सन्दर्भ:
हाल ही में 9 अक्टूबर 2025 को एक ऐतिहासिक निर्णय में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के तहत लागू आयु सीमाएँ उन दंपतियों पर लागू नहीं होंगी जिन्होंने कानून लागू होने से पहले भ्रूण (embryo) को फ्रीज़ किया था। न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि वे दंपति जिन्होंने अधिनियम लागू होने से पहले सरोगेसी प्रक्रिया आरंभ की थी, उन्हें केवल नए कानूनी प्रतिबंधों के कारण अभिभावक बनने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
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- न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रजनन संबंधी विकल्पों का अधिकार—जिसमें सरोगेसी के माध्यम से संतान प्राप्त करने का निर्णय शामिल है—संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता का एक अभिन्न हिस्सा है। यह निर्णय कानून के उद्देश्य—व्यावसायिक शोषण को रोकने—और व्यक्तियों के प्रजनन संबंधी निर्णयों के संवैधानिक अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करता है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि प्रजनन संबंधी विकल्पों का अधिकार—जिसमें सरोगेसी के माध्यम से संतान प्राप्त करने का निर्णय शामिल है—संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता का एक अभिन्न हिस्सा है। यह निर्णय कानून के उद्देश्य—व्यावसायिक शोषण को रोकने—और व्यक्तियों के प्रजनन संबंधी निर्णयों के संवैधानिक अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करता है।
सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 को समझना:
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- सहायक प्रजनन प्रौद्योगिकी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के साथ लागू यह अधिनियम भारत में नैतिक सरोगेसी के लिए एक व्यापक ढांचा प्रदान करता है।
- इन कानूनों का प्रमुख उद्देश्य सरोगेसी प्रक्रियाओं को विनियमित करना, शोषण को रोकना और व्यावसायिक सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाना है, जो पहले महिलाओं के प्रजनन श्रम के वस्तुकरण के आरोपों के बीच एक बहु-मिलियन डॉलर का उद्योग बन गया था।
अधिनियम की प्रमुख विशेषताएँ:
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- अनुमोदित सरोगेसी का प्रकार:
केवल परोपकारी (altruistic) सरोगेसी की अनुमति है, जिसमें सरोगेट माँ को चिकित्सकीय खर्च और बीमा कवरेज के अलावा कोई वित्तीय मुआवज़ा नहीं दिया जाता।
व्यावसायिक सरोगेसी, जिसमें भुगतान या लाभ शामिल हो, सख्त रूप से प्रतिबंधित और दंडनीय है। -
दंपति के लिए पात्रता मानदंड:
- अनुमोदित सरोगेसी का प्रकार:
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o केवल भारतीय विवाहित दंपति सरोगेसी का लाभ उठा सकते हैं।
o पत्नी की आयु 23–50 वर्ष और पति की आयु 26–55 वर्ष के बीच होनी चाहिए।
o दंपति के पास कोई जीवित जैविक या दत्तक संतान नहीं होनी चाहिए।
o प्रक्रिया शुरू करने से पहले अनिवार्यता प्रमाणपत्र और पात्रता प्रमाणपत्र प्राप्त करना आवश्यक है।
• सरोगेट माँ के लिए पात्रता:
o विवाहित महिला होनी चाहिए, जिसकी आयु 25–35 वर्ष के बीच हो और जिसकी कम से कम एक संतान हो।
o केवल एक बार सरोगेट के रूप में कार्य कर सकती है और अपने स्वयं के गैमेट्स का उपयोग नहीं कर सकती।
• अभिभावक अधिकार:
सरोगेसी से जन्मा बच्चा कानूनी और जैविक रूप से इच्छुक दंपति का बच्चा माना जाएगा और उसे प्राकृतिक संतान के सभी अधिकार प्राप्त होंगे।
• नियामक तंत्र:
o राष्ट्रीय और राज्य सरोगेसी बोर्ड (NSB एवं SSB) की स्थापना क्लीनिकों की निगरानी और नैतिक मानकों के प्रवर्तन के लिए की गई है।
o केवल पंजीकृत सरोगेसी क्लीनिकों को प्रक्रियाएँ करने की अनुमति है।
o व्यावसायिक सरोगेसी, शोषण या भ्रूण की बिक्री पर 10 वर्ष तक की सजा और ₹10 लाख तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।
सरोगेसी के प्रकार और प्रमुख अवधारणाएँ:
1. पारंपरिक सरोगेसी:
सरोगेट अपने अंडाणु (egg) का उपयोग करती है, जिसे इच्छुक पिता के शुक्राणु से निषेचित किया जाता है, जिससे वह जैविक माँ बन जाती है। यह विधि भारत में कानूनी रूप से अनुमत नहीं है।
2. गेस्टेशनल सरोगेसी:
सरोगेट एक ऐसे भ्रूण को धारण करती है जो IVF के माध्यम से इच्छुक दंपति या दाताओं के गैमेट्स से निर्मित होता है। बच्चे का सरोगेट से कोई आनुवंशिक संबंध नहीं होता, और भारत में यही विधि अनुमत है।
3. परोपकारी बनाम व्यावसायिक सरोगेसी:
o परोपकारी सरोगेसी करुणा या पारिवारिक संबंधों पर आधारित होती है और इसमें कोई आर्थिक लाभ नहीं होता।
o व्यावसायिक सरोगेसी, जो पहले भारत में आम थी, में सरोगेट को भुगतान शामिल था, और अब इसे नैतिक व मानवाधिकार कारणों से अवैध घोषित किया गया है।
यह कानून क्यों लाया गया?
भारत कभी “दुनिया की सरोगेसी राजधानी” कहा जाता था, क्योंकि यहाँ लागत कम थी और नियम शिथिल थे। परंतु शोषण, असुरक्षित चिकित्सकीय प्रथाओं और कानूनी अनिश्चितताओं की रिपोर्टों ने सरकार को हस्तक्षेप करने के लिए प्रेरित किया।
2021 का अधिनियम इसलिए लाया गया ताकि:
• महिलाओं को शोषण और तस्करी से बचाया जा सके।
• चिकित्सकीय और कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
• प्रसव के वस्तुकरण को रोका जा सके।
• इस प्रथा को वास्तविक रूप से बांझ दंपतियों तक सीमित रखा जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें:
याचिकाकर्ताओं की दलीलें:
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- दंपतियों ने तर्क दिया कि चूंकि उन्होंने कानून लागू होने से पहले भ्रूण फ्रीज़ किया था, इसलिए उन्हें सरोगेसी की प्रक्रिया आगे बढ़ाने का अधिकार था।
- आयु सीमाएँ पिछली तिथि से लागू करना अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) और अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
- उनका कहना था कि प्रजनन स्वायत्तता—यह तय करने का अधिकार कि कब और कैसे संतान हो—व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक पहलू है।
- उन्होंने अविवाहित महिलाओं के बहिष्कार को भी मनमाना और भेदभावपूर्ण बताया।
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सरकार की दलीलें:
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- केंद्र ने कहा कि आयु सीमाएँ चिकित्सकीय रूप से उचित हैं और विशेषज्ञ सिफारिशों पर आधारित हैं।
- उसने तर्क दिया कि सरोगेसी कोई मौलिक अधिकार नहीं, बल्कि एक वैधानिक विशेषाधिकार है, जो विनियमन के अधीन है।
- संक्रमणकालीन प्रावधान (धारा 53) केवल उन सरोगेट माताओं की रक्षा के लिए था जो पहले से प्रक्रिया में थीं, न कि भ्रूण रखने वाले दंपतियों के लिए।
- सरकार ने उन्नत आयु में गर्भधारण से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों और बच्चे के कल्याण का भी हवाला दिया।
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सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन:
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- न्यायालय ने सरकार की संकीर्ण व्याख्या से असहमति जताई और कहा कि जब तक स्पष्ट रूप से न कहा जाए, कोई नया कानून पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं हो सकता। न्यायालय ने कहा कि नया कानून भविष्य की क्रियाओं को नियंत्रित कर सकता है, परंतु पूर्व की स्थितियों को अमान्य नहीं कर सकता।
जिन दंपतियों ने अधिनियम लागू होने से पहले सरोगेसी प्रक्रिया शुरू की थी, उन्हें केवल नई आयु सीमाओं के कारण अभिभावक बनने से वंचित नहीं किया जा सकता। - पीठ ने कहा कि अधिनियम का उद्देश्य व्यावसायिक सरोगेसी को रोकना था, वास्तविक अभिभावकता को बाधित करना नहीं। न्यायालय ने यह भी पूछा कि जब स्वाभाविक रूप से देर आयु में गर्भधारण की अनुमति है, तो ऐसे ही जोखिम लेने के इच्छुक दंपतियों को सरोगेसी क्यों रोकी जानी चाहिए।
- न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि धारा 53 के संक्रमणकालीन प्रावधान को इस प्रकार नहीं पढ़ा जा सकता जिससे पहले से प्राप्त अधिकार समाप्त हो जाएँ।
वे दंपति जिन्होंने कानून लागू होने से पहले भ्रूण निर्मित किए थे, उनके अधिकार वैध और नए प्रतिबंधों से अप्रभावित रहेंगे।
- न्यायालय ने सरकार की संकीर्ण व्याख्या से असहमति जताई और कहा कि जब तक स्पष्ट रूप से न कहा जाए, कोई नया कानून पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं हो सकता। न्यायालय ने कहा कि नया कानून भविष्य की क्रियाओं को नियंत्रित कर सकता है, परंतु पूर्व की स्थितियों को अमान्य नहीं कर सकता।
निर्णय का महत्व:
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- प्रजनन स्वायत्तता को सुदृढ़ करना: यह निर्णय पुष्टि करता है कि सरोगेसी सहित प्रजनन संबंधी विकल्प व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार का एक आवश्यक हिस्सा है।
- न्यायसंगत संक्रमण सुनिश्चित करना: न्यायालय की व्याख्या “ग्रैंडफादर क्लॉज़” सिद्धांत को प्रस्तुत करती है, जो उन दंपतियों की रक्षा करती है जो नए नियम लागू होने से पहले प्रक्रिया में थे।
- विधायी निष्पक्षता पर मिसाल स्थापित करना: यह निर्णय इस सिद्धांत को सुदृढ़ करता है कि कानून, जब तक स्पष्ट रूप से न कहा जाए, पूर्वव्यापी रूप से अधिकारों को नहीं छीन सकता।
- विनियमन और करुणा में संतुलन: न्यायालय ने शोषणकारी व्यावसायिक सरोगेसी और वास्तविक अभिभावकता में अंतर कर मानव पक्ष को प्राथमिकता दी है।
- प्रजनन स्वायत्तता को सुदृढ़ करना: यह निर्णय पुष्टि करता है कि सरोगेसी सहित प्रजनन संबंधी विकल्प व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता के अधिकार का एक आवश्यक हिस्सा है।
चुनौतियाँ और नैतिक चिंताएँ:
प्रगतिशील निर्णय के बावजूद भारत में सरोगेसी तंत्र कई चुनौतियों का सामना कर रहा है:
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- अविवाहित और LGBTQ+ व्यक्तियों का बहिष्कार: वर्तमान कानून केवल विवाहित विषमलैंगिक दंपतियों को सरोगेसी की अनुमति देता है, जिससे एकल अभिभावक और समान-लिंगी दंपति वंचित रह जाते हैं।
- अभिभावक अधिकार और नागरिकता में अस्पष्टता: दाताओं के गैमेट्स से जन्मे बच्चों को अक्सर अभिभावकता और नागरिकता के कानूनी विवादों का सामना करना पड़ता है।
- सरोगेट माताओं के स्वास्थ्य और भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता: परोपकारी व्यवस्थाओं में भी सरोगेट्स को चिकित्सकीय, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सहयोग की आवश्यकता होती है।
- जागरूकता और नियमन की आवश्यकता: सहायक प्रजनन तकनीकों के दुरुपयोग को रोकने और सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश और सार्वजनिक शिक्षा आवश्यक हैं।
- अविवाहित और LGBTQ+ व्यक्तियों का बहिष्कार: वर्तमान कानून केवल विवाहित विषमलैंगिक दंपतियों को सरोगेसी की अनुमति देता है, जिससे एकल अभिभावक और समान-लिंगी दंपति वंचित रह जाते हैं।
निष्कर्ष:
अक्टूबर 2025 का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय भारत की प्रजनन अधिकार न्यायशास्त्र में एक मील का पत्थर है। यह पुनः पुष्टि करता है कि राज्य को चिकित्सकीय प्रथाओं को विनियमित करने का अधिकार तो है, परंतु वह व्यक्तिगत स्वायत्तता और गरिमा को नकार नहीं सकता।
2021 के कानून से पहले सरोगेसी प्रक्रिया शुरू करने वाले दंपतियों को संरक्षण देकर न्यायालय ने नैतिक शासन और मानवीय संवेदना के बीच एक महत्वपूर्ण संतुलन स्थापित किया है। यह निर्णय न केवल अनेक अभिभावक बनने की आशा रखने वाले दंपतियों को राहत देता है, बल्कि न्यायपूर्ण विधायी व्याख्या के लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करता है—ऐसा उदाहरण जो कानून की शब्दावली के साथ-साथ न्याय की भावना को भी महत्व देता है।
UPSC/PSC मुख्य परीक्षा प्रश्न: “प्रजनन स्वायत्तता व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गरिमा का अभिन्न अंग है।” सर्वोच्च न्यायालय के हालिया सरोगेसी निर्णय के आलोक में इस कथन की विवेचना कीजिए। |