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Daily-current-affairs / 04 Sep 2025

"अल्पसंख्यक अधिकार और सार्वभौमिक शिक्षा : सुप्रीम कोर्ट का नया दृष्टिकोण"

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परिचय:

शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009, संविधान के अनुच्छेद 21क को कार्यान्वित करने और 6–14 वर्ष की आयु के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की गारंटी देने के लिए अधिनियमित किया गया था। इसका दृष्टिकोण समानता, समावेशन और शिक्षा को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार मानने की अवधारणा पर आधारित था। हालाँकि, 2014 में प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने अल्पसंख्यक संस्थानोंचाहे वे अनुदानित हों या गैर-अनुदानितको व्यापक छूट प्रदान की। इसका अर्थ यह हुआ कि वे वंचित बच्चों के लिए 25% सीट आरक्षित करने अथवा समान मानकों का पालन करने जैसी प्रावधानों के लिए बाध्य नहीं थे।

    • हाल ही में, सितंबर 2025 में, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की अध्यक्षता वाली दो-न्यायाधीशों की पीठ ने यह प्रश्न उठाया कि क्या अल्पसंख्यक विद्यालयों को शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) का पालन करना होगा। पीठ ने माना कि हो सकता है 2014 की छूट ने सार्वभौमिक शिक्षा की भावना को कमजोर किया हो और इस मामले को बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया। यह विकास बाल अधिकारों, अल्पसंख्यक स्वायत्तता और समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने की राज्य की जिम्मेदारी के अंतर्संबंध पर बहस को पुनः जीवित करता है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 
शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम अनुच्छेद 21क को प्रभावी करता है, जो 6 से 14 वर्ष के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की गारंटी देता है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं:

    • सरकारी विद्यालयों में सभी नामांकित बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा।
    • निजी गैर-अनुदानित विद्यालयों में प्रवेश स्तर पर वंचित वर्गों के बच्चों के लिए 25% सीटों का आरक्षण, जिसका प्रतिपूर्ति राज्य द्वारा किया जाता है।
    • अनुदानित विद्यालयों पर उतनी ही अनुपात में निःशुल्क सीटें उपलब्ध कराने की बाध्यता जितना अनुदान उन्हें प्राप्त होता है।
    • छात्र-शिक्षक अनुपात, शिक्षक की योग्यताएँ, आधारभूत संरचना संबंधी मानक तय करना तथा कैपिटेशन शुल्क और शारीरिक दंड जैसी प्रथाओं पर प्रतिबंध।

यह अधिनियम सभी विद्यालयों को सार्वभौमिक शिक्षा में योगदान के लिए उत्तरदायी बनाने हेतु तैयार किया गया था, जो संस्था-केंद्रित के बजाय बाल-केंद्रित दर्शन को दर्शाता है।

अल्पसंख्यक संस्थानों के लिए संवैधानिक संरक्षण

    • संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों को सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार प्रदान करते हैं। विशेष रूप से अनुच्छेद 30(1) धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपने संस्थान स्थापित और प्रशासित करने की अनुमति देता है।
    • शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम का प्रारूपण करते समय, विधायकों ने धारा 1(4) को शामिल किया, जिसमें कहा गया कि इसका अनुप्रयोग इन संवैधानिक प्रावधानों के अधीन होगा। हालाँकि, अधिनियम ने स्वयं अल्पसंख्यक विद्यालयों को स्पष्ट रूप से छूट नहीं दी थी। यह छूट बाद के न्यायिक व्याख्यानों द्वारा बनाई गई।

प्रमति से पहले के न्यायिक विकास:

RTE अधिनियम की शुरुआत को निजी विद्यालयों और अल्पसंख्यक समूहों दोनों की ओर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

    • 2012 का निर्णय (सोसाइटी फॉर यूनेडेड प्राइवेट स्कूल्स ऑफ राजस्थान मामला):
      तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने RTE अधिनियम की संवैधानिकता को बरकरार रखा। इसने कहा कि 25% कोटा सार्वभौमिक शिक्षा के हित में एक उचित प्रतिबंध है। हालाँकि, इसने गैर-अनुदानित अल्पसंख्यक संस्थानों को छूट दी, यह मानते हुए कि कोटा उनकी प्रकृति को बदल देगा और अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन करेगा।
      इस प्रकार, 2014 से पहले, गैर-अनुदानित अल्पसंख्यक संस्थानों को पहले ही छूट मिल चुकी थी, जबकि अनुदानित अल्पसंख्यक संस्थान अभी भी अधिनियम के अधीन थे।
    • 2014 का प्रमति निर्णय
      प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम भारत संघ मामले में पाँच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने छूट को और बढ़ा दिया। इसके प्रमुख बिंदु थे:
      • RTE अधिनियम को न तो अनुदानित और न ही गैर-अनुदानित अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू किया जा सकता है, क्योंकि यह उनके अनुच्छेद 30(1) के अधिकार का हनन होगा।
      • 25% कोटा लागू करने से अल्पसंख्यक संस्थानों का चरित्र बदल जाएगा।
      • अतः सभी अल्पसंख्यक विद्यालयों को RTE अधिनियम के दायित्वों से छूट दी गई।

इस निर्णय ने बड़ी संख्या में विद्यालयों को अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया, जिनमें वे भी शामिल थे जो सार्वजनिक वित्त प्राप्त करते थे।

प्रमति निर्णय के परिणाम:

    1. RTE मानकों से बचाव: कई निजी विद्यालयों ने केवल दायित्वों जैसे 25% कोटा से बचने हेतु नाममात्र में अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त किया।
    2. वंचित बच्चों का बहिष्कार: विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमियों के बच्चों के सामाजिक मिश्रण का उद्देश्य कमजोर पड़ गया।
    3. नीति का विकृतिकरण: सरकारी सहायता प्राप्त करने वाले संस्थान भी, सार्वजनिक धन के बावजूद, जवाबदेही उपायों से बच सकते थे।
    4. समानता संबंधी चिंताएँ: आलोचकों का तर्क था कि इस निर्णय ने शिक्षा के अधिकार की तुलना में संस्थागत स्वायत्तता को प्राथमिकता दी।

2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनर्विचार:

अल्पसंख्यक विद्यालयों में TET लागू करने की वैधता पर विचार करते हुए, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और मनमोहन की दो-न्यायाधीशों की पीठ ने प्रमति बहस को पुनःविचार के स्वीकृति दी।

उनके अवलोकन इस प्रकार थे:

    • 2014 का निर्णय एक समग्र छूटदेता था। अल्पसंख्यक विद्यालयों को छूट देना सार्वभौमिक शिक्षा को कमजोर करता है और एक नियामक खामी उत्पन्न करता है।
    • योग्य शिक्षक और आधारभूत संरचना जैसे मानक अल्पसंख्यक पहचान को खतरा नहीं पहुँचाते।
    • अनुच्छेद 21क (शिक्षा का अधिकार) और अनुच्छेद 30(1) (अल्पसंख्यक अधिकार) का सामंजस्य स्थापित किया जाना चाहिए।
    • 25% कोटा को पूरी तरह अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए; बल्कि, यह देखा जाना चाहिए कि क्या यह अल्पसंख्यक चरित्र को प्रभावित करता है और इसका आकलन मामले-दर-मामले आधार पर होना चाहिए।
    • एक संभावित दृष्टिकोण यह हो सकता है कि अल्पसंख्यक विद्यालय अपने ही समुदाय के वंचित बच्चों से कोटा पूरा करें।

पुनर्विचार का महत्व

    1. अधिकारों के बीच संतुलन की बहाली: यह अनुच्छेद 21क के अंतर्गत बच्चे के शिक्षा के अधिकार को अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक स्वायत्तता के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है।
    2. जवाबदेही को सुदृढ़ करना: विशेषकर अनुदानित अल्पसंख्यक विद्यालय पुनः बुनियादी गुणवत्ता मानकों और आरक्षण के अधीन हो सकते हैं।
    3. समावेशिता को बढ़ावा देना: यदि छूट को समाप्त कर दिया जाए, तो कक्षाएं सामाजिक रूप से अधिक विविध हो जाएंगी, जिससे समानता और लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा।
    4. अल्पसंख्यक दर्जे के दुरुपयोग की रोकथाम: कठोर व्याख्या से संस्थानों द्वारा केवल दायित्वों से बचने हेतु अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा।
    5. मिसाल कायम करना: एक बड़ी पीठ का फैसला शिक्षा कानून को नया रूप दे सकता है और सार्वभौमिक अधिकारों की तुलना में अल्पसंख्यक अधिकारों के दायरे को स्पष्ट कर सकता है।

विस्तृत प्रभाव

    • बच्चों के लिए: छूट वंचित पृष्ठभूमि के कई बच्चों को बेहतर शिक्षा अवसरों से वंचित करती है।
    • शिक्षा प्रणाली के लिए: TET जैसे सार्वभौमिक मानक सभी संस्थानों में न्यूनतम शिक्षक गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं।
    • समाज के लिए: मिश्रित कक्षाएँ वर्ग, धर्म और जाति की खाइयों को पाटकर सामाजिक एकता और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देती हैं।
    • शासन के लिए: यह मामला एक विविधतापूर्ण लोकतंत्र में समूह अधिकारों की रक्षा और सार्वभौमिक अधिकारों की गारंटी के बीच तनाव को उजागर करता है।

निष्कर्ष:

वर्ष 2014 के प्रमति फैसले ने सभी अल्पसंख्यक संस्थानों को, यहां तक कि सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों को भी, इससे बाहर रखकर आरटीई अधिनियम के कार्यान्वयन में व्यापक अंतर पैदा कर दिया। पिछले दशक में, इससे कानून की परिवर्तनकारी क्षमता कमजोर हो गई है।

सर्वोच्च न्यायालय की 2025 पीठ ने अब इस छूट पर सवाल उठाते हुए कहा है कि बच्चे के अधिकार को संस्थागत स्वायत्तता के अधीन नहीं किया जा सकता। मामले को बड़ी पीठ को सौंपकर न्यायालय ने अल्पसंख्यक अधिकारों और सार्वभौमिक शिक्षा के बीच संतुलन बहाल करने की संभावना खोल दी है।

यदि छूट रद्द कर दी जाती है, तो अल्पसंख्यक स्कूलों को एक बार फिर आरटीई अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों का पालन करना होगा, जिसमें 25% कोटा भी शामिल है। यह भारत में समावेशी शिक्षा की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकता है, जो इस बात की पुष्टि करता है कि प्रत्येक बच्चे के अधिकार शैक्षिक नीति के केंद्र में बने रहेंगे।

 

यूपीएससी/पीएससी मुख्य प्रश्न: "अनुच्छेद 21ए और 30(1) का सह-अस्तित्व होना आवश्यक है।" बच्चों के शिक्षा के अधिकार और अल्पसंख्यकों के अपने संस्थानों के प्रशासन के अधिकार के बीच संतुलन का विश्लेषण करें।