सन्दर्भ:
हाल ही में 23 जून 2025 को कर्नाटक राज्य मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह सभी देवदासी महिलाओं का एक नया और समावेशी सर्वेक्षण कर उसकी रिपोर्ट 24 अक्टूबर 2025 तक प्रस्तुत करे। यह निर्णय राज्य के 15 जिलों में फैले देवदासी समुदाय की महिलाओं और बच्चों की लगातार उठती मांगों के बाद लिया गया है।
पुनः सर्वेक्षण की आवश्यकता क्यों?
कर्नाटक में देवदासी समुदाय पर पिछली प्रमुख जनगणनाएँ 1982 और 1993–94 में की गई थीं। इनमें कई खामियों के कारण बड़ी संख्या में देवदासी समुदाय की महिलाएं छूट गई थीं:
· सामाजिक कलंक और डर: भेदभाव या दंड के डर से कई महिलाओं ने अपनी पहचान छुपा ली थी।
· उम्र की सीमा: केवल विशेष आयु वर्ग की महिलाओं को गिना गया, जिससे छोटी और बड़ी उम्र की महिलाएं छूट गईं।
· अपूर्ण तरीके: घर-घर जाकर सर्वेक्षण नहीं किया गया, जिससे सटीक जानकारी नहीं मिल सकी।
· बच्चों की अनदेखी: देवदासी महिलाओं के बच्चों को पहले के सर्वेक्षणों में शामिल ही नहीं किया गया।
देवदासी प्रणाली का ऐतिहासिक विकास:
· प्रारंभिक उत्पत्ति: यह प्रणाली 8वीं शताब्दी से चली आ रही है, जिसमें मंदिरों को ज़मीन, पशु और प्रतीकात्मक वस्तुओं के साथ-साथ युवतियाँ समर्पित की जाती थीं।
· मंदिर सेवा: इन महिलाओं को देवदासी या “नृत्यांगना” कहा जाता था। वे शास्त्रीय नृत्य और संगीत में प्रशिक्षित होती थीं और धार्मिक त्योहारों, अनुष्ठानों में प्रस्तुति देती थीं।
· राजाओं का संरक्षण: मैसूर और तंजावुर जैसे क्षेत्रों में यह प्रणाली राजाश्रय में फली-फूली। देवदासियों को ज़मीन, वेतन और सामाजिक सम्मान मिलता था।
· संगठित भूमिकाएं: उनका कार्य दीप प्रज्वलन, नृत्य-गान और धार्मिक क्रियाएं करना था। उन्हें कुशल गुरुओं से कठोर प्रशिक्षण दिया जाता था।
देवदासियों की सामाजिक स्थिति:
· स्वतंत्र सामाजिक पहचान: देवदासियों की अपनी परंपराएं, उत्तराधिकार नियम और समुदायिक पंचायतें होती थीं।
· मातृसत्तात्मक परंपराएं: संपत्ति और सामाजिक भूमिकाएं स्त्री रेखा से आगे बढ़ती थीं।
· सामाजिक मान्यता: विवाह और उत्सवों में उन्हें शुभ माना जाता था।
· आर्थिक सशक्तिकरण: कई देवदासियों के पास ज़मीन होती थी और वे आर्थिक रूप से मजबूत थीं, खासकर 12वीं शताब्दी में।
· सहायता नेटवर्क: उन्हें न केवल राजाओं बल्कि व्यापारियों, मंदिरों और कला संरक्षकों से भी समर्थन मिलता था।
यह प्रणाली क्यों समाप्त हुई?
· शोषण और दुर्व्यवहार: समय के साथ यह धार्मिक सेवा से हटकर शोषण में बदल गई, और कई महिलाएं जबरन इसमें शामिल की गईं।
· नैतिक मूल्यों में बदलाव: पश्चिमी शिक्षा और सुधारवादी विचारों के प्रभाव से इसे अनैतिक माना जाने लगा।
· ‘नाच’ विरोधी आंदोलन: सामाजिक सुधार आंदोलनों ने लड़कियों को मंदिरों में समर्पित करने की परंपरा का विरोध किया और नृत्य को धर्मनिरपेक्ष कला के रूप में पुनर्परिभाषित किया।
· प्रशासनिक सुधार: सरकार ने नई नियुक्तियों पर रोक लगाई और देवदासी पद को मंदिरों से हटा दिया।
· कानूनी उपाय:
o बाल विवाह रोकने के लिए कानून बनाए गए।
o महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को मान्यता मिली।
o कर्नाटक में देवदासी प्रथा को 1909 में ही कानूनी रूप से समाप्त कर दिया गया—जो अन्य राज्यों से बहुत पहले था।
निष्कर्ष:
कर्नाटक में देवदासी समुदाय द्वारा मांगा गया यह पुनः सर्वेक्षण केवल आंकड़ों के लिए नहीं बल्कि गरिमा, पहचान और न्याय की मांग है। समता और सामाजिक न्याय की बुनियाद पर खड़े समाज के लिए यह एक अवसर है कि वह ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित इस समुदाय को मान्यता दे और उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाए।