संदर्भ:
हाल के वर्षों में शहरी बाढ़ कई भारतीय शहरों के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गई है। बदलते जलवायु पैटर्न के कारण अब देश के कई हिस्सों में अधिक बार और अधिक तीव्र वर्षा देखने को मिल रही है। 2025 के मानसून सीज़न में कई राज्यों में सामान्य से 20% अधिक वर्षा हुई। भारी वर्षा में वृद्धि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है, लेकिन शहरी क्षेत्रों में बाढ़ की तीव्रता स्थानीय मानव गतिविधियों द्वारा भी प्रभावित होती है। खराब भूमि उपयोग योजना, तेज़ निर्माण कार्य, हरित क्षेत्रों की कमी, और पुरानी या अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियाँ कई शहरों को जलभराव और बाढ़ से होने वाले नुकसान के लिए अधिक संवेदनशील बना देती हैं।
- बेंगलुरु ऐसा ही एक शहर है जो बढ़ते बाढ़ जोखिमों का सामना कर रहा है। यह शहर ऊँचाई पर स्थित है और ऐतिहासिक रूप से झीलों और नालों का एक विस्तृत नेटवर्क है, फिर भी हाल के वर्षों में यहाँ बार-बार शहरी बाढ़ देखी गई है। मई 2025 की प्री-मानसून वर्षा ने एक बार फिर इन कमजोरियों को उजागर किया। केवल 12 घंटों में शहर में लगभग 130 मिमी वर्षा हुई, जिससे मौजूदा अवसंरचना चरमरा गई, घर और सड़कें जलमग्न हो गईं, और गंभीर बाधाएँ उत्पन्न हुईं। यह घटना शहरी विकास रणनीतियों पर पुनर्विचार और आपदा तैयारी को मजबूत करने की आवश्यकता को उजागर करती है ताकि शहरी बाढ़ के बढ़ते खतरे से निपटा जा सके।
शहरी बाढ़ के बारे में:
शहरी बाढ़ तब होती है जब वर्षा का पानी किसी शहर की जल निकासी प्रणाली से अधिक हो जाता है, जिससे सड़कों, घरों और सार्वजनिक स्थानों में जलभराव हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों की बाढ़ आमतौर पर नदियों या झीलों के पास होती है, जबकि शहरी बाढ़ का कारण होता है बहुत अधिक कंक्रीट की सतहें, जैसे सड़कें और इमारतें जो बारिश के पानी को जमीन में समाने नहीं देतीं। इससे पानी सतह पर तेज़ी से बहता है और नीची जगहों पर इकट्ठा हो जाता है, जिससे जनजीवन प्रभावित होता है। यह संपत्ति को नुकसान पहुँचा सकता है, परिवहन को बाधित कर सकता है और गंभीर स्वास्थ्य जोखिम भी उत्पन्न कर सकता है।
शहरी बाढ़ के पीछे के कारण:
- भौगोलिक सीमाएँ: शहरी बाढ़ स्थलाकृतिक और जलवैज्ञानिक कारणों के मिश्रण से होती है। बेंगलुरु लगभग 900 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और वहाँ अतिरिक्त पानी निकालने के लिए कोई प्रमुख नदी प्रणाली नहीं है।
- तीव्र शहरी निर्माण: शहरों में तेज़ी से हुए निर्माण ने प्राकृतिक ज़मीन को कंक्रीट से बदल दिया है। चूँकि कंक्रीट पानी नहीं सोख सकता, इसलिए बारिश का पानी सतह पर बह जाता है। मुंबई जैसे शहरों में पिछले कुछ दशकों में निर्मित क्षेत्र लगभग दोगुना हो गया है, जिससे अब मध्यम वर्षा में भी बाढ़ की संभावना बढ़ गई है। कुछ शहर क्षेत्रों में अब प्राकृतिक परिदृश्यों की तुलना में लगभग 30 गुना अधिक सतही बहाव होता है।
- पुरानी जल निकासी प्रणालियाँ: कई शहर अब भी दशकों पुरानी जल निकासी प्रणालियों का उपयोग करते हैं। ये प्रणालियाँ आज की जनसंख्या और वर्षा स्तरों के लिए उपयुक्त नहीं हैं। ये अक्सर कचरे और मलबे से अवरुद्ध हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली अब भी 1976 की बनी ड्रेनेज योजना पर काम करती है, जबकि तब से इसकी जनसंख्या चार गुना से भी अधिक बढ़ चुकी है।
- जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन अधिक चरम और अनिश्चित मौसम ला रहा है। चेन्नई जैसे शहरों ने रिकॉर्ड तोड़ वर्षा देखी है—2015 में एक महीने में 1,200 मिमी से अधिक बारिश हुई, जिससे गंभीर बाढ़ आई। मध्य भारत में 1950 के दशक से भारी वर्षा की घटनाएँ तीन गुना हो चुकी हैं, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह प्रवृत्ति आगे भी जारी रहेगी।
- झीलों और आर्द्रभूमियों का लुप्त होना: झीलों और तालाबों जैसे प्राकृतिक जल निकाय अतिरिक्त वर्षा जल को संग्रहित करते थे। लेकिन अब इनका अधिकांश हिस्सा निर्माण के लिए पाट दिया गया है। 1800ई. में बेंगलुरु में 1,452 जल निकाय थे जो 35 टीएमसी पानी संग्रहीत कर सकते थे। आज केवल लगभग 190 झीलें बची हैं, जिनमें से कई पर अतिक्रमण हो चुका है।
- गलत स्थानों पर निर्माण: पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों, जैसे पहाड़ियों या नदी तटों में निर्माण ने जल प्रवाह के प्राकृतिक मार्ग को बाधित किया है। इससे भूस्खलन हो सकता है और बाढ़ की स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। बेंगलुरु के एसटी बेड लेआउट और मण्यता टेक पार्क जैसे क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील झीलों या घाटी क्षेत्रों पर बने हैं। शिमला और देहरादून जैसे शहरों में पहाड़ी क्षेत्रों में तेज़ निर्माण कार्य ने इन क्षेत्रों को तूफ़ानों के दौरान और अधिक खतरनाक बना दिया है। केदारनाथ में 2013 की बाढ़ ने दिखाया कि पर्यावरण की अनदेखी कर किए गए निर्माण की कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
- कचरे से नालियों का बंद होना: ठोस कचरा और निर्माण मलबा भारी वर्षा के दौरान नालियों को जाम कर देते हैं। कचरा निपटान की खराब व्यवस्था एक बड़ी समस्या है। प्लास्टिक और मलबा नालियों को अवरुद्ध कर देता है, जिससे पानी का बहाव रुक जाता है। भारतीय शहर हर दिन 1.5 लाख टन से अधिक कचरा उत्पन्न करते हैं, लेकिन इसका केवल एक छोटा हिस्सा ही ठीक से निपटाया जाता है। जब नालियाँ कचरे से भर जाती हैं, तब थोड़ी देर की बारिश भी बाढ़ का कारण बन जाती है।
शहरी बाढ़ का प्रभाव:
• जीवन और संपत्ति की हानि: हाल ही में बेंगलुरु में आई बाढ़ के कारण कई लोगों की मौत हुई और बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुकसान हुआ।
• आर्थिक व्यवधान: बेंगलुरु की आउटर रिंग रोड जैसे टेक कॉरिडोर में बंदी से राष्ट्रीय निर्यात प्रभावित होता है।
• सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट: ठहरा हुआ पानी मच्छर जनित रोगों और जल जनित संक्रमणों को फैलाता है।
• अवसंरचना को नुकसान: सड़कें, मेट्रो और बिजली की लाइनें बेकार हो जाती हैं, जिससे संकट और बढ़ जाता है।
समाधान और सर्वोत्तम अभ्यास
1. संस्थागत और प्रशासनिक सुधार: राज्यों को जलवायु परिवर्तन और आपदा प्रबंधन एजेंसियों के बीच समन्वय को बढ़ाना चाहिए। एनडीएमए की राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन रूपरेखा तैयारी, पुनर्प्राप्ति और पुनर्निर्माण पर ज़ोर देती है। शहरों को पेशेवर नेतृत्व वाली अंतर्विभागीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण स्थापित करने चाहिए।
2. शहरी योजना और लचीलापन: शहरों को समोच्च मानचित्र तैयार करने और विस्तृत तूफानी जल सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है। बृहन्मुंबई तूफानी जल निकासी प्रणाली जैसे व्यापक तूफानी जल प्रबंधन प्रणालियों को लागू करना आवश्यक है। जल निकासी नेटवर्क में नए अतिक्रमण को रोकना और मौजूदा बाधाओं को हटाना प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके अलावा, प्लास्टिक पर प्रतिबंध और ठोस कचरा निपटान को विनियमित करना शहरी जल प्रवाह में सुधार के लिए आवश्यक है।
3. केंद्र सरकार की भूमिका: केंद्र सरकार को शहरों की वित्तीय सेहत के लिए अवसंरचना वित्त पोषण के माध्यम से समर्थन देना चाहिए और छोटे शहरों को प्रोत्साहन देना चाहिए ताकि महानगरों पर जनसंख्या दबाव कम हो सके।
4. जलवायु कार्य योजनाएँ (CAPs): प्रत्येक शहर को अपनी विशिष्ट संवेदनशीलताओं के आधार पर एक CAP तैयार करनी चाहिए और उसे लागू करना चाहिए। वार्षिक नगर निगम बजट में CAP परियोजनाओं के लिए समर्पित निधि आवंटित की जानी चाहिए। मुंबई जैसे शहर पहले से ही शहरी बाढ़ को अपनी व्यापक जलवायु रणनीतियों में शामिल कर रहे हैं।
5. प्राकृतिक और तकनीकी समाधान: ग्रीन रूफ, पारगम्य फर्श और शहरी आर्द्रभूमियों जैसे हरित अवसंरचनाओं को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। छत पर वर्षा जल संचयन को बड़े पैमाने पर अपनाया जाना चाहिए ताकि सतही बहाव कम हो सके। मिट्टी की पारगम्यता की भरपाई के लिए छतों पर जल अवशोषण गड्ढे (इन्फिल्ट्रेशन बेड्स) लगाए जा सकते हैं। अस्थायी जल भंडारण के लिए खुले क्षेत्रों को डिटेंशन पॉन्ड घोषित करना और भूमिगत जलाशय बनाना, जैसे हांगकांग का ताई हैंग स्टॉर्मवाटर स्टोरेज टैंक जिसकी क्षमता 1,00,000 घन मीटर है, लचीलापन बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। स्मार्ट सेंसरों के उपयोग से युक्त IoT-आधारित निगरानी प्रणालियाँ जल स्तर बढ़ने की जानकारी समय पर देकर सतर्क कर सकती हैं।
6. वैश्विक नवाचार: अंतरराष्ट्रीय मॉडल उपयोगी सबक देते हैं। सिंगापुर का SWAN वास्तविक समय के जल स्तर सेंसर और पूर्वानुमानित बाढ़ चेतावनियाँ प्रदान करता है। नीदरलैंड का रूम फॉर द रिवर कार्यक्रम नियंत्रित बाढ़ क्षेत्र बनाता है और नदी की क्षमता बढ़ाता है। चीन का स्पंज सिटीज़ सिद्धांत शहरी सतहों को वर्षा जल को अवशोषित और संग्रहित करने योग्य बनाता है। न्यू ऑरलियन्स में FLOAT हाउसेज़—ऐसे घर जो जल स्तर बढ़ने पर तैर सकते हैं—विकसित किए गए हैं।
निष्कर्ष
भारत में शहरी बाढ़ एक प्रशासनिक और योजना विफलता है जिसे जलवायु परिवर्तन ने और बढ़ा दिया है। भविष्य की आपदाओं से बचने के लिए भारत को दोहरी रणनीति अपनानी चाहिए: राष्ट्रीय नीतियों के माध्यम से बड़े शहरों पर जनसंख्या का दबाव कम करना और लचीले अवसंरचना व प्रशासनिक सुधारों में निवेश करना। केवल तभी, जब जलवायु लचीलापन को शहरी योजना की मूल संरचना में शामिल किया जाएगा, भारतीय शहर शहरी बाढ़ के बढ़ते खतरे से प्रभावी ढंग से निपटने की उम्मीद कर सकते हैं।
मुख्य प्रश्न: "भारत में शहरी बाढ़ जितनी जलवायु परिवर्तन का परिणाम है, उतनी ही योजना की विफलता भी है।" हाल की भारतीय शहरों की घटनाओं के संदर्भ में विवेचना कीजिए। |