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Daily-current-affairs / 29 Jan 2024

भारत गणराज्य में नारीवादी आंदोलनों की भूमिकाः एक व्यापक अवलोकन

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संदर्भ

गणतंत्र भारत की विकास यात्रा में विविध आंदोलनों और प्रगतिशील एजेंडे का समर्थन करने वाले विभिन्न हितधारकों के अथक प्रयासों का अमूल्य योगदान रहा है। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित न्याय, स्वतंत्रता और समानता की प्रतिध्वनि स्वतंत्रता सेनानियों और समाज सुधारकों के आंदोलनों में  प्रतिबिंबित होती है। हालाँकि, स्वतंत्रता के विभिन्न घटनाक्रमों के बीच, पूर्व-स्वतंत्र भारत में नारीवादी आंदोलनों के  महत्वपूर्ण योगदान की भूमिका प्रायः कम करके आँकी जाती है, विशेष रूप से महिलाओं के अधिकारों और गणतंत्र को आकार देने में उनकी भूमिका के संदर्भ में यह स्पष्ट रूप से  देखा जा सकता है। इस लेख में हम स्वतंत्रता पूर्व स्वतंत्रता पश्चात देश में महिला अधिकार, समानता और न्याय हेतु किया गए विविध प्रयासों पर दृष्टिपात कर रहे हैं।

महिलाओं के मतदान का अधिकारः एक अग्रणी संघर्षः

वोट देने का अधिकार, लोकतंत्र का एक मौलिक पहलू है, स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात यह अधिकार पुरुषों और महिलाओं दोनों को एक साथ प्रदान किया गया था। हालांकि समानता के इस अधिकार की अति सरलीकृत व्याख्या की गई, और उन महिला कार्यकर्ताओं के समर्पित प्रयासों को स्वीकार करने में विफल रही है जिन्होंने अपने मतदान के अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। वर्ष 1917 में, महिला कार्यकर्ताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने एडविन मांटेग्यु और लॉर्ड चेम्सफोर्ड को महिलाओं के मताधिकार की मांगों का एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था। ध्यातव्य हो कि  मांटेग्यु-चेम्सफोर्ड को भारत के लिए स्व-शासन तैयार करने का काम सौंपा गया था। इस संघर्ष में महिला भारतीय संघ (डब्ल्यू. आई. .) महिलाओं के मताधिकार की वकालत करने वाले पहले राष्ट्रीय निकाय के रूप में उभरा, जिसने महिलाओं के सामने आने वाली सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों को विस्तार से सामने रखा।

1919 में भारत सरकार अधिनियम ने प्रांतीय विधानसभाओं में महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया। कालांतर में मद्रास मे , 1921 में महिलाओं को मताधिकार प्रदान पहला प्रांत बना, जिसके बाद बॉम्बे और संयुक्त प्रांत ने भी विधान सभा चुनाव में इसे लागू किया। हालाँकि, इस अधिकार को लागू करने में कई बाधाएं भी आई, बंगाल विधान परिषद ने शुरू में मताधिकार विधेयक को खारिज कर दिया  था। जिसके जवाब में बंगिया नारी समाज के नेतृत्व में कार्यकर्ताओं ने व्यापक जागरूकता अभियान किए, अंततः 1925 में विधेयक को पारित कराने में सफल रहे। इस महत्वपूर्ण जीत के बावजूद, मतदान के अधिकार को संपत्ति के स्वामित्व, आय और अन्य शर्तों के आधार पर लागू किया गया , परिणामस्वरूप लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बड़ी संख्या में महिलाओं की भागीदारी नहीं हो सकी।

नेहरू रिपोर्ट और अंतर्राष्ट्रीय समर्थन

1929 में, नेहरू रिपोर्ट ने ऑल पार्टीज कॉन्फ्रेंस में संविधान का एक मसौदा प्रस्तुत किया, जिसमें सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक अधिकारों का आह्वान किया गया था। हालाँकि, इन अधिकारों को लागू करने की अंग्रेजों की अनिच्छा के कारण राजकुमारी अमृत कौर और शरीफा हामिद अली के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल ने  लीग ऑफ नेशंस में याचिका दायर करने हेतु लंदन और जिनेवा की यात्रा की। 1935 के भारत सरकार अधिनियम मे मतदान अधिकारों को विस्तृत किया गया, जिससे सार्वजनिक कार्यालयों में महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ। 1936-37 में हुए चुनावों में कई महिलाएँ खड़ी हुई और जीत कर प्रांतीय सरकारों में शामिल हुईं। इस विजय से सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के विचार की व्यापक स्वीकृति को बढ़ावा मिला।

बैलेट बॉक्स से परेः सामाजिक और व्यक्तिगत क्षेत्रों में नारीवादी आंदोलन

वर्ष 1927 में अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (AIWC) का गठन हुआ, जो महिलाओं के नेतृत्व वाले संगठनों का एक सहयोगी प्रयास था। यह सम्मेलन आरंभ में महिलाओं की शिक्षा पर केंद्रित था। लेकिन कालांतर में इसका दायरा व्यापक हुआ। AIWC ने बाल विवाह को गैरकानूनी बनाने, सहमति की उम्र बढ़ाने और बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की। इसके अलावा  AIWC ने महिलाओं की मुक्ति के लिए विभिन्न धार्मिक कानूनों में सुधार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1945-46 में, AIWC ने सभी क्षेत्रों में समानता, आर्थिक सशक्तिकरण और घरेलू कार्य के मूल्य की औपचारिक मान्यता पर जोर देते हुए, भारतीय महिला अधिकारों और कर्तव्यों के चार्टर को अपनाया।

इस चार्टर ने तलाक की स्वतंत्रता, संपत्ति का समान अधिकार और विरासत के अधिकारों की मांग करते हुए भविष्य के कानूनी सुधारों के लिए आधार तैयार किया। इनमें से कुछ मांगों को अंततः एक दशक बाद अधिनियमित हिंदू संहिता विधेयक में अभिव्यक्ति मिली। इन महिला नेताओं की सक्रियता ने राजनीतिक क्षेत्र से परे महिलाओं के अधिकार हेतु कार्य किया और गहराई से निहित भेदभावपूर्ण प्रथाओं को चुनौती देकर सामाजिक और व्यक्तिगत क्षेत्रों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विभाजन के बाद की चुनौतियां और विविधतापूर्ण विश्व दृष्टिकोणः

 विभाजन के बाद, धार्मिक आधार पर सीटों का आरक्षण एक विवादास्पद मुद्दे के रूप में उभरा। संविधान सभा में राजकुमारी अमृत कौर और बेगम कुद्सिया ऐजाज़ रसूल ने धर्म पर आधारित किसी भी विशेषाधिकार का विरोध किया। अंततः आरक्षण को अनुसूचित जातियों और जनजातियों तक किया गया इसी दौरान AIWC में अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों और आरक्षण का विरोध के मुद्दे पर आंतरिक विभाजनों हुआ , विशेष रूप से विधायी निकायों में महिलाओं के आरक्षण के संबंध में इनके बीच अधिक मतभेद थे। इस विभाजन ने महिला आंदोलन के भीतर विविध विश्व दृष्टिकोण और महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम सहमति प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों को उजागर किया।

संविधान का निर्माण और भविष्य के नारीवादी संघर्षः

भारतीय संविधान के निर्माताओं के बीच विचारों की व्यापक विविधता थी।  संबिधान निर्माताओं ने इसे एक जीवित दस्तावेज के रूप में आकार दिया था, जो उस समय की आकस्मिकताओं के अनुकूल था। पिछले 70 वर्षों में, नारीवादियों ने महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रयास करना जारी रखा है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न कानूनों, नीतियों और संवैधानिक संशोधनों को लागू किया गया है। महिला आदोंलन की अग्रणी प्रणेताओं द्वारा रखी गई नींव ने जीवन के सभी क्षेत्रों में लैंगिक असमानताओं को दूर करने के लिए चल रहे प्रयासों का मार्ग प्रशस्त किया है।

आपको पता होना चाहिए 

हाल ही में 106वां संविधान संशोधन एक अग्रणी कदम है, जो लोकसभा और राज्य संविधान सभाओं में महिलाओं के 1/3 आरक्षण का प्रावधान करता है। इस पहल का उद्देश्य राज्य और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर नीति निर्माण में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाना है। यह कदम वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित देश में बदलने के व्यापक उद्देश्य में योगदान देगा।

निष्कर्ष-

जैसा कि भारत अपना 75वां गणतंत्र दिवस मना रहा है, यह गणतंत्र को आकार देने में नारीवादी आंदोलनों के अमूल्य योगदान को प्रतिबिंबित करने और उनका सम्मान करने का एक उपयुक्त क्षण है। महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष (मतदान के अधिकार के लिए लड़ाई से लेकर व्यापक सामाजिक सुधारों तक) ने भारत की लोकतांत्रिक यात्रा पर एक अमिट छाप छोड़ी है। एक अधिक समावेशी और न्यायसंगत समाज को बढ़ावा देने के लिए इन योगदानों की मान्यता और स्वीकृति आवश्यक है। अतीत के घटनाक्रमों से सीख लेते हुए सभी के लिए  न्याय, स्वतंत्रता और समानता की खोज में आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित और मार्गदर्शन करना चाहिए।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  1.   स्वतंत्रता पूर्व भारत में मतदान के अधिकार के लिए संघर्ष में महिला कार्यकर्ताओं ने कैसे योगदान दिया और उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा? उस समय के लोकतांत्रिक परिदृश्य पर इन प्रयासों के व्यापक प्रभावों पर चर्चा करें। (10 Marks, 150 words)
  2. मतदान अधिकारों से परे पूर्व-स्वतंत्र भारत में नारीवादी आंदोलनों द्वारा निभाई गई विविध भूमिकाओं का अन्वेषण करें। महिला कार्यकर्ताओं द्वारा संबोधित प्रमुख मुद्दों पर प्रकाश डालें और स्वतंत्रता के बाद के युग में सामाजिक मानदंडों पर उनके प्रयासों के स्थायी प्रभाव की जांच करें। (15 marks, 250 words)

Source – Indian Express

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