संदर्भ:
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसने संविधान के अनुच्छेद 233 के तहत ज़िला न्यायाधीश और अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीश की सीधी भर्ती के पात्र उम्मीदवारों की परिभाषा में बदलाव किया है।
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
1. सेवा में कार्यरत अधिकारियों के लिए पात्रता का विस्तार: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि कोई न्यायिक अधिकारी, न्यायिक सेवा में शामिल होने से पहले कुछ वर्षों तक अधिवक्ता के रूप में प्रैक्टिस कर चुका है, तो वह भी सीधी भर्ती क्वोटा के अंतर्गत आवेदन कर सकता है, बशर्ते कुल अवधि (अधिवक्ता के रूप में अनुभव + न्यायिक सेवा का अनुभव) मिलाकर कम से कम 7 वर्ष हो।
2. पात्रता की गणना आवेदन की तारीख से: न्यायालय ने कहा कि पात्रता का निर्धारण किसी पूर्व निर्धारित तिथि से नहीं, बल्कि आवेदन प्रस्तुत करने की तिथि के आधार पर किया जाएगा।
3. न्यूनतम आयु सीमा निर्धारित: समान अवसर और परिपक्व दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिए यह तय किया गया कि बार से हों या सेवा से, सभी उम्मीदवारों की न्यूनतम आयु 35 वर्ष होना अनिवार्य होगी।
4. पुराने न्यायिक निर्णयों को अप्रभावी घोषित किया: सत्या नारायण सिंह और धीरज मोर मामलों में दी गई व्याख्याओं को सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक भावनाओं के विपरीत मानते हुए भविष्य के लिए निरस्त कर दिया।
5. फैसला केवल भविष्य की भर्तियों पर लागू होगा: यह नियम केवल आने वाली भर्ती प्रक्रियाओं पर लागू होगा। पूर्व में की गई नियुक्तियों या वर्तमान में चल रही चयन प्रक्रियाओं में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।
6. राज्यों को नियम संशोधन का निर्देश: सभी राज्य सरकारों को अपने-अपने हाई कोर्ट के साथ विचार-विमर्श करके, न्यायिक सेवा नियमावली को अधिकतम तीन माह के भीतर संशोधित करने का आदेश दिया गया है, ताकि नियम नए निर्देशों के अनुरूप हो सकें।
7. "कैच देम यंग" सिद्धांत को प्राथमिकता: न्यायालय ने कहा कि यदि योग्य और प्रतिभाशाली अधिकारियों को करियर के शुरुआती चरण में आगे बढ़ने का अवसर नहीं दिया जाएगा, तो व्यवस्था में औसतपन (Mediocrity) हावी हो जाएगा। इसलिए प्रतिभा को समय रहते पहचानकर उसे ऊंचे पदों तक पहुंचाना न्यायपालिका की गुणवत्ता के लिए आवश्यक है।
निर्णय के प्रभाव:
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- स्थिरता की स्थिति बदलेगी: लंबे समय से कई न्यायिक अधिकारियों को लगता था कि उनके करियर की प्रगति सीमित हो गई है। इस निर्णय से उनमें नई प्रेरणा, प्रतियोगी भावना और उन्नति की उम्मीद बढ़ेगी।
- योग्यता आधारित चयन को बढ़ावा: सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि चयन का आधार बार (Bar या Service) नहीं, बल्कि प्रतिभा और क्षमता होनी चाहिए। इससे मेधावी व्यवस्था को बल मिलेगा।
- कुशल उम्मीदवारों का व्यापक समूह तैयार होगा: पात्रता के रास्तों को एकरूप करने से अधिक संख्या में सक्षम और प्रशिक्षित उम्मीदवार सामने आएंगे, जिससे जिला न्यायपालिका की कार्यक्षमता और गुणवत्ता में सुधार होगा।
- संवैधानिक व्याख्या में संतुलन और सामंजस्य: न्यायालय ने अनुच्छेद 233 की लचीली, उद्देश्यपूर्ण और व्यवहारिक व्याख्या अपनाई, ताकि संविधान के किसी भी प्रावधान का महत्व कम या निष्प्रभावी न हो।
- स्थिरता की स्थिति बदलेगी: लंबे समय से कई न्यायिक अधिकारियों को लगता था कि उनके करियर की प्रगति सीमित हो गई है। इस निर्णय से उनमें नई प्रेरणा, प्रतियोगी भावना और उन्नति की उम्मीद बढ़ेगी।
जिला न्यायाधीश की नियुक्ति के बारे में:
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 233 राज्यों में जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदस्थापन और पदोन्नति से संबंधित है। राज्यपाल इन नियुक्तियों को संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय की सलाह से करते हैं।
मुख्य संवैधानिक प्रावधान:
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- अनुच्छेद 233(1): राज्यपाल को जिला न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार देता है।
- अनुच्छेद 233(2): सीधी भर्ती के लिए पात्रता तय करता है:
- कम से कम 7 वर्ष की अधिवक्ता या प्लीडर के रूप में प्रैक्टिस
- सरकारी सेवा में न हो (पहले की व्याख्या के अनुसार)
- उच्च न्यायालय की अनुशंसा आवश्यक
- कम से कम 7 वर्ष की अधिवक्ता या प्लीडर के रूप में प्रैक्टिस
- अनुच्छेद 233(1): राज्यपाल को जिला न्यायाधीश नियुक्त करने का अधिकार देता है।
सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने अनुच्छेद 233(2) की व्याख्या को विस्तारित करते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि कोई व्यक्ति वर्तमान में न्यायिक सेवा (Judicial Service) में कार्यरत है, लेकिन उससे पहले उसने कम से कम 7 वर्ष तक वकालत की है, तो उसे भी सीधी भर्ती के लिए पात्र माना जाएगा।
निष्कर्ष:
"कैच देम यंग" के सिद्धांत को अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक करियर की दिशा को नया मॉडेल दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि प्रतिभा और योग्यता को केवल तकनीकी वर्गीकरणों के कारण रोका नहीं जाना चाहिए। यह फैसला न केवल सेवारत न्यायिक अधिकारियों को सशक्त करता है, बल्कि यह भी संदेश देता है कि संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या समय के अनुसार बदलती जरूरतों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, ताकि न्याय और सुशासन की मूल भावना बनी रहे।
