आर्थिक लाभ प्राप्त करने का साधन मात्र माना जाता है, तब संविधान के अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज प्रथा में अंतर्निहित संवैधानिक विरोधाभासों पर प्रकाश डाला:
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सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी प्रमुख निर्देश:
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- शैक्षिक सुधार:
- केंद्र और राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रमों में लैंगिक समानता तथा दहेज-विरोधी मूल्यों को व्यवस्थित रूप से सम्मिलित किया जाए।
- इस बात पर विशेष बल दिया गया कि विवाह को समानता और साझेदारी पर आधारित संबंध के रूप में स्थापित किया जाए, न कि धन या भौतिक वस्तुओं के लेन-देन के रूप में।
- केंद्र और राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि शिक्षा के सभी स्तरों पर पाठ्यक्रमों में लैंगिक समानता तथा दहेज-विरोधी मूल्यों को व्यवस्थित रूप से सम्मिलित किया जाए।
- प्रवर्तन व्यवस्था को सुदृढ़ करना
- सभी राज्यों में दहेज निषेध अधिकारियों की अनिवार्य नियुक्ति सुनिश्चित करने तथा उनके नाम, पद और संपर्क विवरण को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए।
- दहेज से संबंधित मामलों का निपटारा करने वाले पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के लिए नियमित प्रशिक्षण और संवेदनशीलता कार्यक्रम आयोजित करने पर बल दिया गया।
- सभी राज्यों में दहेज निषेध अधिकारियों की अनिवार्य नियुक्ति सुनिश्चित करने तथा उनके नाम, पद और संपर्क विवरण को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराने के निर्देश दिए गए।
- न्यायिक निगरानी
- उच्च न्यायालयों को दहेज से जुड़े लंबित मामलों की समीक्षा कर उनके शीघ्र और प्रभावी निपटारे को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया।
- समान और एकरूप क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से इस निर्णय को सभी उच्च न्यायालयों में प्रसारित करने के आदेश जारी किए गए।
- उच्च न्यायालयों को दहेज से जुड़े लंबित मामलों की समीक्षा कर उनके शीघ्र और प्रभावी निपटारे को सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया।
- शैक्षिक सुधार:
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निर्णय का महत्व:
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- सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज को किसी एक समुदाय या वर्ग तक सीमित समस्या मानने के बजाय, सभी धर्मों और समाजों में व्याप्त एक व्यापक सामाजिक बुराई के रूप में स्वीकार किया है।
- वैवाहिक संबंधों के संदर्भ में लैंगिक समानता और गरिमा के संवैधानिक सिद्धांतों को पुनः सुदृढ़ करता है।
- शिक्षा, प्रशासनिक सुधार तथा न्यायिक निगरानी के माध्यम से विधिक प्रावधानों और वास्तविक सामाजिक व्यवहार के बीच मौजूद अंतर को कम करने का प्रयास करता है।
- लिंग, संस्कृति और कानून के अंतर्संबंधों को उजागर करते हुए यह स्पष्ट करता है कि दहेज जैसी कुप्रथा से निपटने के लिए केवल दंडात्मक उपाय पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि संरचनात्मक सुधार और सामाजिक मानसिकता में परिवर्तन अनिवार्य है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने दहेज को किसी एक समुदाय या वर्ग तक सीमित समस्या मानने के बजाय, सभी धर्मों और समाजों में व्याप्त एक व्यापक सामाजिक बुराई के रूप में स्वीकार किया है।
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निष्कर्ष:
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय दहेज को केवल एक कानूनी अपराध के रूप में ही नहीं, बल्कि एक गहराई से जमी सामाजिक विकृति के रूप में भी चिन्हित करता है। कानूनी प्रवर्तन के साथ शिक्षा और सामाजिक जागरूकता को जोड़ते हुए यह फैसला समाज में व्याप्त रूढ़ मानसिकताओं को बदलने, महिलाओं को सशक्त करने तथा संवैधानिक मूल्यों की प्रभावी रक्षा करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। यह निर्णय स्पष्ट रूप से स्थापित करता है कि विवाह समानता, गरिमा और पारस्परिक सम्मान पर आधारित संबंध होना चाहिए, न कि आर्थिक लेन–देन की व्यवस्था, और दहेज विरोधी उपायों को एक न्यायपूर्ण, गरिमामय और समतामूलक समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य मानता है।
