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Daily-current-affairs / 28 Aug 2023

भारत में राजकोषीय संघवाद की पुनर्कल्पना: चुनौतियों का समाधान और समानता - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख (Date): 29-08-2023

प्रासंगिकता:

  • जीएस पेपर 2 - राजनीति
  • जीएस पेपर 3: भारतीय अर्थव्यवस्था

कीवर्ड: राजकोषीय संघवाद, ऑफ-बजट उधार, जीएसटी, एफआरबीएम

सन्दर्भ:

एकात्मक सिद्धांतों की ओर झुकाव वाला एकीकृत भारतीय संघ, स्थायित्व के साथ दशकों से भारतीय संघवाद और राजकोषीय संघवाद को गतिमान बननाए हुए है। परन्तु नियोजित अर्थव्यवस्था से बाजार आधारित प्रणाली में बदलाव के साथ शुरुआत करते हुए, ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका भारत के राजकोषीय संघवाद पर अलग-अलग प्रभाव पड़ रहा है जिनकी समीक्षा की नितांत आवश्यकता है।

संघवाद

संघवाद सरकार की एक प्रणाली है जिसमें एक ही क्षेत्र, सरकार के दो स्तरों द्वारा नियंत्रित होता है। सामान्यता , एक व्यापक राष्ट्रीय सरकार राष्टीय स्तर पर शासन के लिए जिम्मेदार होती है, जबकि इकाइयां , राज्य और शहर स्थानीय चिंता के मुद्दों को नियंत्रित करती हैं।

राजकोषीय संघवाद

  • राजकोषीय संघवाद को संघीय शासन प्रणाली में सरकारों की इकाइयों के बीच वित्तीय संबंधों के रूप में परिभाषित किया गया है। राजकोषीय संघवाद व्यापक सार्वजनिक वित्त अनुशासन का हिस्सा है।
  • वैलेस ई. ओक्स ने 1999 में इसे इस रूप में परिभाषित किया, "राजकोषीय संघवाद का संबंध यह समझने से है कि कौन से कार्य और उपकरण सबसे अच्छे केंद्रीकृत हैं और जिन्हें सरकार के विकेंद्रीकृत स्तरों के क्षेत्र में सबसे अच्छी स्थिति में रखा गया है। यह अवधारणा सरकार के सभी रूपों पर लागू होती है: एकात्मक, संघीय और सह- संघीय राजकोषीय संघवाद सरकार के स्तरों के बीच सरकारी कार्यों और वित्तीय संबंधों के विभाजन से संबंधित है ।
  • राजकोषीय संघवाद का सिद्धांत मानता है कि संघीय प्रणाली आज की सरकारों के सामने आने वाली समस्याओं को हल करने में कुशल और प्रभावी हो सकती है, जैसे कि आय का वितरण, संसाधनों का कुशल और प्रभावी आवंटन, और आर्थिक स्थिरता । इन समस्याओं से निपटने में लचीलेपन के कारण संघीय सरकार द्वारा आर्थिक स्थिरता और आय का वितरण किया जा सकता है।
  • सार रूप में ,राजकोषीय संघवाद से तात्पर्य केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय संबंधों से है। यह इस बात पर ध्यान केंद्रित करता है कि सरकारी प्रशासन की विभिन्न ऊर्ध्वाधर परतों में व्यय और राजस्व कैसे आवंटित किया जाता है।

राजकोषीय दृष्टिकोण से, भारत की संघीय प्रणाली के तीन महत्वपूर्ण घटक हैं:

  • संविधान के अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि भारत, राज्यों का एक संघ होगा;
  • संविधान की सातवीं अनुसूची विभिन्न सूचियों के तहत एक संघ और राज्यों को अतिव्यापी कार्यों के साथ कार्य आवंटित करती है जो अलग सूची में निहित है; और
  • संविधान के अनुच्छेद 280 में शुद्ध केंद्रीय करों और विभिन्न अन्य अनुदानों के ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज पुनर्वितरण की सिफारिश करने के लिए हर पांच साल में वित्त आयोग का गठन अनिवार्य है।

भारत के राजकोषीय संघवाद पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता के पक्ष में तर्क

विकसित राजकोषीय परिदृश्य

केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए कुछ विकल्पों और कार्यों ने राजकोषीय परिदृश्य को नया आकार दिया है, जिसमें शामिल हैं:

  • नियोजित अर्थव्यवस्था से बाज़ार-संचालित आर्थिक संरचना की तरफ तीव्र झुकाव ।
  • 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन के बाद दो-स्तरीय महासंघ से बहु-स्तरीय राजकोषीय ढांचे का विकास।
  • योजना आयोग को प्रतिस्थापित करके नीति आयोग की स्थापना करना।
  • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम का अधिनियमन।
  • माल और सेवा (जीएसटी) अधिनियम को लागू करना, जिसका नियंत्रण जीएसटी परिषद के पास है।
  • उपकर और अधिभार पर बढ़ती निर्भरता, विभाज्य पूल के आकार को प्रभावित कर रही है।
  • साथ ही केन्द्र सरकार के पास राज्य सरकारों की तुलना में कर से ज्यादा आय होती है, जिससे उसके पास वित्तीय शक्ति का संकेन्द्रण होता है लेकिन उनकी जवाबदेहिता कम होती है। उदाहरण के तौर पर केंद्र सरकार कुल करों का लगभग 60% एकत्र करती है, जबकि इसकी व्यय जिम्मेदारी (रक्षा, आदि के रूप में संवैधानिक रूप से अनिवार्य जिम्मेदारी निभाने के लिए) कुल सार्वजनिक व्यय का केवल 40% ही है।

अंतरसरकारी राजकोषीय संबंधों की जटिल प्रणाली

  • यह जटिलता कई स्रोतों से उत्पन्न होती है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में जातीयता, सामाजिक गतिशीलता और आर्थिक स्थितियों में उल्लेखनीय असमानताएं शामिल हैं।
  • राज्य सरकारों के व्यय और राजस्व-सृजन की जिम्मेदारियों के बीच निरंतर ऊर्ध्वाधर असंतुलन इस मुद्दे को बढ़ावा देते हैं।
  • यद्यपि यह असंतुलन आंशिक रूप से राजस्व-साझाकरण समझौतों द्वारा कम किया गया है। राज्यों को केंद्र सरकार से विविध अनुदान भी मिलते हैं, फिर भी घाटा बना रहता है।
  • इन कारकों को देखते हुए, केंद्रीय योजना से दूर अर्थव्यवस्था की संरचना को बदलने की दिशा में स्पष्ट बदलाव और राजकोषीय स्वतंत्रता के लिए राज्यों की बढ़ती मांगों के साथ, एक व्यापक पुनर्मूल्यांकन अनिवार्य हो जाता है।

भारत की राजकोषीय संघवाद की चुनौतियों से निपटने के दृष्टिकोण

न्यायसंगत अंतरसरकारी स्थानांतरण

1930 के दशक में, भारत में शीर्ष 1% आय अर्जित करने वालों के पास कुल आय का 21% से कम था, जिसमें 1980 के दशक की शुरुआत में 6% की उल्लेखनीय गिरावट देखी गई, लेकिन आर्थिक उदारीकरण के युग के दौरान यह बढ़कर 22% हो गई। इसके अतिरिक्त, कर छूट और रियायतों का अधिकांश लाभ समृद्ध जनसंख्या को प्राप्त हुआ , जिसके परिणामस्वरूप विभाज्य पूल का आकार छोटा हो गया। इसे सुधारने के लिए, भारत की अंतरसरकारी हस्तांतरण प्रणाली को वंचित वर्गों की प्राथमिकता के आधार पर संचालित करना चाहिए ।

क्षैतिज वितरण में एचडीआई को शामिल करें (राज्यों के बीच आवंटन)

1970-71 से 2020-21 तक 16 प्रमुख राज्यों के बीच प्रति व्यक्ति आय (पीसीआई) के अभिसरण प्रक्षेप पथ का विश्लेषण बढ़ते विचलन को दर्शाता है। इसके विपरीत, 15 राज्यों के बीच मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) सुधार के बाद के युग में अभिसरण प्रदर्शित करता है, एचडीआई का मानक विचलन 1991 में 0.611 से घटकर 2018 में 0.268 हो गया है, नतीजतन, कर हस्तांतरण के क्षैतिज आवंटन में एचडीआई को एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है।

प्राधिकारों के सटीक विभाजन के लिए अनुच्छेद 246 का पुनर्मूल्यांकन करना

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 और 7वीं अनुसूची संघ और राज्यों के मध्य शक्तियाँ एवं विषयों को आवंटित करते हैं, जिन्हें संघ, राज्य और समवर्ती सूचियों के अंतर्गत वर्गीकृत किया गया है। स्वतंत्रता के बाद भारत के एकल-दलीय शासन से बहुदलीय प्रणाली में परिवर्तन को देखते हुए, और राजनीति, समाज, प्रौद्योगिकी, जनसांख्यिकी और विकास प्रतिमानों में बदलाव पर विचार करते हुए, प्राधिकरण का स्पष्ट सीमांकन आवश्यक हो जाता है। मनरेगा 2005, शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 जैसे उदाहरण राज्यों पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं, जो स्पष्ट शक्ति विभाजन की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं।

सहायकता सिद्धांत लागू करें

संविधान-निर्माण के दौरान अपनाया गया सहायकता का सिद्धांत जिसे स्वतंत्र भारत में सबसे उपयुक्त स्तर पर कार्य करना था उसे समग्र रूप से लागू नहीं किया गया था। परन्तु बाद के दशको में इस सिद्धांत को 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन द्वारा लागू किया गया, लेकिन यहां भी इसे पूरी तरह से उपयोग नहीं किया गया । क्योंकि अनुसूची XI और अनुसूची XII की शुरूआत ने केवल राज्य सूची और समवर्ती सूचियों से प्रावधान उधार लेकर उन्हें परिचालन गतिविधियों में विभाजित किए बिना ही शामिल कर लिया, जिससे अधिक जटिलता उत्पन्न हुई । इस सन्दर्भ में केरल एक उदाहरण है, जिसने इन सूचियों को गतिविधियों और उप-गतिविधियों में सफलतापूर्वक विभाजित करके, एक मॉडल के रूप स्थापित किया है।

तृतीय स्तर पर स्थित 'स्वशासन की संस्थाओं’ को मजबूत करना

संविधान तीसरे स्तर को 'स्वशासन की संस्थाओं' के रूप में संदर्भित करता है, जबकि इसके लिए नीति निर्माताओं द्वारा 'स्थानीय निकाय' शब्द का उपयोग अधिक किया जाता है, जो अक्सर उनके महत्व को कम करता है। इससे भारत की स्थानीय लोकतांत्रिक नींव के विकास में बाधा उत्पन्न हुई है, जबकि इसमें 3.2 मिलियन से अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि और 2.5 लाख ग्रामीण और शहरी स्थानीय सरकारें शामिल हैं। वास्तव में नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण बुनियादी सेवाएँ प्रदान करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है।

ऑफ-बजट उधार प्रथाओं की समीक्षा करें

केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की ऑफ-बजट उधार लेने की प्रथाओं का पुनर्मूल्यांकन करना आवश्यक है। ये उधार, बजट में शामिल नहीं हैं लेकिन इसके प्रति जवाबदेह हैं, इनमें जांच और रिपोर्टिंग का अभाव है। जबकि अनुच्छेद 293(3) और एफआरबीएम अधिनियम राज्य उधारों को विनियमित करने में मदद करते हैं, संघ अक्सर ऐसे नियंत्रणों से बचते हैं। ऑफ-बजट वित्तपोषण में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना सरकार के दोनों स्तरों के लिए महत्वपूर्ण है।

ऑफ-बजट उधार क्या हैं?

ऑफ-बजट उधार वे ऋण हैं जो सीधे केंद्र द्वारा नहीं लिए जाते हैं, बल्कि केंद्र सरकार के निर्देशों पर एक अन्य सार्वजनिक संस्थान द्वारा लिया जाता

  • ऐसी उधारी का उपयोग सरकार की व्यय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए किया जाता है।
  • लेकिन चूंकि ऋण की देनदारी औपचारिक रूप से केंद्र पर नहीं है, इसलिए ऋण को राष्ट्रीय राजकोषीय घाटे में शामिल नहीं किया गया है।
  • इससे देश के राजकोषीय घाटे को स्वीकार्य सीमा के भीतर रखने में मदद मिलती है।

अतिरिक्त-बजटीय वित्तपोषण में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना

केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और मंत्रालयों के अतिरिक्त-बजटीय वित्तपोषण के लिए राष्ट्रीय लघु बचत कोष (एनएसएसएफ) का पर्याप्त उपयोग, ऋण के माध्यम से किया जाता है, जो संघ के राजकोषीय घाटे की गणना में शामिल नहीं होता है। मौजूदा गणना में एनएसएसएफ जैसी वस्तुओं को छोड़कर केवल भारत की समेकित निधि का शेष शामिल है। पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही को कायम रखने के लिए संघ, राज्यों और स्थानीय सरकारों द्वारा सभी अतिरिक्त-बजटीय लेनदेन का पूर्ण प्रकटीकरण आवश्यक है।

निष्कर्ष

भारत में राजकोषीय संघवाद का वर्त्तमान ढांचा उस अवधि के दौरान स्थापित किया गया था जब इसकी अर्थव्यवस्था आज की तुलना में कम बाजार-संचालित थी। उस समय के दौरान, केंद्र सरकार के पास आर्थिक विनियमन, प्रशासन और योजना में पर्याप्त अधिकार थे।

हालाँकि, भारत में राजकोषीय संघवाद की विकसित प्रकृति और बदलती गतिशीलता को देखते हुए, विशेष रूप से 16वें वित्त आयोग के आसपास के घटनाक्रमों के आलोक में, पर्याप्त पुनर्विचार करना अनिवार्य हो गया है।

मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  • प्रश्न 1: भारत में राजकोषीय संघवाद की अवधारणा की व्याख्या करें और उन कारकों को स्पष्ट कीजियेजिनके लिए वर्तमान आर्थिक संदर्भ में इसके ढांचे के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। अपने तर्कों के समर्थन में उदाहरण भी दीजिये। (10 अंक, 150 शब्द)
  • प्रश्न 2: भारत में राजकोषीय संघवाद की चुनौतियों के समाधान के लिए प्रस्तावित दृष्टिकोण का मूल्यांकन कीजिये। मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) का एकीकरण राज्यों के बीच संसाधनों के उचित वितरण में कैसे योगदान दे सकता है? उपयुक्त उदाहरणों के साथ अपनी बात स्पष्ट करें। (15 अंक, 250 शब्द)

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