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Daily-current-affairs / 14 Nov 2023

2023 का वन संरक्षण संशोधन अधिनियम: आर्थिक हितों और स्वदेशी अधिकारों का संतुलन - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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Date : 15/11/2023

प्रासंगिकता : जीएस पेपर 3 - पर्यावरण और पारिस्थितिकी

की-वर्ड : FRA संशोधन 2023, प्रतिपूरक वनरोपण, जेपीसी

सन्दर्भ-

● वर्ष 2023 के वन संरक्षण संशोधन अधिनियम ने, जंगलों और स्वदेशी समुदायों के अधिकारों के संदर्भ में उनके संभावित निहितार्थों सहित कई विवादों को जन्म दिया है। शुरुआत में जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई की प्रतिक्रिया के रूप में पेश किया गया यह संशोधन आर्थिक हितों के पक्ष में स्वदेशी अधिकारों के बहिष्कार को संबोधित करता है।

● यह व्यापक विश्लेषण संशोधन के मुख्य प्रावधानों, संशोधन की पृष्ठभूमि, संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की भूमिका, 'पूर्व सहमति' की शर्त में बदलाव, प्रतिपूरक वनीकरण और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) पर प्रभाव आदि पर एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता को दर्शाते हुए, संशोधन को लागू करने की चुनौतियों और निहितार्थों की भी जांच करेगा।

संशोधन का अवलोकन:

● 2023 का वन संरक्षण संशोधन अधिनियम मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई को लक्षित करता है, प्रभावी प्रबंधन और वनीकरण पर जोर देता है। यह संशोधन, वन कानूनों के अनुप्रयोग को विशिष्ट क्षेत्रों तक सीमित कर देता है, जिसमें वर्ष 1996 के बाद गैर-वन उपयोग के लिए परिवर्तित भूमि और संभावित रैखिक परियोजनाओं के लिए चीन और पाकिस्तान सीमा के 100 किलोमीटर की भूमि को शामिल नहीं किया गया है। यद्यपि, कुछ निर्दिष्ट क्षेत्रों में सुरक्षा बुनियादी ढांचे की स्थापना करने, आजीविका बढ़ाने के लिए ईकोटूरिज्म और सफारी जैसी पहल प्रारम्भ करने से स्वदेशी (आदिवासी) समुदायों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के विरोध का सामना करना पड़ सकता है।

संशोधन की उत्पत्ति:

● इस संशोधन की जड़ें वर्ष 1996 में गोदावर्मन थिरुमुल्कपाद मामले में खोजी जा सकती हैं, जिसमें वन भूमि की व्याख्या उसके 'शब्दकोश अर्थ' के आधार पर की गई थी। इस व्याख्या के कारण वर्ष 1980 के कानून के तहत सभी निजी वनों को शामिल कर लिया गया, जिससे औद्योगिक विकास सहित गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि के उपयोग पर प्रतिबंध पर बहस शुरू हो गई। इस प्रतिबंध के जबाब में पेश किए गए वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक की 31 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा जांच की गई, जिसमें केवल छह विपक्षी सदस्य शामिल थे। एक व्यापक चर्चा के बावजूद, यह विधेयक पर्याप्त बहस या परामर्श के बिना संसद के दोनों सदनों में पारित हो गया।

जेपीसी की सिफारिशें और संसदीय अनुमोदन:

● जेपीसी की रिपोर्ट, तीन महीने के भीतर प्रस्तुत की गई थी, जिसमें आलोचनात्मक टिप्पणियों की उपेक्षा की गई। दक्षिणी राज्यों के साथ सहयोगात्मक चर्चा की कमी ने क्षेत्रीय चिंताएँ बढ़ा दीं। संसदीय मंजूरी के बाद, ओडिशा सरकार के "मानित वन (deemed forest)" दर्जे को रद्द करने के प्रयास को सार्वजनिक विरोध का सामना करना पड़ा, जिसमें केंद्रीय मंत्रालय से विस्तृत नियमों और दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर जोर दिया गया। इस प्रकार पर्याप्त बहस के बिना संशोधन का पारित होना हितधारकों, विशेष रूप से स्वदेशी समुदायों के साथ सीमित जुड़ाव को रेखांकित करता है।

'पूर्व सहमति' शर्त का क्षरण:

● वन संरक्षण अधिनियम में वर्ष 2016 और 2017 में संशोधन किया गया था, जिससे किसी भी गैर-वन सम्बन्धी परिवर्तन के लिए आदिवासी ग्राम सभाओं से पूर्व सहमति अनिवार्य हो गई। हालांकि, हालिया संशोधन ने इस आवश्यकता को हटा दिया। इस प्रावधान के कारण, आदिवासी ग्राम सभाओं के 'विकास विरोधी' होने की पूर्वकल्पित धारणा, उन निर्णयों में बाधक हैं, जो आर्थिक रूप से उनके निहितार्थों को प्रभावित कर सकते हैं।

प्रतिपूरक वनरोपण चुनौतियां:

● प्रतिपूरक वनीकरण, वर्तमान वन संशोधन का एक प्रमुख घटक है, जिसमें निजी व्यक्तियों और संगठनों द्वारा वनीकरण या पुनर्वनीकरण के लिए चलाई गई परियोजनाएं शामिल हैं। हालाँकि इस लक्ष्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना अभी शेष है, लेकिन संभावित पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में चिंताएँ बनी हुई हैं। कानून प्रत्येक निर्जन और बंजर पड़े भूमि हिस्से के लिए वृक्षारोपण का आदेश देता है, लेकिन उचित पेड़-प्रकार के विनिर्देशों की अनुपस्थिति पर्यावरणीय प्रभाव और स्थिरता के बारे में आज भी सवाल उठाती है।

वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) पर प्रभाव:

● वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) ने स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, फिर भी इसके कार्यान्वयन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। राज्य सरकारें, एफआरए को वन भूमि परिवर्तन प्रक्रिया में बाधा के रूप में मानती हैं, यह एफसीआरए में संशोधन करने के बजाय वन क्षेत्रों को कम करके आदिवासी दावों को सीमित करने का विकल्प चुनती हैं। यह संशोधन आदिवासी बस्तियों में मानव-पशु संघर्षों को संबोधित करने में विफल रहा है, जिससे स्थानीय आजीविका और वन्य जीवन दोनों खतरे में पड़ जाते हैं।

चुनौतियाँ और निहितार्थ:

  1. स्वदेशी अधिकारों का क्षरण:
    यह संशोधन, स्वदेशी समुदायों को महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से बाहर करके, वन भूमि से उनके ऐतिहासिक संबंध को कमजोर करता है। अधिकारों का यह क्षरण सांस्कृतिक संरक्षण, सामुदायिक आजीविका और स्वदेशी क्षेत्रों के संभावित शोषण की ओर इशारा करता है।
  2. पूर्व सहमति और हितधारक भागीदारी:
    'पूर्व सहमति' शर्त को हटाने से आदिवासी ग्राम सभाओं की भागीदारी कमजोर हो जाती है, जिससे निर्णय लेने की समावेशिता पर सवाल उठते हैं। यह बदलाव विकास समर्थक समझी जाने वाली राज्य सरकारों और 'विकास विरोधी' करार दिए गए आदिवासी समुदायों के बीच तनाव को बढ़ा सकता है।
  3. प्रतिपूरक वनीकरण अस्पष्टताएँ:
    प्रतिपूरक वनीकरण को सुव्यवस्थित करने के प्रयासों के बावजूद, पेड़ों के प्रकार और पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन के संबंध में विशिष्टता की कमी कई अस्पष्टताओं को उजागर करती है। हालाँकि यह अस्पष्टता वनीकरण की पहल को जन्म दे सकती है; जो पारिस्थितिक स्थिरता पर आर्थिक लाभ को प्राथमिकता तो देती है, लेकिन संभावित रूप से वनों की कटाई को बढ़ा सकती है।
  4. वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) कार्यान्वयन चुनौतियां:
    वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) को पूरी तरह से अपनाने में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की अनिच्छा इसके इच्छित प्रभाव को बाधित करती है। राज्य सरकारें, एफआरए को विकास में बाधा के रूप में देखते हुए, अंतर्निहित मुद्दों को संबोधित करने के बजाय वन क्षेत्रों को कम करने का विकल्प चुन सकती हैं, जिससे आदिवासी समुदायों का सशक्तिकरण सीमित हो जाएगा।
  5. मानव-पशु संघर्ष और आजीविका के खतरे:
    आदिवासी बस्तियों में, विशेष रूप से पश्चिमी घाट के क्षेत्र में मानव-पशु संघर्षों को संबोधित करने वाले प्रावधानों की कमी, सामुदायिक आजीविका और वन्यजीव संरक्षण दोनों के लिए खतरा उत्पन्न करती है। इस सन्दर्भ में आदिवासी समुदायों की जरूरतों और वन्यजीव संरक्षण को संतुलित करने के लिए अधिक सूक्ष्म और क्षेत्र-विशिष्ट दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
  6. विकेंद्रीकृत वन प्रशासन चुनौतियाँ:
    वनीकरण पहल का आर्थिक प्रोत्साहन और विकेंद्रीकृत वन प्रशासन के सिद्धांतों के बीच टकराव; संघीय मानदंडों की भावना को चुनौती देता है। समवर्ती सूची के तहत स्थानीय शासन प्रथाओं के साथ आर्थिक हितों को संतुलित करना ऐसी जटिलताएँ उत्पन्न करता है जिन पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।
  7. पर्यावरण सुरक्षा प्राथमिकता:
    आर्थिक लाभ और सुरक्षा उपायों पर यह संशोधन आंतरिक पर्यावरण सुरक्षा की प्राथमिकता पर सवाल उठाता है। जबकि, प्राकृतिक आपदाओं जैसी आंतरिक पर्यावरणीय चिंताओं पर विधायी ढांचे में अधिक ध्यान और प्राथमिकता की आवश्यकता होती है।
  8. असमान आर्थिक प्रभाव की संभावना:
    ईकोटूरिज्म और सफारी जैसी पहल, हालांकि आजीविका में सुधार लाने के उद्देश्य से हैं, तथापि ये असमान आर्थिक प्रभाव उत्पन्न सकती हैं। अतः यह सुनिश्चित करना कि आर्थिक लाभ विशिष्ट क्षेत्रों में धन केंद्रित करने के बजाय स्थानीय समुदायों के बीच समान रूप से वितरित किए जाएं, सतत विकास के लिए आवश्यक है।
  9. दक्षिणी राज्यों के साथ परामर्श का अभाव:
    दक्षिणी राज्यों के साथ उनके विशिष्ट भौगोलिक विचारों के संबंध में, सहयोगात्मक चर्चा का अभाव विधायी प्रक्रिया में संभावित अलगाव को उजागर करता है। इसीलिए, निष्पक्ष और प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए पारिस्थितिक और सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में क्षेत्रीय विविधताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित करने की आवश्यकता है।
  10. सार्वजनिक विरोध और शासन के मुद्दे:
    ओडिशा सरकार द्वारा "मानित वन" का दर्जा रद्द करने का प्रयास और उसके बाद सार्वजनिक विरोध जैसे उदाहरण, संभावित शासन संबंधी मुद्दों और पारदर्शी संचार के महत्व को रेखांकित करते हैं। अतः इस सम्बन्ध में विश्वास कायम करने और जमीनी स्तर पर प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक भागीदारी और परामर्श महत्वपूर्ण हैं।

निष्कर्ष:

2023 का वन संरक्षण संशोधन अधिनियम, हालांकि स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन और वनों की कटाई को लक्षित करता है, स्वदेशी अधिकारों और पर्यावरणीय स्थिरता के बारे में चर्चा करता है। फिर भी यह महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रियाओं से स्वदेशी समुदायों का बहिष्कार, पूर्व सहमति शर्तों का क्षरण, और प्रतिपूरक वनीकरण के संभावित पर्यावरणीय प्रभाव अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है।साथ ही यह वन अधिकार अधिनियम और मानव-पशु संघर्ष पर संशोधन का प्रभाव आर्थिक हितों और पर्यावरण संरक्षण के बीच संतुलन बनाने के महत्व पर जोर देता है। अतः, उभरती पर्यावरणीय चुनौतियों के सामने सतत और न्यायसंगत वन प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए सभी हितधारकों, विशेष रूप से स्वदेशी समुदायों को शामिल करते हुए एक व्यापक और समावेशी संवाद आवश्यक है।

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  1. स्वदेशी अधिकारों और पर्यावरणीय स्थिरता पर वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 के निहितार्थों पर चर्चा करें। निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में स्वदेशी समुदायों के बहिष्कार और प्रतिपूरक वनीकरण में संभावित पर्यावरणीय अस्पष्टताओं से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों का विश्लेषण करें। इन चिंताओं को दूर करने और न्यायसंगत वन प्रबंधन सुनिश्चित करने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण कैसे प्राप्त किया जा सकता है? (10 अंक, 150 शब्द)
  2. वन संरक्षण संशोधन अधिनियम 2023 की जांच में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की भूमिका की आलोचनात्मक जांच करें। हितधारकों के साथ सीमित जुड़ाव और क्षेत्रीय विचारों के बारे में चिंताओं पर विचार करते हुए जेपीसी की सिफारिशों और संसदीय अनुमोदन प्रक्रिया की प्रभावशीलता का आकलन करें। वन संरक्षण से संबंधित विधायी ढांचे में पारदर्शिता और समावेशिता बढ़ाने के लिए कौन से उपाय लागू किए जा सकते हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

Source- The Hindu

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