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Blog / 30 Dec 2025

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के 100 वर्ष

संदर्भ:

2025 में, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) अपने गठन के 100 वर्ष पूर्ण कर रही है, जो भारत के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। पार्टी की औपचारिक स्थापना 26 दिसंबर 1925 को कानपुर में हुई थी। CPI का उद्भव ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चल रहे राष्ट्रीय संघर्ष के दौरान उभरी क्रांतिकारी और समाजवादी वैचारिक धाराओं से हुआ ।

वैश्विक जड़ें और वैचारिक नींव:

·        भारत में साम्यवाद की बौद्धिक नींव मार्क्सवाद से ली गई है, जिसे कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने पूंजीवादी औद्योगिक समाज की आलोचना के रूप में विकसित किया था। मार्क्स ने तर्क दिया कि पूंजीवाद अपने आंतरिक विरोधाभासों के कारण ढह जाएगा और अंततः समाजवाद का मार्ग प्रशस्त करेगा।

·        हालांकि यह उम्मीद की गई थी कि पहली समाजवादी क्रांति यूरोप में होगी, लेकिन यह व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में 1917 की रूसी क्रांति थी, जो पहला सफल समाजवादी विद्रोह बन गई। इस घटना ने पूरे एशिया में साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों को गहराई से प्रभावित किया और भारत में संगठित कम्युनिस्ट राजनीति के लिए वैचारिक आधार तैयार किया।

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को पोषित करने वाली धाराएँ:

·        प्रवासी क्रांतिकारी और अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव: विदेशों में रहने वाले भारतीय क्रांतिकारियों जिनमें एम. एन. रॉय सबसे प्रमुख थे जिन्होंने कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कॉमिन्टर्न) के साथ मिलकर काम किया। उन्होंने साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष पर जोर दिया और उपनिवेशों वाले देशों में राष्ट्रवादी आंदोलनों के साथ सामरिक गठबंधनों की वकालत की।

·        भारत के भीतर स्वतंत्र वामपंथी समूह: विदेशी प्रयासों के समानांतर, भारत के भीतर बंबई, कलकत्ता, मद्रास और लाहौर जैसे शहरों में कट्टरपंथी वामपंथी समूह उभरे। एस. . डांगे, मुजफ्फर अहमद, गुलाम हुसैन और सिंगारावेलु चेट्टियार सहित अन्य नेताओं ने मार्क्सवादी विचारों के इर्द-गिर्द श्रमिकों और बुद्धिजीवियों को लामबंद किया, जिससे भारत में साम्यवाद का घरेलू संगठनात्मक आधार बना।

·        श्रमिकों और किसानों के आंदोलन: ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों ने जन लामबंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) के गठन ने श्रम सक्रियता और श्रमिकों के बीच कम्युनिस्ट विचारधारा को लोकप्रिय बनाने के लिए एक संस्थागत मंच प्रदान किया।

ताशकंद (1920) और कानपुर (1925):

एम. एन. रॉय के नेतृत्व वाले ताशकंद समूह (1920) ने कॉमिन्टर्न के समर्थन से निर्वासन में CPI स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन भारत के भीतर इसका सीमित प्रभाव रहा।

इसके विपरीत, कानपुर सम्मेलन (1925) ने घरेलू कम्युनिस्ट समूहों को एक साथ लाया और औपचारिक रूप से CPI को एक अखिल भारतीय पार्टी घोषित किया जो श्रमिकों और किसानों की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध थी।

औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष में भूमिका:

·        CPI ने श्रमिकों, किसानों, छात्रों और महिलाओं को लामबंद किया और वर्ग संघर्ष को राष्ट्रीय मुक्ति के व्यापक आंदोलन से जोड़ा। कई नेताओं को दमन का सामना करना पड़ा, विशेष रूप से मेरठ षड्यंत्र मामले (1929) के दौरान।

·        1930 के दशक के दौरान, CPI ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ एक संयुक्त मोर्चा में भाग लिया, हालांकि वैचारिक मतभेद बने रहे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, कम्युनिस्ट रणनीति ने कभी-कभी वैश्विक फासीवाद विरोधी संघर्ष को प्राथमिकता दी, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन के वर्गों के साथ तनाव पैदा हुआ।

स्वतंत्रता के बाद का विकास:

     1947 में स्वतंत्रता के बाद, CPI ने अपने राजनीतिक दृष्टिकोण में विविधता लाई। एक धारा ने संसदीय लोकतंत्र को अपनाया, केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में चुनावी सफलता हासिल की, जहाँ कम्युनिस्ट सरकारों ने भूमि सुधार और कल्याण-उन्मुख नीतियों को लागू किया। आंतरिक वैचारिक मतभेदों का परिणाम 1964 के विभाजन के रूप में सामने आया, जिससे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) (CPI-M) का गठन हुआ, एक ऐसा विकास जिसने भारतीय वामपंथ को स्थायी रूप से नया रूप दिया।

निष्कर्ष:

CPI की शताब्दी यह दिखाती है कि अंतरराष्ट्रीय विचारधाराएँ और भारत की अपनी सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियाँ मिलकर देश की एक प्रमुख और पुरानी राजनीतिक पार्टी को कैसे आकार देती हैं। 1925 में कानपुर से शुरू हुई CPI की यात्रा आज तक भारत में वर्ग संघर्ष, विचारधारा, राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक राजनीति के आपसी जुड़ाव को स्पष्ट करती है।