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Daily-current-affairs / 04 Apr 2024

भारत का वन संरक्षण संशोधन अधिनियम: वन संरक्षण और स्थानीय समुदाय के अधिकारों में टकराव - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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संदर्भ
वन पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने के लिए अनिवार्य हैं, यह महत्वपूर्ण कार्बन सिंक और जैव विविधता के आश्रय के रूप में कार्य करते हैं। जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने और सतत विकास के लिए न्यायसंगत संक्रमण हेतु प्रयास करने के संदर्भ में, वनों की भूमिका को कम नहीं करके नहीं आँका जा सकता है। भारत में, जहां वन क्षेत्र कुल भूमि का 24.62% है, वन संरक्षण का महत्व सामाजिक, आर्थिक और कानूनी आयामों को भी शामिल करता है। हालाँकि, वन संरक्षण अधिनियम में हाल के संशोधनों ने विवादास्पद बहस को जन्म दिया है, जिससे भारत की सतत विकास के लिए किए जाने वाले प्रयासों के विषय में चिंताएँ बढ़ गई हैं। 

वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023: उद्देश्य और अनपेक्षित परिणाम
वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023 को संरक्षण प्रयासों को बढ़ावा देने और 2070 तक अपने शुद्ध-शून्य उत्सर्जन लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य के साथ पारित किया गया था। हालांकि, एक जांच से स्पष्ट होता है, कि इस अधिनियम में भारत के जलवायु तटस्थता के उद्देश्यों के संबंध में कई खामियों का पता चला है। संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट में उल्लिखित है, "वन" भूमि की परिभाषा ने कई अनपेक्षित परिणाम पैदा किए है जो संरक्षण प्रयासों को कमजोर करते  हैं। संरक्षित वन भूमि के दायरे को कम करके, 2023 का संशोधन संभावित रूप से गैर-वानिकी गतिविधियों के लिए मार्ग प्रशस्त करता है, जो भारत की जैव विविधता और कार्बन पृथक्करण लक्ष्यों के लिए खतरा पैदा कर सकता है।
इसके अलावा, "वन" शब्द की अदूरदर्शी व्याख्या नियामक निरीक्षण से अनिर्धारित या अवर्गीकृत वन क्षेत्र के बहिष्कार के बारे में चिंता पैदा करती है। ऐतिहासिक अभिलेखों और विशिष्ट मानदंडों के आधार पर यह बहिष्कार केवल 2023 अधिनियम के संरक्षण उद्देश्यों का खंडन करता है, बल्कि त्वरित वनों की कटाई और स्थानीय समुदाय के निवास अधिकार के क्षरण के जोखिम को भी बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त, जलवायु शमन पहलों पर संशोधन के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, विशेष रूप से ऊर्जा उत्पादन के लिए कोयले पर भारत की निर्भरता के आलोक में, जो वन भूमि क्षेत्र मे बदलाव का एक महत्वपूर्ण कारक है। 2023 के संशोधन के परिणाम वन संरक्षण के लिए एक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, जो सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के साथ पर्यावरणीय अनिवार्यताओं को संतुलित कर सके।
अधिनियम में संकीर्ण परिभाषाएँ और व्यापक निहितार्थ
वन संरक्षण अधिनियम के भीतर "वन" शब्द की व्याख्या भारत के वन क्षेत्र के प्रशासन पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। 2023 के संशोधन द्वारा निर्धारित संकीर्ण परिभाषा केवल व्यापक वन क्षेत्र को संरक्षण से बाहर करती है, बल्कि वनों की एक व्यापक और सर्वव्यापी परिभाषा पर बल देने वाले न्यायिक उदाहरणों की भी अवहेलना करती है। यद्यपि, हाल के न्यायिक हस्तक्षेपों, विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय द्वारा, "वन" के समावेशी अर्थ को बनाए रखते हुए इस विसंगति को सुधारने का प्रयास किया गया है, जिससे नियामक दायरे का विस्तार पहले की अनियमित भूमि तक हो गया है। यह न्यायिक हस्तक्षेप भारत की कानूनी और न्यायिक गतिशीलता के एक महत्वपूर्ण पहलू को रेखांकित करता है, जो वन संरक्षण नीतियों को आकार देने में विधायी इरादे और न्यायिक निरीक्षण के बीच नाजुक संतुलन को भी उजागर करता है।
इसके यद्यपि, 2023 के संशोधन द्वारा दी गई छूट शासन और सामुदायिक अधिकारों के विषय में सवाल उठाती है। कठोर पर्यावरणीय आकलन या सामुदायिक सहमति के बिना विकासों कार्यों को आगे बढ़ने की अनुमति देकर, ये छूट समावेशी निर्णय लेने और न्यायसंगत विकास के सिद्धांतों को कमजोर करती हैं। राज्य सरकारों के निर्णय लेने के अधिकार का क्षरण और वन-निवासी समुदायों का हाशिए पर जाना संरक्षण प्रयासों में सभी हितधारकों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए वन शासन ढांचे के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
छूट, शासन और सामुदायिक अधिकार संबंधी चुनौतियां
2023 के संशोधन द्वारा प्रदान की गई छूट देश के वन क्षेत्र के प्रशासन के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियां पेश करती है। अधिनियम द्वारा प्रदान की गई छूट, पर्यावरणीय सुरक्षा उपायों और सामुदायिक सहमति तंत्र को दरकिनार करती है, जिससे पर्यावरणीय क्षरण और सामाजिक अन्याय का खतरा बढ़ता हैं। इसके अतिरिक्त , राज्य सरकारों की स्वायत्तता पर अतिक्रमण और स्थानीय शासी निकायों के अधिकारों को कम करना भारत के संघीय ढांचे में निहित संप्रभुता और लोकतंत्र के सिद्धांतों को कमजोर करता है। संशोधन के पूर्वोत्तर राज्यों पर संभावित प्रभाव विशेष रूप से चिंताजनक है, इन राज्यों में व्यापक वन क्षेत्र हैं और यह समुदाय-आधारित वन प्रबंधन प्रथाओं पर बहुत अधिक निर्भर हैं। सामुदायिक अधिकारों का क्षरण और स्वदेशी लोगों का हाशिए पर जाना वन शासन के लिए अधिकार-आधारित दृष्टिकोण की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करता है जो पर्यावरणीय स्थिरता और सामाजिक समानता को प्राथमिकता देता हो।  
इसके अतिरिक्त, विकास परियोजनाओं के लिए ग्राम सभाओं से सहमति की आवश्यकता वाले प्रावधानों का उन्मूलन वन प्रबंधन में सामुदायिक भागीदारी को कमजोर करता है। यह परिवर्तन केवल वन पर निर्भर समुदायों की आजीविका को कमजोर करता है, बल्कि हाशिए पर स्थित समूहों के खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय को भी बनाए रखता है। संशोधन की अन्य चुनौतियां पारिस्थितिकी संरक्षण के साथ आर्थिक अनिवार्यताओं के संतुलन में निहित हैं।

न्यायसंगत परिवर्तनों के लिए आगे बढ़ना
न्यायसंगत परिवर्तन हेतु भारत की वन संरक्षण रणनीतियों के समग्र पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है, जिसमें पर्यावरणीय स्थिरता के लिए न्यायसंगत और समावेशी दृष्टिकोण पर जोर दिया गया हो। सामुदायिक वानिकी और संयुक्त वन प्रबंधन जैसी समुदाय-आधारित पहल, वन में रहने वाले समुदायों और संरक्षण प्रयासों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देती है। पर्यावरण और स्वदेशी लोगों के अधिकारों के संबंध में एक सहयोगी प्रयास के रूप में वन संरक्षण को पुनः बढ़ावा देकर, भारत एक अधिक टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
हालांकि, न्यायसंगत परिवर्तनों को प्राप्त करने के लिए नीतिगत सुधारों के साथ अन्य उपायों की भी आवश्यकता है; यह योजना निर्माण और प्राथमिकताओं में एक मौलिक परिवर्तन की मांग करता है। वाणिज्यिक वृक्षारोपण की तुलना में प्राकृतिक वनों के आंतरिक मूल्य को पहचानते हुए, वन प्रशासन को पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन और जैव विविधता के संरक्षण को प्राथमिकता देनी चाहिए। इसके अलावा, वन-निर्भर समुदायों के अधिकारों को बनाए रखा जाना चाहिए, और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संरक्षण के प्रयास वास्तव में उन लोगों को लाभान्वित करें, जो अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं। पर्यावरण संरक्षण और सतत विकास के लिए अधिकार-आधारित दृष्टिकोण अपनाकर, भारत अपने लोगों और सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए अधिक न्यायसंगत और लचीला भविष्य की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
निष्कर्ष
वन संरक्षण अधिनियम में हाल के संशोधनों ने देश के वन भूमि संरक्षण और स्थानीय लोगों के अधिकारों के बीच असंतुलन पैदा किया है। वन प्रशासन की जटिलताएं एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता की मांग करती हैं, जो पारिस्थितिक अनिवार्यताओं को सामाजिक-आर्थिक वास्तविकताओं के साथ संतुलित करती हों। वन-निवासी समुदायों के अधिकारों को बनाए रखते हुए, पारिस्थितिकी तंत्र के लचीलेपन को संरक्षित करके और समावेशी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को बढ़ावा देकर, भारत अधिक टिकाऊ और न्यायपूर्ण भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जैसे-जैसे हम आगे की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, आइए हम अपने वनों की रक्षा करने, अपनी जैव विविधता की रक्षा करने और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बेहतर कल सुनिश्चित करने की अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहें।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

1.    भारत के पर्यावरण और सामाजिक ताने-बाने पर वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2023 के प्रभावों पर चर्चा करें। "वन" की संकीर्ण परिभाषा और अधिनियम में शुरू की गई छूटों से उत्पन्न चुनौतियों का मूल्यांकन करें, और सामुदायिक अधिकारों के साथ संरक्षण लक्ष्यों को सुसंगत बनाने के लिए रणनीतियों का प्रस्ताव करें। (10 marks, 150 words)

2.    "वन" और सामुदायिक भागीदारी की परिभाषा के संबंध में हाल के हस्तक्षेपों पर ध्यान केंद्रित करते हुए, भारत के वन शासन ढांचे को आकार देने वाली कानूनी और न्यायिक गतिशीलता का विश्लेषण करें। वन-निवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करते हुए पारिस्थितिकीय अखंडता सुनिश्चित करने में इन उपायों की प्रभावशीलता का आकलन करें। (15 marks, 250 words)

 

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