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Daily-current-affairs / 04 Dec 2023

भारत में व्यभिचार का पुनः अपराधीकरण ! - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख Date : 5/12/2023

प्रासंगिकताः GS पेपर 2-शासन-राज्य द्वारा हस्तक्षेप

मुख्य शब्दः आईपीसी, सीआरपीसी, संसदीय स्थायी समिति, विधि आयोग, लॉर्ड मैकाले, आईपीसी की धारा 497।

संदर्भ -

  • गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदलने के उद्देश्य से तीन प्रस्तावित आपराधिक कानून विधेयकों का मूल्यांकन कर रही है, इस समिति ने व्यभिचार के पुनः अपराधीकरण की सिफारिश की है।
  • यह सिफारिश 2018 में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए सर्वसम्मत निर्णय के बिल्कुल विपरीत है। इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने भेदभाव सहित कई आधारों पर व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था।
  • यहाँ हम उन आधारों पर बात कर रहे हैं जिन पर समिति ने पुनः अपराधीकरण का सुझाव दिया है, इसके अलावा आर्टिकल में हम भारत में व्यभिचार कानूनों के विधायी इतिहास पर बात कर रहे है साथ ही विवादास्पद प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष दोनों तर्कों की बात भी करेंगे ।

  • पुनः अपराधीकरण के लिए समिति का तर्क

    • समिति की रिपोर्ट में व्यभिचार को एक आपराधिक अपराध के रूप में पुनः बहाल करने का प्रस्ताव दिया गया है लेकिन इसी के साथ साथ-इसे लिंग-तटस्थ बनाने का भी प्रस्ताव है ।
    • इसका तात्पर्य है कि पुरुष और महिला दोनों कानून के तहत समान रूप से दोषी होंगे। इस प्रस्ताव के पीछे का मूल तर्क विवाह की संस्था की पवित्रता की रक्षा करना है।
    • रिपोर्ट के अनुसार, आईपीसी की पिछली धारा 497 ने केवल विवाहित पुरुष को दंडित किया है। इस धारा को 2018 में रद्द कर दिया गया था।

    क्या है धारा 497?

    आईपीसी की धारा 497 के तहत विवाहेतर संबंधों को अपराध घोषित किया है । इसके तहत किसी पुरुष को दूसरे व्यक्ति की पत्नी से पति की इजाजत के बिना संबंध बनाने की अनुमति नहीं है। हालांकि, पति की इजाजत से संबंध बनाए जाने पर यह अपराध नहीं रहेगा। ऐसे मामलों में केवल पुरुष को अपराधी माना गया है, महिला को नहीं।


  • समिति का तर्क है कि भारतीय समाज में विवाह की पवित्रता को बनाए रखने के लिए लिंग-तटस्थ तरीके से व्यभिचार को अपराध बनाना महत्वपूर्ण है।

विपक्ष का दृष्टिकोण

  • विपक्ष का कहना है कि विवाह को एक अनिवार्य संस्कार के स्तर तक बढ़ाना पुराना व अतार्किक विचार है।
  • उनका तर्क है कि राज्य को बिना सहमति से वयस्कों के निजी जीवन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  • पूर्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने प्रस्तावित विधेयकों पर अपने असहमति नोट में इस बात पर जोर दिया है कि व्यभिचार को अपराध के रूप में नहीं बल्कि विवाह समझौते के खिलाफ अपराध के रूप में माना जाना चाहिए, जिसे तलाक या हर्जाने जैसे नागरिक उपचारों के माध्यम से संबोधित किया जा सकता है।
  • प्रस्ताव पर बहस इस बात पर निर्भर करती है कि क्या दम्पत्ति के निजी मामलों को विनियमित करने में राज्य की वैध भूमिका है ?

भारत में व्यभिचार कानूनों का विधायी इतिहास

लॉर्ड मैकाले का प्रभाव

  • भारत में व्यभिचार कानूनों का आरंभ लॉर्ड मैकाले द्वारा निर्मित आईपीसी में किया गया था। आरंभ में, लॉर्ड मैकाले व्यभिचार को अपराध घोषित करने के लिए अनिच्छुक थे और इसके समाधान के रूप में आर्थिक मुआवजे के इच्छुक थे। हालांकि, दंड संहिता की समीक्षा करने वाले न्यायालय आयुक्तों ने व्यभिचार को एक अपराध बनाना आवश्यक समझा। प्रस्तावित धारा में उस समय के सामाजिक संदर्भ को देखते हुए केवल पुरुष को उत्तरदायी ठहराया गया था।

विधि आयोग के विचार-विमर्श

  • 1971 में, भारत के विधि आयोग ने अपनी 42वीं रिपोर्ट में व्यभिचारी आचरण को अपराध घोषित किया था।
  • कुछ सदस्यों के इस धारा को निरस्त करने के सुझाव के बावजूद, आयोग ने कहा था कि मौजूदा स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन नहीं होना चाहिए। विशेष रूप से, विवाह के भीतर महिलाओं की स्थिति की समकालीन धारणाओं के संदर्भ मे धारा 497 को समाप्त करने पर असहमति थी।
  • 2003 में, मलिमथ समिति ने व्यभिचार को अपराध के रूप में बनाए रखने की सिफारिश की, लेकिन इस धारा को लिंग-तटस्थ बनने का प्रस्ताव दिया था। इस समिति ने विवाह की पवित्रता को बनाए रखने के उद्देश्य पर जोर दिया था और यह तर्क दिया था कि समाज वैवाहिक व्यभिचार की निंदा करता है, और विवाहेतर संबंधों में शामिल दोनों पति-पत्नियों के लिए समान व्यवहार होना चाहिए।

धारा 497 का निरसन

  • 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से आईपीसी की धारा 497 को रद्द कर दिया था।
  • अदालत ने कहा था कि व्यभिचार को एक नागरिक गलत मान सकता है और इसे तलाक का लिए वैध आधार माना जा सकता है लेकिन इसे अपराध की श्रेणी मे नहीं रखा जा सकता है । यह निर्णय जोसेफ शाइन द्वारा दायर एक जनहित याचिका के जवाब मे दिया गया था, जिसमें सीआरपीसी की धारा 497 और धारा 198 (2) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी।

अडल्टरी के डिक्रिमिनलाइजेशन के पीछे तर्क

गोपनीयता और स्वायत्तता

  • जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने वैवाहिक संबंधों में गोपनीयता और स्वायत्तता के महत्व को रेखांकित किया। अदालत ने तर्क दिया कि व्यभिचार को एक अपराध के रूप में मानने से वैवाहिक जीवन के निजी क्षेत्र में घुसपैठ होगी। न्यायाधीशों ने इस बात पर प्रकाश डाला कि व्यभिचार का अपराधीकरण लैंगिक रूढ़ियों को कायम रखता है और विवाहित महिलाओं को अपने पतियों की संपत्ति के रूप में मानता है।

धारा 497 की आलोचनाएँ

  • धारा 497 को इसके अंतर्निहित लिंग पूर्वाग्रह, महिलाओं को अभियोजन से छूट देने और केवल पति को शिकायत दर्ज करने के लिए सशक्त बनाने के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। अदालत के फैसले का उद्देश्य इन असंतुलन को ठीक करना था, अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति को निजी संबंधों मे स्वायत्तता के लिए आपराधिक प्रतिबंधों से संरक्षित किया जाना चाहिए।

समकालीन संवैधानिक नैतिकता

  • सुप्रीम कोर्ट के अपने निर्णयों ने समकालीन संवैधानिक नैतिकता के साथ कानूनों को संरेखित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। इसने उन पुरातन धारणाओं को खारिज कर दिया जो व्यक्तियों की स्वायत्तता और गरिमा को कम करते हैं। अदालत का यह निर्णय विकसित हो रहे सामाजिक मानदंडों को पहचानने और वैवाहिक संबंधों की निजी प्रकृति को समझने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था।

डिक्रिमिनलाइजेशन को खत्म करने में चुनौतियां

पूर्ववर्ती और विधायी प्राधिकरण-

  • यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय एक मिसाल स्थापित करता है, लेकिन संसद विधायी कार्रवाई के माध्यम से न्यायिक फैसलों को रद्द करने का अधिकार रखती है। हालाँकि, ऐसी कार्रवाई केवल तभी मान्य होगी जब यह निर्णय के कानूनी आधार को संबोधित करते हों। सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021) मामले में कानून को मान्य करने के लिए मानदंड स्थापित किए है ।
  • संभावित और पूर्वव्यापी विधान के बारे मे न्यायालय ने स्वीकार किया है कि विधायिका पिछले विधान में दोषों को सुधारने के लिए संभावित और पूर्वव्यापी दोनों तरह से कानून पारित कर सकती है।

निष्कर्षः

व्यभिचार के पुनः अपराधीकरण पर चल रही बहस में, भारत परंपरा और आधुनिकता के चौराहे पर खड़ा है। लैंगिक-तटस्थ आधार पर व्यभिचार को अपराध बनाने की समिति की सिफारिश 2018 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित व्यक्तिगत स्वायत्तता और गोपनीयता के निर्णय को चुनौती देती है। जैसे-जैसे राष्ट्र इन परस्पर विरोधी दृष्टिकोण से जूझ रहा है, परिणाम न केवल कानूनी परिदृश्य को आकार देंगे, बल्कि विवाह, स्वायत्तता और व्यक्तिगत अधिकारों के संबंध में विकसित सामाजिक मानदंडों को भी प्रतिबिंबित करेंगे।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न-

  1. भारत में व्यभिचार के पुनः अपराधीकरण की सिफारिश करने के लिए गृह मामलों की संसदीय स्थायी समिति द्वारा क्या प्रमुख तर्क दिए गए हैं, और ये तर्क 2018 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से कैसे भिन्न हैं जिसने व्यभिचार को गैर-अपराधी घोषित किया था? (10 Marks, 150 Words)
  2. भारत में व्यभिचार कानूनों का विधायी इतिहास, लॉर्ड मैकाले के प्रभाव से लेकर मलिमथ समिति की सिफारिशों तक, व्यभिचार को फिर से आपराधिक बनाने पर चल रही बहस को कैसे संदर्भ प्रदान करता है? (15 Marks, 250 Words)

Source- The Hindu

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