परिचय:
भारतीय न्यायपालिका को संवैधानिक मूल्यों का संरक्षक और न्याय का अंतिम निर्णायक माना जाता है। फिर भी, यह दुनिया के सबसे भारी मामलों के बोझ तले दबी हुई है। हाल ही में राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) द्वारा जारी नवीनतम आंकड़े इस समस्या की गंभीरता को उजागर करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या 88,417 तक पहुंच गई है, जो अब तक की सर्वाधिक संख्या है, यह स्थिति तब है जब न्यायालय वर्तमान में 34 न्यायाधीशों की अपनी पूर्ण स्वीकृत न्यायिक क्षमता के साथ कार्य कर रहा है।
- मुकदमों के दाखिले और निपटान के बीच का अंतर नया नहीं है, लेकिन महामारी के बाद के वर्षों में यह और अधिक गंभीर हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय अपने पूर्ण स्वीकृत 34 न्यायाधीशों की संख्या के साथ काम कर रहा है और “आंशिक कार्य दिवसों” के दौरान ग्रीष्मकालीन पीठ जैसे उपाय अपनाए हैं, फिर भी लंबित मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। यह दर्शाता है कि सर्वोच्च न्यायालय खुद तेजी से बढ़ती वाद-विवाद की संख्या से जूझ रहा है, जिससे न्याय तक पहुँच, कानून के शासन और न्यायिक प्रशासन की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्न उठते हैं।
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड रिपोर्ट से मुख्य बिंदु:
· अब तक सबसे अधिक लंबित मामले: अगस्त तक, सर्वोच्च न्यायालय में 88,417 मामले लंबित हैं — 69,553 सिविल और 18,864 आपराधिक।
· फाइलिंग बनाम निपटान का अंतर: अगस्त में 7,000 से अधिक नए मामले दर्ज हुए, जबकि 5,667 का निपटान हुआ, निपटान दर 80.04% रही।
· पूर्ण क्षमता के बावजूद बैकलॉग: सर्वोच्च न्यायालय 34 न्यायाधीशों की पूर्ण स्वीकृत संख्या के साथ काम कर रहा है, फिर भी लंबित मामले बढ़ रहे हैं।
· ग्रीष्मकालीन पीठ पहल: प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई ने अदालत की ग्रीष्मकालीन छुट्टियों (जिन्हें आंशिक कार्य दिवस नाम दिया गया) के दौरान पीठों की संख्या बढ़ा दी। 23 मई से जुलाई के बीच 21 पीठों ने काम किया, जिनकी अध्यक्षता प्रारंभ में सीजेआई और पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने की।
· ऐतिहासिक प्रवृत्ति: लंबित मामलों की संख्या मध्य-2023 में भी चरम पर पहुंच गई थी, जब 82,000 से अधिक मामले सुनवाई की प्रतीक्षा में थे। महामारी के बाद, विशेषकर 2023 में समस्या और गंभीर हो गई।
राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG): · 18,735 ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों और सभी उच्च न्यायालयों को कवर करता है। · वास्तविक समय में दर्ज, लंबित और निपटाए गए मामलों को ट्रैक करता है। · तालुका स्तर तक मामले का विवरण उपलब्ध कराता है, जिससे सूक्ष्म स्तर पर विश्लेषण संभव है। · 2025 तक, इसमें 23.81 करोड़ मामलों और 23.02 करोड़ आदेशों/निर्णयों का रिकॉर्ड है। विकास · इसे राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC) ने सर्वोच्च न्यायालय की कंप्यूटर सेल की मदद से विकसित किया। · इसमें प्रवृत्तियों को दर्शाने के लिए एक इंटरएक्टिव एनालिटिक्स डैशबोर्ड है। महत्व · नीति इनपुट: कानूनों और न्यायिक प्रशासन में रुकावटें पहचानता है (जैसे राज्य भूमि रिकॉर्ड से जुड़े बढ़ते भूमि विवाद)। · पारदर्शिता: वादी वास्तविक समय में अपने मामले की स्थिति देख सकते हैं। · जवाबदेही: न्यायाधीश और प्रशासक प्रदर्शन और देरी की निगरानी कर सकते हैं। |
लंबित मामलों के बढ़ने के कारण:
1. सर्वोच्च न्यायालय की विस्तारित भूमिका
o सर्वोच्च न्यायालय को मूल रूप से संवैधानिक अदालत के रूप में डिजाइन किया गया था, जो क़ानून और उसकी व्याख्या पर केंद्रित हो। समय के साथ, यह नियमित अपीलों और विशेष अनुमति याचिकाओं (SLPs) की अदालत बन गया। लगभग 40% मामले SLPs हैं, जो इसके डॉकेट को बढ़ाते हैं और संवैधानिक मामलों के लिए कम समय छोड़ते हैं।
2. न्यायाधीशों की कमी
o भारत में प्रति दस लाख आबादी पर 21 न्यायाधीश हैं, जो विधि आयोग की 50 न्यायाधीशों की अनुशंसा से बहुत कम है।
o न्यायिक रिक्तियां बनी रहती हैं:
§ उच्च न्यायालय: 30–35% पद रिक्त।
§ अधीनस्थ न्यायालय: 20% से अधिक खाली।
o वैश्विक स्तर पर भारत पीछे है: अमेरिका में प्रति दस लाख पर 100+ न्यायाधीश हैं, और यूरोपीय देशों में औसत 50–70 प्रति दस लाख है।
3. प्रक्रियात्मक अक्षमताएं
o स्थगन और बार-बार मामलों का स्थानांतरण निपटान में देरी करता है।
o पुराने कानूनी प्रावधान और अपील की कई परतें मुकदमेबाज़ी को लंबा खींचती हैं।
4. कमज़ोर बुनियादी ढांचा
o कई ज़िला अदालतों में आधुनिक कोर्टरूम, पर्याप्त स्टाफ और भरोसेमंद डिजिटल प्रणालियों का अभाव है।
o प्रति-न्यायाधीश स्टाफ अनुपात भारत में उन्नत देशों की तुलना में बहुत कम है।
5. वैकल्पिक विवाद निपटान (ADR) का अपर्याप्त उपयोग
o मध्यस्थता और पंचाट जैसी प्रणालियाँ अभी भी कम विकसित हैं।
o वाणिज्यिक मामलों में, अदालतें अभी भी उन मामलों का बोझ उठाती हैं जिन्हें अदालत के बाहर सुलझाया जा सकता था।
6. प्रशासनिक देरी
o न्यायिक नियुक्तियों में कोलेजियम–सरकार की लंबी चर्चाओं के कारण देरी।
o पुराने केस प्रबंधन सिस्टम जिनमें डिजिटल प्राथमिकता उपकरण नहीं हैं।
लंबित मामलों से उत्पन्न चुनौतियां:
1. न्याय में देरी
o 2009 की विधि आयोग रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि मौजूदा दरों पर भारत के लंबित मामलों को साफ करने में 464 साल लगेंगे।
o न्याय में देरी से क़ानून के शासन और अदालतों के अधिकार पर विश्वास कम होता है।
2. आर्थिक नुकसान
o कानूनी देरी के कारण अटके हुए कर राजस्व GDP के 4.7% के बराबर हैं।
o लगभग ₹50,000 करोड़ मूल्य की परियोजनाएं विवादों के न सुलझने के कारण रुकी हुई हैं।
o धीमे न्यायिक परिणाम निवेशकों के विश्वास को घटाते हैं और व्यवसाय को हतोत्साहित करते हैं।
3. समाज और शासन पर प्रभाव
o क़ानून के शासन को कमज़ोर करता है, जिससे अपराध के विरुद्ध निवारक शक्ति घटती है।
o प्रति व्यक्ति आय, रोज़गार और गरीबी पर नकारात्मक प्रभाव।
o सार्वजनिक बुनियादी ढांचे और शासन की दक्षता कम होती है।
4. मानवाधिकार संबंधी चिंताएं
o भारतीय जेलें 150% क्षमता पर चल रही हैं, जिनमें अधिकांश कैदी विचाराधीन हैं।
o बिना मुकदमे के लम्बा कारावास अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।
संवैधानिक और न्यायिक प्रतिक्रियाएं:
· अस्थायी न्यायाधीश (अनुच्छेद 224A):
o सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय न्यायाधीशों को राष्ट्रपति की मंज़ूरी से अस्थायी रूप से पुनर्नियुक्त करने की अनुमति।
o लोक प्रहरी बनाम भारत संघ (2021) में पुनर्जीवित, लेकिन केवल तब जब रिक्तियां 20% से अधिक हों।
o ऐतिहासिक रूप से कम इस्तेमाल—2021 से पहले केवल तीन बार।
· कोलेजियम चिंताएं:
o 2023 के प्रस्ताव ने रेखांकित किया कि शीर्ष अदालत “एक भी रिक्ति बर्दाश्त नहीं कर सकती”।
o सभी स्तरों पर तत्काल पदों को भरने का आग्रह किया।
· सर्वोच्च न्यायालय की पहलें:
o ग्रीष्मकालीन पीठ (2025): 21 पीठों ने “आंशिक कार्य दिवसों” में लंबित मामलों को निपटाने के लिए काम किया।
o ई-कोर्ट्स: डिजिटलीकरण, ऑनलाइन फाइलिंग और हाइब्रिड सुनवाई को बढ़ावा।
लंबित मामलों को कम करने के उपाय:
1. लंबित मामलों का त्वरित निपटान
o 10 साल से अधिक पुराने जनहित याचिकाओं का समयबद्ध निपटान।
o नियमित बनाम संवैधानिक मामलों का वर्गीकरण।
2. न्यायिक क्षमता का विस्तार
o सभी रिक्तियों को प्राथमिकता से भरना।
o सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को विशिष्ट श्रेणी के मामलों के लिए नियुक्त करना।
3. ADR और मध्यस्थता
o वाणिज्यिक विवादों में मुकदमेबाज़ी से पहले मध्यस्थता अनिवार्य करना।
o लोक अदालत, पंचाट और सुलह को प्रोत्साहित करना।
4. न्यायालय की उत्पादकता बढ़ाना
o लंबे कार्य दिवस और अवकाश की अवधि कम करना।
o न्यायाधीशों और स्टाफ का प्रदर्शन मूल्यांकन।
5. प्रौद्योगिकी एकीकरण
o AI-आधारित भविष्यवाणी उपकरणों के साथ NJDG का विस्तार।
o ऑनलाइन फाइलिंग, डिजिटल समन और स्वचालित शेड्यूलिंग।
o प्रणालीगत बाधाओं की पहचान के लिए बिग डेटा एनालिटिक्स का उपयोग।
6. कानूनी और प्रशासनिक सुधार
o पुराने कानूनों को निरस्त करना ताकि अनावश्यक मुकदमेबाज़ी कम हो।
o प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने के लिए बिजनेस प्रोसेस रीइंजीनियरिंग (BPR) लागू करना।
निष्कर्ष:
सर्वोच्च न्यायालय और भारतीय अदालतों में लंबित मामलों का संकट न्यायिक सुधार की तत्काल आवश्यकता को उजागर करता है। NJDG, ई-कोर्ट्स और आंशिक कार्य दिवस जैसी पहलों के बावजूद, नए मामलों की संख्या निपटान की दर से अधिक बनी हुई है।
एक बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है:
· न्यायाधीशों की संख्या और बुनियादी ढांचे को मजबूत करना।
· ADR को मुख्यधारा में लाना।
· केस प्रबंधन के लिए तकनीक का उपयोग।
· न्यायिक रिक्तियों को कभी भी खाली न रहने देना।
ऐसे प्रणालीगत हस्तक्षेपों के बिना, भारत को न केवल न्यायिक प्रणाली के ध्वस्त होने का खतरा है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के संवैधानिक वादे के भी कमजोर होने का खतरा है।
यूपीएससी/पीएससी मुख्य प्रश्न: |