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Daily-current-affairs / 20 Jan 2024

ईरान-पाकिस्तान संबंध और क्षेत्रीय गतिशीलता

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संदर्भ :

      ईरान और पाकिस्तान के बीच हाल ही में बढ़े तनाव ने जटिल ऐतिहासिक, भू-राजनीतिक और सांप्रदायिक तनाव को प्रकट किया है, जिसने ईरान में 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद से उनके संबंधों को प्रभावित किया है। कथित आतंकवादी ठिकानों पर मिसाइल और ड्रोन हमलों से जुड़े नवीनतम घटनाक्रम ने क्षेत्र की स्थिरता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

1979 ईरान में इस्लामी क्रांति:

      1979 ईरान में इस्लामी क्रांति 20वीं शताब्दी की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं में से एक थी।अयातुल्ला रूहुल्लाह खुमैनी के नेतृत्व में  क्रांति ने शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के निरंकुश शासन के स्थान पर एक इस्लामी धर्मतंत्र की स्थापना की। इस परिवर्तनकारी घटना का ईरान, मध्य पूर्व और वैश्विक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके स्थायी प्रभाव आज भी महसूस हो रहे हैं।

ईरान-पाकिस्तान तनाव :

  •  वर्तमान में ईरान और पाकिस्तान के बीच तनाव काफी बढ़ गया है। इसकी मुख्य वजह 16 जनवरी को ईरान द्वारा पाकिस्तानी के जैश अल-अदल नामक सुन्नी अतिवादी समूह पर मिसाइल और ड्रोन हमला किया जाना है। पाकिस्तान ने इस हमले को बिना उकसावे और अप्रत्याशित माना जिससे तनाव काफी बढ़ गया है।
  • इस हमले के जवाब में पाकिस्तान ने पहले तो कूटनीतिक संबंधों को कम कर दिया एवं  द्विपक्षीय यात्राओं को रद्द कर दिया और फिर 18 जनवरी को पाकिस्तान ने ईरान के अंदर कथित बलूच अलगाववादियों के ठिकानों पर जवाबी हवाई हमले किए। अब पर्यवेक्षक ईरान की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे है। कई जानकार इस बात पर नजर रखे हुए हैं कि क्या ईरान स्थिति को और बढ़ाएगा या सुलह का रास्ता अपनाएगा।

1979 के बाद का गतिशीलता:

  • ईरान और पाकिस्तान के बीच रिश्ते 1979 के इस्लामी क्रांति से पहले काफी अच्छे थे। दोनों देश अमेरिका के घनिष्ठ सहयोगी थे। इनका गठबंधन बगदाद समझौते, जिसे बाद में सेंटो के नाम से जाना गया, के जरिए मजबूत हुआ था। यह एक सैन्य गठबंधन था जो नाटो के तर्ज पर बनाया गया था। ईरान ने 1965 और 1971 में भारत के साथ हुए युद्धों के दौरान पाकिस्तान को सैन्य और हथियारों की सहायता प्रदान की थी। उस समय ईरान के शाह ने बांग्लादेश की मुक्ति के बाद पाकिस्तान की अखंडता के लिए मजबूत समर्थन व्यक्त किया था।
  • हालांकि, 1979 के इस्लामिक क्रांति के बाद ईरान और पाकिस्तान के संबंधों में एक महत्वपूर्ण बदलाव आया। अयातुल्लाह खोमैनी के सख्त रूढ़िवादी शिया शासन के अधीन ईरान ने बहुसंख्यक सुन्नी आबादी वाले पाकिस्तान के साथ खुद को असहमत पाया विशेषकर तब जब पाकिस्तान सैन्य तानाशाह जनरल जिया-उल-हक के अधीन अपने इस्लामीकरण के दौर से गुजर रहा था। सांप्रदायिक विभाजन और गहरा हुआ, और भू-राजनीतिक परिदृश्य में मतभेद उभरे।
  • 1979 के बाद ईरान के अमेरिका के सहयोगी से दुश्मन बनने के कारण अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संबंध मजबूत हुए, विशेषकर 9/11 के बाद के "आतंक के खिलाफ युद्ध" के दौरान।
  • ईरान के इस्लामिक क्रांति के विस्तार के प्रयास से उसके अरब पड़ोसियों के बीच चिंताएं बढ़ा दीं, जिससे पाकिस्तान के अपने सुन्नी अरब सहयोगियों के साथ संबंध जटिल हो गए। इसके अतिरिक्त, दोनों देश सोवियत वापसी के बाद अफगानिस्तान में विरोधी पक्षों में थे। ईरान ने तालिबान के खिलाफ नॉर्दन एलायंस का समर्थन किया जबकि तालिबान को शुरू में पाकिस्तान ने ही सर्वाधिक समर्थन दिया  था।

सुलह के प्रयास:

 

  • ऐतिहासिक मतभेद के बावजूद, पिछले कुछ वर्षों में सुलह के प्रयास किए गए हैं। 1995 में, प्रधान मंत्री बेनजीर भुट्टो ने दोनों देशों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों पर बल देते हुए तेहरान की यात्रा की तथा व्यापार और ऊर्जा में सहयोग शुरू किया गया था लेकिन जनरल परवेज़ मुशर्रफ के सैन्य शासन के तहत संबंधों में उतार-चढ़ाव आया 2008 में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सत्ता में वापसी तक संबंधों में सुधार के प्रयास फिर से शुरू नहीं हुए थे।
  • राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के नेतृत्व में बाद के प्रशासन का लक्ष्य व्यापार और ऊर्जा सहयोग पर ध्यान केंद्रित करते हुए ईरान के साथ संबंधों को मजबूत करना था। इसी परिप्रेक्ष्य में ईरान-पाकिस्तान गैस पाइपलाइन परियोजना को 2013 में मंजूरी दी गई थी जो संबंधों में नरमी का प्रतीक था। हालाँकि पेंडुलम फिर से घूम गया जब 2013 में नवाज शरीफ सत्ता में आए और सऊदी अरब और अन्य अरब सहयोगियों की ओर झुक गए जिससे पाइपलाइन परियोजना अधूरी रह गई।

 

बलूचिस्तान साझा चुनौती और जटिल इतिहास

हाल ही में हुए सीमा पार संघर्ष ने ईरान और पाकिस्तान दोनों में फैले बलूच विद्रोह की साझा चुनौती पर नए सिरे से ध्यान आकर्षित किया है। दोनों देशों के भीतर और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए गंभीर चिंता का विषय, बलूच मुद्दा सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, आर्थिक और सुरक्षा आयामों को समेटे हुए एक जटिल परिदृश्य प्रस्तुत करता है।

      संस्कृति और पहचान: ईरान-पाकिस्तान सीमा के दोनों ओर निवास करने वाले बलूच एक विशिष्ट सांस्कृतिक, जातीय, भाषाई और धार्मिक पहचान से जुड़े हुए हैं। यह साझा विरासत भू-राजनीतिक सीमाओं को पार करती है और एकजुट राष्ट्रवादी भावना को जन्म देती है, जिसने एक स्वतंत्र "ग्रेटर बलूचिस्तान" की आकांक्षाओं को जन्म दिया है।

      ऐतिहासिक संदर्भ: 20वीं सदी की शुरुआत से बलूच समुदाय दोनों देशों में हाशिए होने का भाव रखता है। आर्थिक विकास में असमानता, सामाजिक और राजनीतिक अलगाव ने 1920 और 1960 के दशक में पृथक्करणवादी आंदोलनों को जन्म दिया। हालांकि, इन प्रयासों को बलपूर्वक दबा दिया गया था, लेकिन अंतर्निहित असंतोष कायम रहा।

      आर्थिक असंतुलन: समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद, बलूचिस्तान का क्षेत्र दोनों देशों में अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है। बड़े पैमाने पर विकास परियोजनाएं, जैसे चीन की बेल्ट एंड रोड पहल जैसे बड़े निवेश भी जीवन स्तर को सुधाने में विफल रहे हैं।

      सुरक्षा चुनौती: बलूच विद्रोही गतिविधियां ईरान और पाकिस्तान दोनों के लिए महत्वपूर्ण सुरक्षा चिंताएं हैं। दोनों देशों के भीतर संचालित विभिन्न बलूच अलगाववादी समूह सैन्य और नागरिक दोनों प्रतिष्ठानों को निशाना बनाते हैं जिससे स्थिरता कमजोर होती है और क्षेत्रीय सहयोग बाधित हुआ  है।

भारत की हिस्सेदारी और नजरिया:

  • पिछले कुछ वर्षों में ईरान के साथ भारत के संबंधों में उल्लेखनीय बदलाव आया है। अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने ऊर्जा क्षेत्र में ईरान के साथ सहयोग किया है और विशेष रूप से चाबहार बंदरगाह परियोजना इस सहयोग के केंद्र में है। चाबहार में भारत की भागीदारी ने पाकिस्तान क्व समक्ष चिंता उत्पन्न की है क्योंकि पाकिस्तान में चीन द्वारा वित्तपोषित ग्वादर बंदरगाह को  चाबहार के साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ेगी
  • हाल के संघर्षों को ईरान और पाकिस्तान के मध्य का विषय बताते हुए भारत के विदेश मंत्रालय ने "आतंकवाद के प्रति शून्य सहिष्णुता की अडिग स्थिति" पर जोर दिया। भारत में रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञों का तर्क है कि आतंकवादियों को पनाह देने के ईरान के दावे भारत के रुख को प्रतिध्वनित करते हैं, विशेषकर ईरान के कार्यों को आत्मरक्षा के एक रूप के रूप में देखते हुए।

भावी रणनीति :

  • संवाद और सहयोग: दोनों देशों को आपसी विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए राजनीतिक और सुरक्षा मुद्दों पर खुले और ईमानदार संवाद में शामिल होना चाहिए।
  • आर्थिक सहयोग: क्षेत्रीय विकास और समृद्धि को बढ़ावा देने के लिए व्यापार और निवेश के क्षेत्र में सहयोग को मजबूत किया जाना चाहिए।
  • क्षेत्रीय मुद्दों पर समन्वय: अफगानिस्तान और अन्य क्षेत्रीय मुद्दों पर एक समन्वित दृष्टिकोण विकसित करने के लिए दोनों देशों को मिलकर काम करना चाहिए।
  • अंतरराष्ट्रीय समुदाय: अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस प्रक्रिया में सहायक भूमिका निभानी चाहिए।

निष्कर्ष

ईरान और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ने के बावजूद दोनों देशों के मध्य  और अधिक तनाव बढ़ाने की संभावना कम है। पाकिस्तान आर्थिक चुनौतियों, भारत और अफगानिस्तान के साथ अस्थिर सीमा से जूझ रहा है साथ ही ईरान को अपना अपेक्षाकृत कम शत्रु पड़ोसी देश मानता है। उसी प्रकार हौथी/हूती  विद्रोहियों का समर्थन करने और छद्म संघर्षों से निपटने जैसे क्षेत्रीय मुद्दों में व्यस्त ईरान के पास पाकिस्तान के साथ लंबे समय तक संघर्ष के लिए सीमित क्षमताएं हैं।

वस्तुतः ईरान-पाकिस्तान संबंधों का भविष्य दोनों देशों द्वारा किए गए विकल्पों पर निर्भर करेगा। यदि वे संवाद और सहयोग का मार्ग चुनते हैं, तो वे क्षेत्रीय शांति और स्थिरता में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

      1979 की इस्लामी क्रांति और 9/11 के बाद के "आतंकवाद पर युद्ध" के प्रभाव पर जोर देते हुए ईरान-पाकिस्तान संबंधों के ऐतिहासिक विकास पर चर्चा करें। बदलते गठबंधनों पर विचार करते हुए, क्षेत्र में वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य का आकलन करें। (10 अंक, 150 शब्द) 

      ईरान और पाकिस्तान के लिए एक आम चुनौती के रूप में बलूच विद्रोह की भूमिका का विश्लेषण करें। बलूच राष्ट्रवाद में योगदान देने वाले सामाजिक-आर्थिक कारकों की जांच करें और संघर्ष के मूल कारणों को संबोधित करने और क्षेत्रीय स्थिरता को बढ़ावा देने में दोनों देशों के बीच सहयोग को सुविधाजनक बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय उपायों का प्रस्ताव करें। (15 अंक, 250 शब्द)

Source – Indian Express

 

 

 

 

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