होम > Daily-current-affairs

Daily-current-affairs / 27 May 2025

छात्र आत्महत्या और संस्थागत सुधार की तत्काल ज़रूरत

image

 संदर्भ:
भारत में छात्र आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या शिक्षा प्रणाली की गंभीर खामियों को दिखाती है। 23 मई 2025 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान के कोटा शहर में छात्र आत्महत्याओं की बढ़ती घटनाओं पर गहरी चिंता जताई। कोटा एक ऐसा शहर है जहां हज़ारों छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और बहुत ज़्यादा मानसिक दबाव झेलते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार और स्थानीय पुलिस से इस मामले में सवाल पूछे हैं, खासकर ऐसे समय में जब छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर देश में जागरूकता बढ़ रही है। इस चिंता की शुरुआत उस घटना से हुई जब हाल ही में 4 मई को IIT खड़गपुर के एक 22 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या कर लिया। लेकिन यह मामला सिर्फ कोटा या कुछ छात्रों की दुखद मौतों तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश से जुड़ा गंभीर मुद्दा है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

समस्या की गंभीरता
भारत में छात्रों की आत्महत्या की दर दुनिया में सबसे ज़्यादा है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं, सामाजिक अलगाव, पारिवारिक अपेक्षाएं और संस्थागत सहायता की कमी, ये सभी इस गंभीर संकट को और बढ़ा रहे हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, वर्ष 2022 में भारत में 13,044 छात्र आत्महत्या के मामले दर्ज हुए, जो देश में हुई कुल आत्महत्याओं का 7.6% हिस्सा हैं। इनमें से 2,095 आत्महत्याएं परीक्षा में असफलता से जुड़ी थीं जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि छात्र कितने भारी अकादमिक दबाव में हैं।
2014 से 2024 के बीच केवल IITs में ही 100 से अधिक छात्र आत्महत्याएं दर्ज की गईं। वहीं 2025 में अभी तक IIT इंदौर, IIT खड़गपुर और IIM बेंगलुरु से नई घटनाएं सामने आई हैं। अकेले 2025 में अब तक कोटा में 14 छात्रों की आत्महत्या हो चुकी है। ये आंकड़े भले ही चौंकाने वाले हों, लेकिन यह एक व्यापक और लगातार बिगड़ती प्रवृत्ति का हिस्सा हैं।

मूल कारण: सिर्फ शैक्षणिक तनाव नहीं
जातिगत भेदभाव: कई मामलों में यह सामने आया है कि अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के छात्रों के साथ संस्थागत भेदभाव होता है। कई बार पीड़ित छात्रों की शिकायतें या तो अनसुनी रह जाती हैं या सही तरीके से नहीं निपटाई जातीं, जिससे वे खुद को अलग-थलग और बेबस महसूस करते हैं।
सामाजिक और पारिवारिक अपेक्षाएं: छात्र अपने परिवार और समाज के सपनों का बोझ उठाते हैं, जिससे मानसिक दबाव और बढ़ता है।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कलंक (स्टिग्मा): मानसिक बीमारी को लेकर सामाजिक कलंक के कारण छात्र मदद लेने से हिचकते हैं। राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण (2017-18) के 75वें राउंड के डेटा के अनुसार, भारत में मानसिक बीमारी की स्वयं रिपोर्टिंग 1% से भी कम है, जबकि युवाओं में तनाव के लक्षण लगातार बढ़ रहे हैं।
असफलता का डर और फोमो (FOMO): आज के छात्र सिर्फ अकादमिक दबाव ही नहीं, बल्कि Fear of Missing Out (FOMO) और साथियों से तुलना के मानसिक तनाव से भी जूझ रहे हैं।
संस्थागत अलगाव: कमजोर या कम अंक लाने वाले छात्रों को अक्सर विशेष कक्षाओं या अनुशासनात्मक तरीकों से अलग किया जाता है, जिससे वे और अधिक सामाजिक रूप से अलग-थलग हो जाते हैं।

मौजूदा उपायों की सीमाएं
इस संकट से निपटने के लिए कई प्रयास किए गए हैं, जैसे काउंसलिंग सेवाएं, पूरक (रिमेडियल) कक्षाएं, शैक्षणिक बोझ कम करना और शिकायत निवारण तंत्र। लेकिन इन उपायों का प्रभाव सीमित रहा है, और कई बार यह उपाय गलत ढंग से लागू होने के कारण नुकसानदेह साबित होते हैं:
काउंसलिंग की कमी: सामान्य समय में काउंसलिंग उपयोगी होती है, लेकिन जब छात्रों का मानसिक स्वास्थ्य गंभीर संकट में होता है, तब ये सेवाएं अक्सर पर्याप्त नहीं होतीं। संस्थाएं अक्सर प्रतिक्रिया देने में देर करती हैं, जबकि ज़रूरत पहले से तैयारी करने की होती है।
शिकायत-आधारित भेदभाव विरोधी तंत्र: ये प्रणाली अक्सर पीड़ितों को सामने आने से रोकती हैं, क्योंकि उन्हें बदले की कार्रवाई, न्याय में देरी या उपेक्षा का डर रहता है। IIT खड़गपुर में 2024 में हुए एक दुखद मामले में, एक छात्र ने शिकायत दर्ज कराई थी और बाद में मृत पाया गया। जांच में यह हत्या साबित हुई, आत्महत्या नहीं जिससे संस्थागत निष्क्रियता पर गंभीर सवाल उठे।
नकारात्मक रिमेडियल सहायता: कम अंक लाने वाले छात्रों को अलग रिमेडियल प्रोग्राम में डालना उन्हें "कमज़ोर" के रूप में चिन्हित कर देता है, जिससे वे खुद को हीन समझने लगते हैं और मानसिक रूप से और अलग-थलग हो जाते हैं।

संस्थागत विफलताएं और सुधार की आवश्यकता
इस संकट की गंभीरता को स्वीकार करते हुए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय और स्वयं भारत के राष्ट्रपति ने मानवीय और संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया है। जनवरी 2025 में, सर्वोच्च न्यायालय ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) को सभी विश्वविद्यालयों में समान अवसर प्रकोष्ठों (Equal Opportunity Cells) की विस्तृत जानकारी एकत्र करने का निर्देश दिया, ताकि नीतियां तथ्यों और आंकड़ों के आधार पर बनाई जा सकें।
IIT परिषद जैसी संस्थाओं ने नए दिशा-निर्देशों का प्रस्ताव दिया है, और UGC ने शिकायत निवारण समितियों में संवेदनशील वर्गों के प्रतिनिधित्व को अनिवार्य किया है। हालांकि, इन सुधारों का क्रियान्वयन असमान है और इनका प्रभाव अभी स्पष्ट नहीं है।

सुधार की दिशा में एक नई सोच: मूल सिद्धांत

1.        प्रारंभिक पहचान और लचीला मूल्यांकन
संस्थानों को छात्रों की समस्या को केवल परीक्षा के बाद पहचानने के बजाय, पहले से ही ऐसे चेतावनी संकेतों की निगरानी करनी चाहिए, जैसे अकेले रहना, अनुपस्थिति और प्रदर्शन में गिरावट।
छात्रों की विविध शैक्षणिक ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए, विभिन्न स्तरों की कठिनाई वाले असाइनमेंट जैसे लचीले मूल्यांकन विकल्प दिए जाने चाहिए। इससे शैक्षणिक सख्ती बनाए रखते हुए लचीलापन आएगा।

2.      कलंक खत्म करें और समावेशन को मजबूत करें
कमजोर छात्रों के लिए बनाए गए सहायता कार्यक्रमों को ऐसे तरीके से दोबारा डिज़ाइन किया जाए कि वे छात्रों को अलग-थलग न करें। ऐसी सहायता मुख्य पाठ्यक्रम में एकीकृत होनी चाहिए, न कि अलग चिह्नित की गई।
शिकायत आधारित व्यवस्था को सक्रिय समावेशी रणनीतियों से बदला जाए जो विश्वास पैदा करें और बदले की आशंका को कम करें।

3.      पहचान को प्रवेश से अलग करें
प्रवेश के बाद, जाति या समुदाय की पहचान को आंतरिक अकादमिक रिकॉर्ड से हटाया जाए ताकि पूर्वग्रह को बढ़ावा न मिले। सामाजिक न्याय के लिए कानूनी सुरक्षा होनी चाहिए, लेकिन अकादमिक मूल्यांकन में गुमनामी (anonymity) भी जरूरी है।

4.     सामूहिक मानसिक स्वास्थ्य मॉडल
परिसरों में सामुदायिक जीवन और साथियों के सहयोग को बढ़ावा दिया जाए। समूह में रहना और साझा जिम्मेदारियां निभाना अकेलेपन को दूर कर सकती हैं और भावनात्मक स्वास्थ्य को मजबूत कर सकती हैं।
प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग को बढ़ावा दिया जाए जिससे अपनापन, सहानुभूति और मानसिक सहनशीलता को बढ़ावा मिले।

5.      पारदर्शी और स्वतंत्र शिकायत निवारण तंत्र
शिकायतों के लिए तेज, ऑनलाइन और किसी तीसरे पक्ष द्वारा संचालित व्यवस्था बनाई जाए, जिसमें शिकायतकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो। इससे निष्पक्षता बनी रहती है और संस्थागत हितों के टकराव से बचा जा सकता है।

निष्कर्ष
भारत में छात्रों की आत्महत्या का संकट केवल मानसिक स्वास्थ्य की समस्या नहीं है यह इस बात का संकेत है कि हमारी शैक्षणिक संस्थाएं विविधता, संवेदनशीलता और भिन्नता को स्वीकार नहीं कर पा रही हैं। समाधान तभी संभव है जब हम उच्च शिक्षा को ऐसा स्थान बनाएँ जहाँ बहिष्करण की बजाय समावेश, निगरानी की बजाय सहयोग और प्रतियोगिता की बजाय मानसिक कल्याण को प्राथमिकता दी जाए।
सिर्फ औपचारिक सुधारों से समाधान नहीं होगा, इसके लिए सांस्कृतिक बदलाव, प्रणालीगत पुनर्रचना और संस्थागत जवाबदेही जरूरी है। कोई भी शैक्षणिक सफलता किसी छात्र के जीवन से बढ़कर नहीं हो सकती।

मुख्य प्रश्न: भारत में छात्रों के सामने आने वाली मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों से निपटने में न्यायपालिका की भूमिका की जाँच करें। हाल की जनहित याचिकाओं और अदालती हस्तक्षेपों के आलोक में, शैक्षिक संस्थानों में सुधार लाने में न्यायिक निगरानी की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करें। (250 शब्द)