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Daily-current-affairs / 17 Jun 2025

"भ्रष्टाचार मुक्त भारत की ओर: लोकपाल और लोकायुक्त की चुनौतियाँ और समाधान"

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संदर्भ:

भ्रष्टाचार भारत में सुशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है। इस मुद्दे से निपटने के लिए, भारत ने राष्ट्रीय स्तर पर लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त जैसे शक्तिशाली संस्थानों की स्थापना की। उनका काम सरल लेकिन महत्वपूर्ण है: सार्वजनिक अधिकारियों को जवाबदेह ठहराना और यह सुनिश्चित करना कि सत्ता का दुरुपयोग न हो।

  • हाल ही में एक कदम उठाते हुए, भारत के लोकपाल ने एक नया आदर्श वाक्य अपनाया: "नागरिकों को सशक्त बनाएँ, भ्रष्टाचार को उजागर करें।" यह केवल एक नारा नहीं है - यह नागरिकों को भ्रष्टाचार विरोधी लड़ाई के केंद्र में रखने की दिशा में एक गहरे बदलाव को दर्शाता है। यह लोगों को बोलने, गलत कामों की रिपोर्ट करने और पारदर्शिता की मांग करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013:

इस अधिनियम के तहत:
राष्ट्रीय स्तर पर एक लोकपाल की स्थापना हुई।
हर राज्य में लोकायुक्त बनाए जाने का प्रावधान है।
इनका मुख्य उद्देश्य है:
परिभाषित श्रेणी के सार्वजनिक अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच करना, पारदर्शिता को बढ़ावा देना और सत्ता के दुरुपयोग को रोकना।

महत्वपूर्ण संशोधन (2016):
लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष के नेता की अनुपस्थिति को ध्यान में रखते हुए, सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता को चयन समिति में शामिल किया गया।
धारा 44 के तहत संपत्ति-उत्तरदायित्व प्रकटीकरण नियमों को सख्त बनाया गया, जिससे सरकारी कर्मचारियों की जवाबदेही बढ़ी।

लोकपाल की संरचना और अधिकार क्षेत्र
संरचना:
एक अध्यक्ष के नेतृत्व में, अधिकतम 8 सदस्य होते हैं।
कम से कम आधे सदस्य न्यायिक होने चाहिए।
कम से कम 50% सदस्य अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति ST, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अल्पसंख्यक और महिलाओं में से होने चाहिएयह विविधता सुनिश्चित करता है।

कार्यकाल:
सदस्य और अध्यक्ष का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु, जो पहले हो, तक होता है।

नियुक्ति प्रक्रिया:
राष्ट्रपति नियुक्त करते हैं, चयन समिति की सिफारिश पर, जिसमें शामिल होते हैं:

1.        प्रधानमंत्री (अध्यक्ष)

2.      लोकसभा अध्यक्ष

3.      विपक्ष के नेता / सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता

4.     मुख्य न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश

5.      राष्ट्रपति द्वारा नामित एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता

यह संरचना राजनीतिक और कानूनी दृष्टिकोणों में संतुलन लाती है।

अधिकार क्षेत्र:
लोकपाल निम्नलिखित के खिलाफ जांच कर सकता है:
प्रधानमंत्री (राष्ट्रीय सुरक्षा या अंतरराष्ट्रीय मामलों से जुड़ी शिकायतों को छोड़कर)
केंद्रीय मंत्री
सांसद
केंद्र सरकार के सभी (A, B, C और D श्रेणी) सरकारी कर्मचारी

Lokpal and Lokayukta Act, 2013

लोकपाल की शक्तियाँ और कार्य

लोकपाल के पास भ्रष्टाचार विरोधी प्रभावी प्रवर्तन सुनिश्चित करने के उद्देश्य से महत्वपूर्ण अधिकार हैं:

1. डीएसपीई जाँच की निगरानी: डीएसपीई (इस भूमिका में पहले सीबीआई थी) लोकपाल की देखरेख में पूछताछ और जाँच करती है।

2. तलाशी और जब्ती: यह साक्ष्य एकत्र करने के लिए तलाशी और जब्ती अभियान को अधिकृत कर सकता है।

3. सीवीसी समन्वय: केंद्रीय सतर्कता आयोग को संदर्भित मामलों पर उठाए गए कदमों के बारे में लोकपाल को रिपोर्ट देनी होगी, और लोकपाल त्वरित समाधान में सहायता के लिए दिशानिर्देश जारी करेगा।

4. सिविल कोर्ट की शक्तियाँ: प्रारंभिक जाँच के दौरान, यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 44 के प्रावधानों के तहत सिविल कोर्ट के समान शक्तियों का प्रयोग करता है।

 

लोकायुक्त की भूमिका और पहुँच
राज्य स्तर पर लोकायुक्त की व्यवस्था राज्य के अपने कानूनों द्वारा संचालित होती है। भले ही राज्यवार नियम अलग हों, इनका मूल कार्य समान हैराज्य मशीनरी में भ्रष्टाचार की जांच करना।
कुछ उल्लेखनीय उदाहरण:
उत्तर प्रदेश: मुख्यमंत्री मायावती और उनके मंत्रिमंडल के खिलाफ असमान संपत्ति के मामलों का खुलासा।
कर्नाटक: एक मंत्री को रिश्वत लेते हुए पकड़ा गया, कानूनी कार्रवाई हुई।
दिल्ली: ACB (लोकायुक्त पर आधारित) ने घूसखोरी के मामलों में छापे मारे और गिरफ्तारियाँ कीं।
तमिलनाडु: असमान संपत्ति के मामलों की जांच की गई और अनुशासनात्मक कार्रवाई हुई।

लोकपाल/लोकायुक्त से जुड़े प्रमुख समिति-सूत्र
भारत की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम कई रिपोर्ट समितियों पर आधारित रही है:

1.        संथानम समिति (1962): स्वतंत्र जांच एजेंसी की सिफारिश की।

2.      विधि आयोग की 20वीं रिपोर्ट (1967): गैर-राजनीतिक, स्वतंत्र एजेंसी की जरूरत पर बल दिया।

3.      प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (1966–70): केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त की दो-स्तरीय प्रणाली की सिफारिश।

4.     द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2005) एथिक्स इन गवर्नेंस’ (2007): मजबूत कानून और नैतिक शासन की सिफारिश।

5.      संसदीय स्थायी समिति (2011): 2013 अधिनियम के महत्वपूर्ण प्रावधानों को आकार दिया।

6.     11वीं अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन (2012): लोकायुक्त के प्रदर्शन सुधार हेतु कई सुझाव दिए।

वर्तमान व्यावहारिक समस्याएँ

1.        शिकायतकर्ताओं की कमजोर सुरक्षा:
o व्हिसलब्लोअर को मजबूत सुरक्षा नहीं है।
o धारा 18 के तहत यदि आरोपी निर्दोष पाया गया तो शिकायतकर्ता पर कार्रवाई हो सकती हैजिससे डर पैदा होता है।

2.      अपील प्रावधानों की कमी:
o लोकपाल के निर्णयों के खिलाफ स्पष्ट अपील व्यवस्था नहीं है।

3.      राजनीतिक प्रभाव:
o चयन समिति में राजनेता और अस्पष्ट प्रतिष्ठित विधिवेत्ताहोते हैंस्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है।

4.     प्रधानमंत्री पर सीमित अधिकार:
o राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय मामलों और परमाणु ऊर्जा से जुड़े मुद्दों पर लोकपाल की पहुँच नहीं है।

5.      अन्य कानूनी कमियाँ:
o संवैधानिक दर्जा नहीं
o न्यायिक निगरानी नहीं
o 7 साल से पुराने मामलों को खारिज किया जा सकता है
o लोकायुक्त की नियुक्ति पद्धति पारदर्शी नहीं

6.     नियुक्तियों में देरी:
o 2013 कानून के बाद भी मार्च 2019 तक लोकपाल की नियुक्ति नहीं हुई।

7.      जन जागरूकता की कमी:
o लोग नहीं जानते कि लोकपाल/लोकायुक्त कैसे काम करते हैं या शिकायत कैसे करें।

8.     संसाधनों की कमी:
o कर्मचारियों की कमी और ढांचे की खराब स्थिति से प्रभावी जांच में बाधा आती है।

9.      राजनीतिक हस्तक्षेप:
o जांच में बाहरी दबाव इन संस्थाओं की साख को कमजोर करते हैं।

10.  प्रक्रियागत जटिलताएँ:
o शिकायत प्रक्रिया लंबी और जटिल होने से व्हिसलब्लोअर्स हतोत्साहित होते हैं।

प्रस्तावित समाधान और सुधार

1.        संवैधानिक मान्यता देना:
o संविधान संशोधन के जरिए लोकपाल और लोकायुक्त को स्थायी दर्जा और स्वायत्तता मिलेगी, जिससे राजनीतिक हस्तक्षेप रुकेगा।

2.      विकेंद्रीकरण और स्वायत्तता:
o क्षेत्रीय स्तर पर सशक्त संस्थाएँ स्थापित की जाएँ, जिनके पास वित्तीय और प्रशासनिक स्वतंत्रता हो।

3.      लोकायुक्त कार्यप्रणाली में सुधार (11वीं सम्मेलन, 2012):
o लोकायुक्त को राज्य भ्रष्टाचार की मुख्य शिकायत एजेंसी बनाया जाए।
o राज्य जांच एजेंसियों पर नियंत्रण मिले।
o निचले स्तर के अफसरों को भी दायरे में लाया जाए।
o तलाशी, जब्ती और अवमानना की शक्तियाँ मिलें।
o प्रशासनिक और वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित हो।
o सरकार से सहायता प्राप्त NGO भी इसके दायरे में आएं।

4.     व्हिसलब्लोअर की सुरक्षा मजबूत करना:
o अगर आरोप सिद्ध नहीं भी होते हैं, तो भी शिकायतकर्ताओं को सुरक्षा दी जाए (जब तक शिकायत झूठी या दुर्भावनापूर्ण न हो)।

5.      अपील का अधिकार देना:
o लोकपाल के निर्णयों के खिलाफ पारदर्शी अपील तंत्र बनाया जाए।

6.     प्रतिष्ठित विधिवेत्ताकी परिभाषा तय करना:
o उनकी योग्यता स्पष्ट हो और नियुक्तियों की न्यायिक समीक्षा की जा सके।

7.      जन भागीदारी और संसाधनों को बढ़ाएं:
o शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया पर लोगों को जागरूक करें।
o इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारें, योग्य स्टाफ रखें और मामलों को शीघ्र निपटाएँ।

निष्कर्ष
"नागरिकों को सशक्त करें, भ्रष्टाचार को उजागर करें" यह नया आदर्श वाक्य एक शक्तिशाली और स्पष्ट आह्वान है। यह नागरिकों को याद दिलाता है कि सार्वजनिक अधिकारियों को जवाबदेह बनाने की शुरुआत उन्हीं से होती है।

हालाँकि 2013 का कानून और उसके संशोधन एक मजबूत नींव रखते हैं, लेकिन असली बदलाव क्रियान्वयन पर निर्भर है:
शिकायत और अपील अधिकारों की रक्षा
राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाव
लोकपाल और लोकायुक्त को स्वायत्तता और संसाधन देना

एक संवैधानिक संशोधन और विकेंद्रीकरण, साथ ही स्पष्ट प्रक्रिया और वित्तीय स्वतंत्रता से ये संस्थाएँ और प्रभावी बन सकती हैं। अगर भारत को वास्तव में भ्रष्टाचार को खत्म करना है, तो उसकी भ्रष्टाचार-रोधी संस्थाएँ मजबूत, निर्भीक और नागरिक-केन्द्रित होनी चाहिए।

मुख्य प्रश्न:  भारत में भ्रष्टाचार से लड़ने में लोकपाल और लोकायुक्तों की क्या भूमिका है? इन संस्थाओं को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जा सकता है? चर्चा करें