संदर्भ:
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 224A के अंतर्गत उच्च न्यायालयों में नियुक्त तदर्थ न्यायाधीश, एकल-न्यायाधीश पीठ के रूप में भी कार्य कर सकते हैं तथा कार्यरत न्यायाधीशों के साथ मिलकर खंडपीठ (डिवीजन बेंच) का भी हिस्सा बन सकते हैं।
तदर्थ न्यायाधीशों के बारे में:
संविधान का अनुच्छेद 224A, उच्च न्यायालयों में मामलों की बढ़ती लंबित संख्या (पेंडेंसी) को कम करने के उद्देश्य से सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय न्यायाधीशों को तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने का प्रावधान करता है। इसके प्रमुख बिंदु निम्नलिखित हैं:
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- नियुक्ति की शर्तें: सामान्य परिस्थितियों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति तब की जाती है जब उच्च न्यायालय में स्वीकृत न्यायाधीशों की कुल संख्या के अनुपात में रिक्तियाँ 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती हैं। हालांकि, जनवरी 2025 में इस शर्त को आंशिक रूप से लचीला किया गया था।
- अप्रैल 2021 का निर्णय: पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्देश दिया था कि तदर्थ न्यायाधीश केवल ऐसी खंडपीठों में ही कार्य करेंगे जिनमें सभी न्यायाधीश तदर्थ हों। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश किसी कार्यरत न्यायाधीश के अधीन (जूनियर) के रूप में कार्य न करे और न्यायिक पदानुक्रम से संबंधित जटिलताएँ उत्पन्न न हों।
- अस्थायी व्यवस्था: तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति को एक अस्थायी और पूरक उपाय के रूप में देखा जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य उच्च न्यायालयों में वर्षों से लंबित अपीलों और मामलों के बढ़ते बोझ को कम करना है।
- नियुक्ति की शर्तें: सामान्य परिस्थितियों में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति तब की जाती है जब उच्च न्यायालय में स्वीकृत न्यायाधीशों की कुल संख्या के अनुपात में रिक्तियाँ 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती हैं। हालांकि, जनवरी 2025 में इस शर्त को आंशिक रूप से लचीला किया गया था।
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सर्वोच्च न्यायालय की हालिया स्पष्टता के प्रमुख बिंदु:
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची और न्यायमूर्ति विपुल पंचोली की पीठ ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए:
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- पीठ गठन में लचीलापन: अब तदर्थ न्यायाधीश एकल-न्यायाधीश पीठ के रूप में भी कार्य कर सकते हैं तथा कार्यरत न्यायाधीशों के साथ मिलकर खंडपीठ का भी हिस्सा बन सकते हैं। यह व्यवस्था संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विवेकाधिकार पर निर्भर करेगी।
- पीठ की अध्यक्षता पर विवेकाधिकार: यदि किसी खंडपीठ में एक तदर्थ न्यायाधीश और एक कार्यरत न्यायाधीश सम्मिलित हों, तो उस पीठ की अध्यक्षता कौन करेगा, इसका अंतिम निर्णय उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा।
- एकल पीठ का अधिकार क्षेत्र: संविधान अथवा किसी विधि में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो तदर्थ न्यायाधीशों को एकल-न्यायाधीश पीठ के रूप में कार्य करने से प्रतिबंधित करता हो।
- अप्रैल 2021 के निर्णय में संशोधन: वर्तमान स्पष्टीकरण के आलोक में अप्रैल 2021 के पूर्व निर्णय को उपयुक्त रूप से संशोधित माना जाएगा।
- पीठ गठन में लचीलापन: अब तदर्थ न्यायाधीश एकल-न्यायाधीश पीठ के रूप में भी कार्य कर सकते हैं तथा कार्यरत न्यायाधीशों के साथ मिलकर खंडपीठ का भी हिस्सा बन सकते हैं। यह व्यवस्था संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विवेकाधिकार पर निर्भर करेगी।
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तर्क (Rationale):
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- पूर्व में लगाए गए प्रतिबंध का उद्देश्य न्यायालयों के भीतर पदानुक्रम तथा औपचारिक प्रोटोकॉल से जुड़े संभावित टकरावों को रोकना था।
- संशोधित दृष्टिकोण अधिक कार्यात्मक और प्रशासनिक लचीलापन प्रदान करता है, जिससे उच्च न्यायालय लंबित मामलों की संख्या को अधिक प्रभावी ढंग से कम कर सकते हैं, साथ ही न्यायिक मर्यादा भी सुरक्षित रहती है।
- पूर्व में लगाए गए प्रतिबंध का उद्देश्य न्यायालयों के भीतर पदानुक्रम तथा औपचारिक प्रोटोकॉल से जुड़े संभावित टकरावों को रोकना था।
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निर्णय का महत्व:
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- लंबित मामलों में कमी: देशभर में चार करोड़ से अधिक मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। तदर्थ न्यायाधीशों को एकल पीठ या मिश्रित खंडपीठ में कार्य करने की अनुमति मिलने से मामलों के निपटारे की प्रक्रिया में उल्लेखनीय तेजी आ सकती है।
- पीठों का लचीला गठन: उच्च न्यायालय साधारण एवं नियमित मामलों के लिए एकल-न्यायाधीश पीठ तथा अपील या जटिल मामलों के लिए खंडपीठों का गठन कर सकते हैं, जिससे कार्यरत और तदर्थ, दोनों प्रकार के न्यायाधीशों के अनुभव का प्रभावी उपयोग संभव होगा।
- मुख्य न्यायाधीश की स्वायत्तता: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अधिक विवेकाधिकार मिलने से संस्थागत लचीलापन सुदृढ़ होगा और न्यायालयों की प्रशासनिक दक्षता में सुधार आएगा।
- पदानुक्रम संबंधी चिंताओं का व्यावहारिक समाधान: यह स्पष्टता तदर्थ तथा कार्यरत, दोनों प्रकार के न्यायाधीशों की आशंकाओं को दूर करती है और न्यायिक प्रोटोकॉल से जुड़े मुद्दों का संतुलित व व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करती है।
- लंबित मामलों में कमी: देशभर में चार करोड़ से अधिक मामले विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं। तदर्थ न्यायाधीशों को एकल पीठ या मिश्रित खंडपीठ में कार्य करने की अनुमति मिलने से मामलों के निपटारे की प्रक्रिया में उल्लेखनीय तेजी आ सकती है।
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निष्कर्ष:
दिसंबर 2025 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई यह स्पष्टता, संविधान के अनुच्छेद 224A के अंतर्गत तदर्थ न्यायाधीशों की भूमिका और कार्यप्रणाली के लिए एक व्यावहारिक, संतुलित एवं लचीला ढांचा प्रस्तुत करती है। न्यायिक प्रोटोकॉल और लंबित मामलों को कम करने की तत्काल आवश्यकता के बीच संतुलन बनाते हुए यह निर्णय न्यायिक संसाधनों के बेहतर उपयोग को सुनिश्चित करता है तथा उच्च न्यायपालिका की गरिमा, पदानुक्रम और कार्यक्षमता को बनाए रखता है।
