संदर्भ:
हाल के समय में भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले नए निचले स्तर पर पहुँच गया है, जो बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार की परिस्थितियों के दबाव को प्रतिबिंबित करता है। 23 सितम्बर को रुपया लगभग ₹88.62 प्रति डॉलर तक गिर गया, जो अब तक का सबसे कमजोर स्तर है।
USD/INR विनिमय दर का निर्धारित:
विनिमय दर मुख्यतः विदेशी मुद्रा बाजार में अमेरिकी डॉलर एवं भारतीय रुपये की आपूर्ति तथा मांग से निर्धारित होती है:
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- डॉलर की आपूर्ति (Supply of USD): निर्यात आय, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) एवं पोर्टफोलियो निवेश, प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रेषण (remittances), तथा भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा डॉलर की बिक्री।
- डॉलर की मांग (Demand for USD): आयात भुगतान, विदेशी निवेशकों द्वारा पूंजी की निकासी, ऋण अदायगी, तथा व्यापार अथवा निवेश के लिए डॉलर धारण करना।
- डॉलर की आपूर्ति (Supply of USD): निर्यात आय, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) एवं पोर्टफोलियो निवेश, प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रेषण (remittances), तथा भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा डॉलर की बिक्री।
यदि डॉलर की मांग, आपूर्ति से अधिक हो जाती है, तो रुपया अवमूल्यित (कमज़ोर) होता है। वहीं यदि आपूर्ति अधिक हो, तो रुपया पुनर्मूल्यित (मजबूत) होता है।
रुपये की कमजोरी के प्रमुख कारण:
1. व्यापार असंतुलन एवं चालू खाता घाटा (CAD):
o आयात पर निर्भरता (विशेषतः तेल एवं कच्चा माल): भारत कच्चे तेल का अधिकांश भाग आयात करता है और उर्वरक, इलेक्ट्रॉनिक्स तथा पूंजीगत वस्तुओं के लिए भी बड़े पैमाने पर आयात पर निर्भर है। उच्च आयात बिल विदेशी मुद्रा की मांग को बढ़ाते हैं।
o निर्यात वृद्धि की सुस्ती एवं बाहरी झटके: वैश्विक मांग कमजोर पड़ी है तथा संरक्षणवादी व्यापार नीतियाँ (जैसे अमेरिकी शुल्क) अतिरिक्त बाधाएँ उत्पन्न कर रही हैं। ऐसे परिदृश्य में निर्यात वृद्धि आयात बिलों की गति के अनुरूप नहीं हो पाती।
o चालू खाते पर दबाव: आयात-निर्यात के अंतर के कारण भारत प्रायः चालू खाते के घाटे का सामना करता है। जब CAD बढ़ता है, तो विदेशी मुद्रा की शुद्ध मांग, प्रवाह से अधिक हो जाती है, जिससे रुपये पर अवमूल्यन का दबाव पड़ता है।
2. पूंजी/निवेश प्रवाह की सुस्ती:
o विदेशी पोर्टफोलियो निवेश का बहिर्वाह: 2025 में विदेशी संस्थागत निवेशक (FIIs) भारतीय शेयर एवं बांड बाजारों में शुद्ध विक्रेता रहे, जिससे रुपये का अवमूल्यन हुआ क्योंकि वे रुपये में निवेशित परिसंपत्तियों को डॉलर में परिवर्तित कर निकालते हैं।
o जोखिम से बचाव एवं प्रतिफल अंतर (Yield Differentials): वैश्विक जोखिम प्रवृत्ति जब सुरक्षित परिसंपत्तियों (जैसे अमेरिकी ट्रेज़री बॉन्ड) की ओर झुकती है, तो पूंजी उभरते बाजारों से बाहर चली जाती है। साथ ही, अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की कड़ी मौद्रिक नीति ने डॉलर आधारित परिसंपत्तियों को अधिक आकर्षक बनाया, जिससे पूंजी का पलायन हुआ।
प्रभाव:
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- कमजोर रुपया आयात को अधिक महँगा बना देता है। ऊर्जा एवं कच्चे माल पर अत्यधिक निर्भर अर्थव्यवस्था के लिए यह मुद्रास्फीति को और बढ़ा सकता है।
- रुपये को स्थिर करने अथवा समर्थन देने हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक को भंडार का उपयोग करना पड़ सकता है या विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करना पड़ सकता है, जिसके अपने जोखिम और लागत होते हैं।
- मुद्रा के कमजोर होने से बाहरी ऋण (यदि वह विदेशी मुद्रा में हो) का भुगतान रुपये की शर्तों में अधिक महँगा हो जाता है।
- कमजोर रुपया आयात को अधिक महँगा बना देता है। ऊर्जा एवं कच्चे माल पर अत्यधिक निर्भर अर्थव्यवस्था के लिए यह मुद्रास्फीति को और बढ़ा सकता है।
निष्कर्ष:
रुपये का हालिया अवमूल्यन मात्र अल्पकालिक उतार-चढ़ाव नहीं है, बल्कि यह संरचनात्मक असंतुलनों और बाहरी दबावों का परिणाम है। स्थायी व्यापार घाटा, कमजोर पूंजी प्रवाह, और कठोर वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में प्रमुखता प्राप्त डॉलर—ये सभी रुपये के लिए चुनौतीपूर्ण वातावरण तैयार करते हैं।
मुद्रा को स्थिर रखने के लिए बहुआयामी रणनीति आवश्यक होगी: निर्यात को पुनर्जीवित करना, स्थिर निवेश आकर्षित करना, केंद्रीय बैंक का सावधानीपूर्ण प्रबंधन तथा ऐसे संरचनात्मक सुधार जिनसे संवेदनशील आयात पर निर्भरता कम हो। यदि इन दबावों का समाधान नहीं किया गया, तो रुपया लगातार दबाव में रह सकता है, जिसका असर मुद्रास्फीति, बाहरी स्थिरता और आर्थिक विकास पर पड़ेगा।