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Blog / 23 Aug 2025

निजी विश्वविद्यालयों में सामाजिक प्रतिनिधित्व की विषमता

संदर्भ:

हाल ही में शिक्षा संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसमें देश के निजी उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के चिंताजनक रूप से कम प्रतिनिधित्व पर चिंता जताई गई है।

·        समिति ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15(5) के अनुरूप अनिवार्य आरक्षण की सिफ़ारिश की है, जो राज्य को शिक्षा में इन समुदायों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान करने की अनुमति देता है।

रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष:

निजी उच्च शिक्षा संस्थानों में OBC प्रतिनिधित्व: कुल मिलाकर लगभग 40%, लेकिन संस्थानों में व्यापक रूप से भिन्न है।

• SC प्रतिनिधित्व: कुल मिलाकर 14.9%, BITS पिलानी जैसे प्रमुख संस्थानों में 0.5%।

• ST प्रतिनिधित्व: कुल मिलाकर केवल 5%, कुछ शीर्ष संस्थानों में यह 0.08% से भी कम है।

उदाहरण :

·        उदाहरणस्वरूप, BITS पिलानी (2024–25) में कुल 5,137 छात्रों में से केवल 514 (~10%) छात्र ओबीसी वर्ग से, 29 छात्र (0.5%) एससी वर्ग से, और मात्र 4 छात्र (0.08%) एसटी वर्ग से हैं। यह दर्शाता है कि एक प्रतिष्ठित निजी संस्थान में वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व अत्यंत सीमित है।

·        ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में कुल 3,181 छात्रों में से केवल 28 (~0.9%) छात्र एससी वर्ग और 29 (~0.9%) छात्र एसटी वर्ग से हैं। यह प्रवृत्ति निजी संस्थानों में समावेशिता की कमी और सामाजिक विविधता के अभाव को उजागर करती है।

सीमांत वर्ग की उन्नति के लिए संवैधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 15(5) (93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 के माध्यम से सम्मिलित): अनुच्छेद 15(5) राज्य को यह अधिकार देता है कि वह शैक्षणिक संस्थानों (अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर), चाहे वे सहायता प्राप्त हों या नहीं, में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) के लिए विशेष प्रावधान (जैसे आरक्षण) कर सके।
  • हालांकि, अब तक ऐसा कोई बाध्यकारी केंद्रीय कानून या प्रवर्तन तंत्र नहीं है जिससे निजी उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके।

सामाजिक न्याय और समता का दृष्टिकोण:

·        निजी उच्च शिक्षा संस्थानों में वंचित वर्गों का कम प्रतिनिधित्व इस बात को दर्शाता है कि उच्च शिक्षा, बेहतर रोज़गार और नेतृत्व के अवसरों तक उनकी पहुँच सीमित बनी हुई है।

·         उच्च शुल्क, शहरी केंद्रों पर संस्थानों की स्थिति, अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा और संस्थागत सहायता की कमी ये सभी कारक हाशिए पर मौजूद समुदायों के लिए संरचनात्मक बाधाएँ बनते हैं।

·         आरक्षण की अनुपलब्धता सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता को बाधित करती है और समाज में असमानता को और बढ़ावा देती है।

RTE मॉडल: एक संस्थागत समाधान के रूप में:

·        शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की धारा 12(1)(c) के तहत निजी स्कूलों में 25% सीटें आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (EWS) के लिए आरक्षित की गई हैं, जिनकी लागत सरकार वहन करती है।

·        संसदीय समिति ने सुझाव दिया है कि इसी प्रकार का मॉडल निजी उच्च शिक्षा संस्थानों में भी अपनाया जाना चाहिए, जिससे आरक्षण को लागू करना वित्तीय रूप से व्यवहार्य हो सके और संस्थानों को सरकार से आवश्यक समर्थन भी मिले।

संस्थागत और प्रशासनिक सुझाव:

 समिति ने एक केंद्रीय निगरानी तंत्र की सिफारिश की है जिसमें शामिल हों:

·         विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC)

·         राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (NCBC)

·         अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग

इसके अतिरिक्त, निजी संस्थानों को श्रेणीवार प्रवेश डेटा हर वर्ष सार्वजनिक करना अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिससे जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित हो सके।

निष्कर्ष:

संसदीय पैनल के निष्कर्षों ने सामाजिक न्याय, शैक्षिक समानता और समावेशी विकास सुनिश्चित करने में निजी शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका पर एक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय बहस को पुनः जीवित कर दिया है। रिपोर्ट यह स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि विधायी समर्थन और प्रभावी निगरानी तंत्र के अभाव में, अनुच्छेद 15(5) जैसे संवैधानिक प्रावधानों का वास्तविक प्रभाव सीमित रह जाता है। भारत यदि एक ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था और वैश्विक शिक्षा केंद्र बनने की आकांक्षा रखता है, तो उच्च शिक्षा के सभी स्तरोंनिजी संस्थानों सहितमें आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना केवल एक नैतिक दायित्व नहीं, बल्कि एक रणनीतिक आवश्यकता भी है।