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Daily-current-affairs / 08 Sep 2025

"प्राकृतिक आपदा से मानवीय त्रासदी तक : बाढ़ और नीतिगत सबक"

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परिचय:

पंजाब, जिसे अक्सर भारत का अन्न भंडार कहा जाता है, लगभग चार दशकों में आई सबसे भीषण बाढ़ की चपेट में है। करीब चार लाख लोग प्रभावित हुए हैं, 48 लोगों की मौत हो चुकी है और 2,000 से अधिक गाँव डूब चुके हैं। अनुमानित आर्थिक क्षति ₹13,000 करोड़ से अधिक हो गई है, जबकि कटाई से ठीक कुछ सप्ताह पहले 1.72 लाख हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसलें नष्ट हो गई हैं। पशुधन की मौत, ग्रामीण बुनियादी ढाँचे का ढहना और घरों का नुकसान स्थिति को और भी गंभीर बना रहा है।

    • यह आपदा पंजाब की दोहरी कमजोरियों को उजागर करती है। जहाँ अत्यधिक वर्षा और नदियों का उफान तात्कालिक कारण थे, वहीं अनियंत्रित मानवीय गतिविधियाँ, खराब नियोजन और संस्थागत तैयारी की कमजोरी ने क्षति के पैमाने को कहीं अधिक बढ़ा दिया।

मौसम संबंधी कारक और जलवायु परिवर्तन की भूमिका:

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार पंजाब ने 24 जून से सितंबर की शुरुआत तक 591.8 मिमी वर्षा प्राप्त की जो सामान्य से 53% अधिक है। इस वर्षा का अधिकांश भाग अचानक और उच्च-तीव्रता वाले वर्षा से आया। साथ ही, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में भारी वर्षा ने सतलज, ब्यास और रावी नदियों में जलस्तर बढ़ा दिया, जिसके कारण पंजाब में बड़े पैमाने पर बाढ़ आई।

इस वर्ष की बाढ़ मॉनसून के बदलते स्वरूप को रेखांकित करती है। जो कभी कृषि के लिए स्थिर और पूर्वानुमेय मानी जाती थी, वह अब अधिक अस्थिर, असमान और विनाशकारी बन गई है। जलवायु वैज्ञानिक संकेत करते हैं:

    • वैश्विक तापवृद्धि ने वायुमंडलीय नमी बढ़ाकर वर्षा को और तीव्र बना दिया है।
    • अरब सागर के असामान्य ऊष्मीकरण ने मॉनसून पवनों में अधिक नमी जोड़ दी है।
    • उत्तरी भारत में बादल फटने और अल्पावधि में तीव्र वर्षा की घटनाएँ अधिक बार घट रही हैं।

ये प्रवृत्तियाँ दक्षिण एशिया पर जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभाव का हिस्सा हैं। आईपीसीसी (IPCC) की रिपोर्टों ने बार-बार चेतावनी दी है कि चरम वर्षा की घटनाएँ आवृत्ति और तीव्रता में बढ़ेंगी और भारत के हिमालयी एवं उप-हिमालयी क्षेत्र विशेष रूप से असुरक्षित हैं।

मानव-निर्मित कमजोरियाँ:

प्राकृतिक आपदाएँ अक्सर मानवीय कार्रवाइयों से और भी गंभीर हो जाती हैं। पंजाब में कई कारणों ने एक भारी वर्षा की घटना को व्यापक आपदा में बदल दिया:

1.        अतिक्रमण और अवरुद्ध जल निकासी
प्राकृतिक जल निकासी प्रणालियों पर बस्तियाँ और सड़कें बना दी गई हैं। जो बाढ़भूमि कभी अतिरिक्त जल को सोख लेती थी, वह अब घरों, बाजारों और उद्योगों से घिर गई है। परिणामस्वरूप, पानी के पास स्वाभाविक निकास का मार्ग नहीं बचा।

2.      अनियंत्रित रेत खनन
व्यापक और अवैध रेत खनन ने तटबंधों को कमजोर किया है, नदी तल को बदला है और नदियों को अपना मार्ग बदलने के लिए अधिक संवेदनशील बना दिया है। इससे अपरदन बढ़ता है और नदी की बाढ़ वहन क्षमता घट जाती है।

3.      बांध और जलाशय कुप्रबंधन
पंजाब सतलज, ब्यास और रावी के प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भाखड़ा, पोंग और रणजीत सागर जैसे जलाशयों पर निर्भर करता है। किंतु भारी वर्षा का पूर्वानुमान होने के बावजूद जलाशयों को लगभग पूर्ण क्षमता पर बनाए रखा गया। इनसे अचानक जल छोड़ने ने पंजाब में बाढ़ को और गंभीर बना दिया। विशेषज्ञ इसे जोखिम-आधारित जल प्रबंधन की विफलता मानते हैं।

4.     निवारक कार्यों की उपेक्षा
2024 की बाढ़ तैयारी पुस्तिका होने के बावजूद, नहरों की सफाई, जल निकासी चैनलों को साफ करने और तटबंधों को मजबूत करने जैसे बुनियादी कार्य अधूरे छोड़ दिए गए। इस उपेक्षा ने सीधे तौर पर आपदा की तीव्रता को बढ़ाया।

5.      खतरनाक क्षेत्रों में निर्माण
सड़कों, घरों और वाणिज्यिक इमारतों का निर्माण नदी तटों और निचले क्षेत्रों में हुआ है। इन विकास गतिविधियों ने जल के प्राकृतिक प्रवाह को रोका, अवशोषण क्षमता घटाई और लोगों को उच्च जोखिम में डाल दिया।

पंजाब के लिए बाढ़ नई नहीं है। राज्य ने 2004, 2008, 2010, 2013, 2019 और 2023 में बड़ी बाढ़ों का अनुभव किया है। विशेषकर 1988 की बाढ़ में 500 से अधिक लोगों की जान गई और अभूतपूर्व क्षति हुई।

फिर भी, इन अनुभवों के बावजूद निवारक कदम टुकड़ों में और असंगत रूप से उठाए गए। अतिक्रमण जारी रहा, खनन ढीली निगरानी में रहा और तटबंध समय के साथ कमजोर होते गए। 2025 की बाढ़ इन अनसुलझी कमजोरियों का संचयी प्रभाव दिखाती है।

मानवीय और आर्थिक प्रभाव:

मानवीय क्षति

    • 22,000 से अधिक लोग निकाले गए; हजारों बेघर हो गए।
    • स्कूल, सामुदायिक हॉल और अस्थायी तंबुओं को आश्रयों में बदला गया।
    • बचे हुए लोग खाद्य संकट, खराब स्वच्छता और बीमारियों के बढ़ते जोखिम का सामना कर रहे हैं।
    • राहत शिविरों में महिलाएँ, बच्चे और बुजुर्ग अतिरिक्त असुरक्षा का सामना कर रहे हैं।

कृषि संकट

    • 4 लाख एकड़ से अधिक कृषि भूमि डूब गई।
    • धान, बासमती, मक्का, गन्ना, गेहूँ और कपास की फसलें नष्ट हो गईं।
    • किसानों को न केवल खड़ी फसल का नुकसान हुआ बल्कि गाद जमाव और अपरदन से भूमि की उर्वरता भी प्रभावित हुई।
    • जो फसलें बची हैं, वे भी कम कीमत पर बिक सकती हैं, जिससे आर्थिक दबाव और बढ़ेगा।
    • खाद्य सुरक्षा पर असर पड़ेगा क्योंकि पंजाब सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के लिए चावल और गेहूँ का प्रमुख आपूर्तिकर्ता है।

बुनियादी ढाँचा क्षति

    • सैकड़ों गाँवों में सड़कें, पुल और बिजली आपूर्ति नेटवर्क क्षतिग्रस्त हुए।
    • परिवहन बाधित होने से कृषि और उद्योग दोनों की आपूर्ति शृंखलाएँ प्रभावित हुईं।
    • औद्योगिक शहरों जैसे लुधियाना में शहरी बाढ़ ने माल और मशीनरी को नुकसान पहुँचाया।

सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम

    • हैजा, टाइफॉयड और हेपेटाइटिस-ए जैसी जलजनित बीमारियाँ फैल सकती हैं।
    • स्थिर जल के कारण डेंगू और मलेरिया जैसी वेक्टर जनित बीमारियाँ बढ़ सकती हैं।
    • लुधियाना में प्रदूषित बुड्ढा दरिया के उफान ने काली बाढ़की स्थिति पैदा कर दी, जहाँ विषाक्त औद्योगिक अपशिष्ट बाढ़ के पानी से मिलकर दीर्घकालिक पर्यावरणीय प्रदूषण का कारण बने।

पारिस्थितिक आयाम:

बाढ़ ने पारिस्थितिक संतुलन को भी क्षति पहुँचाई है:

    • वनों की कटाई ने ढाल की स्थिरता और जल अवशोषण को घटा दिया है।
    • आर्द्रभूमियों पर अतिक्रमण ने प्राकृतिक बाढ़ कुशन को समाप्त कर दिया है।
    • वन्यजीव आवास और पारिस्थितिकी गलियारे बाधित हुए हैं।
    • मृदा अपरदन और भूमि क्षरण आने वाले वर्षों तक कृषि को प्रभावित करेगा।

हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र स्वभावतः ही नाजुक है। ऊपरी राज्यों में लापरवाह विकास का असर नीचे बहते पंजाब पर भी पड़ता है।

अंतरराष्ट्रीय मॉडलों से सीख:

    • जापान: सख्त ज़ोनिंग कानून और उन्नत प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली का उपयोग करता है जिससे लोग बाढ़-प्रवण क्षेत्रों से दूर रहते हैं।
    • नीदरलैंड्स: जलाशय-स्तरीय नियोजन और बड़े पैमाने पर बाँध (डाइक) प्रणालियों पर निर्भर करता है।
    • भूटान: हिमनद झील फटने से उत्पन्न बाढ़ के लिए सामुदायिक स्तर की तैयारी करता है।

भारत इन प्रथाओं को स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल सकता हैविशेषकर पंजाब और हिमालयी तलहटी जैसे बाढ़-प्रवण क्षेत्रों में।

आगे की राह:

1.        तैयारी को मजबूत करना

o    वास्तविक समय मौसम पूर्वानुमान और गाँव-स्तरीय चेतावनियों का विस्तार।

o    समुदायों के लिए नियमित मॉक ड्रिल आयोजित करना।

2.      पारिस्थितिक-संवेदनशील विकास

o    बाढ़भूमियों में निर्माण पर प्रतिबंध लागू करना।

o    नए परियोजनाओं से पहले धारण-क्षमता अध्ययन करना।

o    वनस्पति आधारित ढाल स्थिरीकरण को बढ़ावा देना।

3.      बेहतर जल प्रबंधन

o    राज्यों के बीच एकीकृत नदी बेसिन नियोजन।

o    आर्द्रभूमियों और पारंपरिक जल प्रणालियों का पुनर्जीवन।

o    भविष्यवाणी आधारित जल छोड़ने की अनुसूची के साथ स्मार्ट बांध प्रबंधन।

4.     कृषि अनुकूलन

o    जलवायु-सहिष्णु फसलों को बढ़ावा देना।

o    जल-गहन एकल फसलों से हटकर विविधीकरण करना।

o    प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत बीमा कवरेज का विस्तार।

5.      संस्थागत सुधार

o    राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) को मजबूत करना और पंचायतों जैसी स्थानीय संस्थाओं को सशक्त करना।

o    राज्य विकास योजनाओं में जलवायु अनुकूलन को एकीकृत करना।

o    तटबंध रखरखाव के लिए समुदाय-सरकार साझेदारी को प्रोत्साहित करना।

निष्कर्ष:

पंजाब की बाढ़ ये प्रदर्शित करती है कि आपदाएँ अब केवल प्राकृतिक नहीं रह गई हैं, ये मानवीय निर्णयों, कमजोर शासन और जलवायु परिवर्तन से और गंभीर हो रही हैं। भविष्य एक बुनियादी बदलाव, आपातकालीन राहत से निवारक नियोजन की ओर, अल्पकालिक राजनीतिक दोषारोपण से दीर्घकालिक संस्थागत सुधारों की ओर और लापरवाह विकास से पारिस्थितिक-संवेदनशील वृद्धि की ओर की माँग करती है। जब तक मूल कारणोंजलवायु असुरक्षा, खराब जल प्रबंधन और पर्यावरणीय उपेक्षाको संबोधित नहीं किया जाता, ऐसी त्रासदियाँ बार-बार होती रहेंगी। यह बाढ़ केवल एक चेतावनी नहीं है; यह एक अधिक लचीले, जलवायु-अनुकूल भविष्य के निर्माण का अवसर है।

यूपीएससी/यूपीपीएससी मुख्य प्रश्न: उत्तर-पश्चिमी भारत में बाढ़ की आवृत्ति और तीव्रता को बढ़ाने में हिमालयी जल विज्ञान और बदलते मानसून पैटर्न की भूमिका का परीक्षण करें।