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Blog / 14 Nov 2025

क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2026: भारत की जलवायु जोखिम रैंकिंग व विश्लेषण | Dhyeya IAS

सन्दर्भ:

हाल ही में जर्मनवॉच द्वारा COP-30, बेलेम (ब्राज़ील) में जारी जलवायु जोखिम सूचकांक 2026 ने भारत सहित पूरे वैश्विक समुदाय के लिए एक गंभीर चेतावनी प्रस्तुत की है। 1995 से 2024 तक के तीन दशकों के जलवायु आँकड़ों के व्यापक विश्लेषण पर आधारित इस रिपोर्ट में भारत को विश्व के सर्वाधिक जलवायु-प्रभावित देशों में नौवाँ स्थान दिया गया है, जो देश की जलवायु-सुरक्षा स्थिति की गंभीरता को रेखांकित करता है।

जलवायु जोखिम सूचकांक के विषय में:

      • यह एक वार्षिक प्रकाशन है जो 2006 से अत्यधिक मौसमीय घटनाओं के मानव और आर्थिक प्रभावों का आकलन करता है।
      • यह छह संकेतकों के आधार पर देशों का मूल्यांकन करता है: आर्थिक नुकसान, मृत्यु संख्या, और प्रभावित लोगों की संख्या (सकल और सापेक्ष दोनों एवं इसका डेटा EM-DAT, विश्व बैंक और IMF से लिया जाता है।

रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष:

      • सबसे अधिक प्रभावित देश (दीर्घकालिक और 2024): दीर्घकालिक अवधि (1995–2024) में डोमिनिका, म्यांमार और होंडुरास सबसे अधिक प्रभावित देशों में शीर्ष पर रहे, जबकि वर्ष 2024 में सेंट विंसेंट एंड द ग्रेनेडाइंस, ग्रेनेडा और चाड सर्वाधिक प्रभावित देशों के रूप में सामने आए। कम उत्सर्जन करने के बावजूद छोटे द्वीपीय विकासशील देश (SIDS) अत्यधिक जलवायु जोखिमों का सबसे अधिक भार वहन कर रहे हैं।
      • भारत की स्थिति: दीर्घकालिक CRI (1995–2024) में भारत 9वें स्थान पर रहा, जबकि वर्ष 2024 में इसकी रैंक 15 रही। अत्यधिक मौसम से प्रभावित जनसंख्या के संदर्भ में भारत 2024 में वैश्विक स्तर पर तीसरे स्थान पर दर्ज किया गया, जो देश की उच्च जलवायु-संवेदनशीलता को स्पष्ट करता है।
      • भारत में प्रभाव: भारत में 430 से अधिक बाढ़, चक्रवात, लू और सूखे जैसी घटनाओं ने 80,000 से अधिक मौतें, 1.3 अरब लोगों पर प्रभाव और 170 अरब डॉलर से अधिक आर्थिक क्षति उत्पन्न की है। लगभग 5.6 अरब डॉलर के वार्षिक नुकसान के साथनिरंतर जलवायु खतरेसमुदायों को पुनर्स्थापना से पहले ही बार-बार नई आपदाओं के सामने असुरक्षित बना रहे हैं।

उल्लेखनीय घटनाएँ:

      • 2024 की मानसूनी बाढ़ ने गुजरात, महाराष्ट्र और त्रिपुरा में 80 लाख लोगों को विस्थापित किया।
      • दिल्ली, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में 48–50°C तक की लू की घटनाएँ।
      • प्रमुख चक्रवात: अम्फान (2020), फानी (2019), यास (2021)

अत्यधिक मौसम के पीछे का वैज्ञानिक आधार:

      • मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण 74% अत्यधिक मौसम घटनाएँ अब पहले से अधिक बार और अधिक तीव्र रूप में घटित हो रही हैं। बाढ़ और तूफानों ने 58% आर्थिक नुकसान पहुँचाया, जबकि लू और तूफानों से कुल मृत्यु का दो-तिहाई हिस्सा हुआ।
      • बाढ़ अकेले सभी प्रभावित लोगों में से लगभग आधे को प्रभावित करती है। ऐसी आपदाएँ भारत में गरीबी, आजीविका संकट और विस्थापन को और बढ़ा रही हैं।

अनुकूलन और न्यूनीकरण की चुनौतियाँ:

      • 62 देशों ने राष्ट्रीय अनुकूलन योजनाएँ (NAPs) तो बना ली हैं, लेकिन उनका कार्यान्वयन बहुत कमजोर है। विकासशील देशों को 2030 तक जलवायु अनुकूलन के लिए हर वर्ष 130–415 अरब डॉलर की आवश्यकता है, जबकि 2024 में अनुकूलन कोष को केवल 130 मिलियन डॉलर ही मिले, जो आवश्यकता से  कम है।
      • इसी कारण पुनर्वास और राहत पर होने वाला भारी खर्च देशों के बजट पर दबाव डालता है और दीर्घकालीन जलवायु योजना प्रभावित हो जाती है।

हानि और क्षति:

      • 4.5 ट्रिलियन डॉलर की व्यापक क्षति यह स्पष्ट करती है कि हानि और क्षति तंत्र को तत्काल और प्रभावी रूप से लागू करना अनिवार्य हो गया है।
      • अनुमान दर्शाते हैं कि वर्ष 2050 तक प्रतिवर्ष 1,132–1,741 अरब डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी, जिससे जलवायु-प्रभावित देशों को पुनर्स्थापन और पुनर्निर्माण के लिए भारी वित्तीय सहायता चाहिए होगी।
      • इसी संदर्भ में COP30 में हानि और क्षति प्रतिक्रिया कोष (FRLD) की स्थापना की गई, किन्तु इसमें मात्र 250 मिलियन डॉलर ही उपलब्ध हैं। विकसित देशों द्वारा 788 मिलियन डॉलर की प्रतिबद्धता के बावजूद 400 मिलियन डॉलर से कम राशि का ही वास्तविक हस्तांतरण होना इस बात को रेखांकित करता है कि वैश्विक जलवायु वित्त में गंभीर अंतराल बना हुआ है।

नीतिगत अपेक्षाएँ:

      • न्यूनीकरण: वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5°C के नीचे रखने हेतु उत्सर्जन में कमी।
      • अनुकूलन वित्त: हानि और क्षति को शामिल करते हुए 300 अरब डॉलर के NCQG का पुनर्गठन।
      • NAP कार्यान्वयन: उच्च जोखिम वाले देशों में अनुकूलन योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन पर ध्यान।
      • निजी क्षेत्र की भागीदारी: नीतियों और मिश्रित वित्त के माध्यम से प्रतिवर्ष 50 अरब डॉलर जुटाना।

निष्कर्ष:

CRI 2026 स्पष्ट करता है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए अब छोटे या धीरे-धीरे किए गए प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। भारत को तुरंत कदम उठाते हुए जलवायु वित्त बढ़ाना, अनुकूलन उपाय प्रभावी रूप से लागू करना और वैश्विक स्तर पर जलवायु न्याय को मजबूती से आगे बढ़ाना आवश्यक है, ताकि बढ़ते जोखिमों से लोगों और अर्थव्यवस्था की सुरक्षा हो सके।