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Daily-current-affairs / 24 Jan 2024

भारतीय श्रम बाजार में लैंगिक और जातिगत विविधता

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संदर्भ:

  • हाल के दशकों में, भारत में महिला श्रम बल भागीदारी (LFP) में एक उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है, यह गिरावट समग्र श्रम बल की भागीदारी में कमी के समानांतर है। साथ ही साथ यह विनिर्माण और सेवा क्षेत्रों में संरचनात्मक जटिलताओं से भी जुड़ी हुई है, जो मुख्य रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों को सीमित कर रही है। ध्यातव्य है कि अनौपचारिक क्षेत्र में समस्त कार्यबल का 90% हिस्सा आज भी संलग्न है।
  • श्रम बल भागीदारी जब लैंगिक पूर्वाग्रह और जातिगत भेदभाव के साथ संरेखित होता है तो, विशेष रूप से निम्न जाति के महिलाओं की स्थिति श्रम पिरामिड के सबसे निचले सोपान पर देखी जा सकती है। श्रम क्षेत्र में उनकी यह अवस्था उनके रोजगार विकल्पों को मुख्य रूप से कृषि या अनौपचारिक क्षेत्र तक सीमित कर देती हैं।
  • इस संदर्भ में वर्ष 2023 की द स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट; भारत के विकसित हो रहे श्रम बाजार के जटिल व्यवस्थाओं की व्यापक समीक्षा प्रदान करती है।

विरोधाभासी अध्ययन

  • हालांकि कई अध्ययनों ने जाति के आधार पर महिला श्रम बल भागीदारी (LFP) में गिरावट का विश्लेषण किया है, लेकिन इसके अपेक्षित परिणाम विविधतापूर्ण और कभी-कभी परस्पर विरोधी रहे हैं। इसके लिए शिक्षा को एक मुख्य आयाम माना गया, जिसमें उच्च-जातीय महिलाओं का ऐतिहासिक रूप से प्रभुत्व रहा है और बाद में यह उन्हें बेहतर रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराता है।
  • यद्यपि, आरक्षण से लाभान्वित होने वाली निम्न जाति की महिलाएं अक्सर सरकारी नौकरियों का विकल्प चुन रही हैं। फिर भी, ऐसे कई उदाहरण हैं जहां उच्च-जातीय महिलाएं सबसे कम श्रम भागीदारी दर प्रदर्शित करती हैं। दूसरी तरफ आर्थिक अस्थिरता के कारण जैसे-जैसे हम निम्न जातियों के पदानुक्रम में नीचे जाते हैं और महिलाओं की हिस्सेदारी श्रम बाजार में पाते हैं तब महिला एलएफपी दर बढ़ती जाती है।

जटिल अंतःक्रिया को सुलझाना

  • सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (एसईसीसी) 2011 के आंकड़ों के आधार पर, वर्तमान अध्ययन चुनिंदा राज्यों; यथा - बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में तहसील स्तर पर श्रम बल भागीदारी की समीक्षा करता है।
  • इस अध्ययन में उच्च आय और महिला-नेतृत्व वाले परिवारों के प्रतिशत तथा कम आय और निम्न-जाति के परिवारों के अनुपात के बीच परस्पर क्रिया जैसे कारकों को शामिल किया गया है। इस विश्लेषण के अनुसार ग्रामीण अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं का एल. एफ. पी. दो प्राथमिक स्थितियों के तहत बढ़ता हैः

o   निचली जाति के परिवारों की अधिक संख्या और

o   आर्थिक रूप से वंचित महिला-नेतृत्व वाले परिवारों की उच्च व्यापकता।

आर्थिक भागीदारी में लैंगिक बाधाएँ:

·       वर्तमान आर्तिक परिदृश्य में लिंग आधारित चुनौतियाँ कई मायनों में यथावत हैं, क्योंकि महिलाएँ आज भी सामाजिक अपेक्षाओं के बावजूद आर्थिक गतिविधियों में योगदान देने का प्रयास करती हैं। तथापि घरेलू-देखभाल कार्य और घरेलू जरूरतों के प्रबंधन के लिए महिलाएं प्राथमिक नेतृत्वकर्ता हैं, जो अक्सर उन्हें कार्यबल में भाग लेने से रोकती हैं।

·       कानूनी और आर्थिक बाधाएँ भी महिलाओं के रोजगार पाने में बाधा डालती हैं, जैसे कई कंपनियों के कानून महिलाओं को रात्रीय पाली (Night Shift) में काम करने से रोकते हैं।

·       गैर-कृषिगत अनौपचारिक क्षेत्र में, जहां पितृसत्तात्मक मानदंड प्रतिबंधात्मक प्रकृति के होते हैं; महिला प्रधान परिवारों की महिलाएं राजस्व उत्पन्न करने के लिए रोजगार को विकल्प बनाती हैं।

·       सामाजिक और पितृसत्तात्मक बाधाओं के बावजूद, अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी; अवैतनिक घरेलू कार्य में संलग्न होने की तुलना में श्रम बाजार के दृष्टिकोण से वांछनीय मानी जाती है।

जातिगत और लैंगिक भेदभाव की अंतःविभाज्यता:

·       निम्न जाति के परिवार अनौपचारिक क्षेत्र में उच्च महिला एल. एफ. पी. दर्शाते हैं, जो आर्थिक बाधाओं और सीमित सामाजिक गतिशीलता से प्रेरित है। ऐतिहासिक रूप में, निम्न जाति के महिलाओं से, लैंगिक पूर्वाग्रह की परवाह किए बिना, शारीरिक और घरेलू कार्यों में संलग्न होने की अपेक्षा की जाती थी।  जहां पुरुष भारी शारीरिक श्रम करते थे, वहीं महिलाएं उच्च जाति के घरों में घरेलू कार्यों में सहायता करती थीं। यह संरचनात्मक अपेक्षा कार्यबल में निम्न जाति की महिलाओं की श्रम भागीदारी का एक महत्वपूर्ण चालक भी है।

·       महिलाओं के रोजगार में एक स्पष्ट जाति पैटर्न के बावजूद, निम्न जाति की महिलाएं अपने उच्च जाति के समकक्षों की तुलना में उच्च श्रम भागीदारी दर प्रदर्शित करती हैं।

·       आर्थिक असमानता के परिणामस्वरूप अक्सर निम्न जाति की महिलाओं का एक व्यापक हिस्सा आज भी अशिक्षित है, जो उन्हें अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने के लिए बाध्य करता है।  हालांकि, इनमें से कुछ लोग जो स्कूल से परे शिक्षा प्राप्त करने का प्रबंधन करते हैं, वे राज्य की सकारात्मक कार्रवाई नीतियों से लाभान्वित होकर औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश पाते हैं; विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में।

·       इस समय कृषि सहित अन्य परिवर्तित आकस्मिक (अस्थायी श्रम) और वेतनभोगी कार्यों की अपेक्षा की जा रही है। हालाँकि, ये परिवर्तन सभी समुदायों में एक समान नहीं हैं, जिससे रोजगार के अवसरों में अंतर उत्पन्न होता है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच, सामाजिक नेटवर्क का प्रभाव और प्रचलित भेदभाव इन परिणामों में प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में चिन्हित हैं। वर्ष 2023 की द स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट विशेष रूप से पारंपरिक शिल्प में लगे मुस्लिम समुदायों के सामने आने वाली चुनौतियों को भी रेखांकित करती है, क्योंकि उन्हें अपनी आजीविका में विविधता लाने में कई प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

·       उपर्युक्त बातों के अलावा, उच्च जाति की शिक्षित महिलाओं में, सामाजिक मानदंडों को चुनौती देते हुए, औपचारिक क्षेत्र में कार्य करने की अधिक संभावनाएं हैं। इस प्रकार शैक्षिक अवसर जाति से जुड़े आर्थिक असमानता के चक्र को तोड़ने और औपचारिक रोजगार का मार्ग प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

महिलाओं की भागीदारी का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव:

·       महिलाएं भले ही अनौपचारिक या औपचारिक अर्थव्यवस्था में लगी हों, उनकी भागीदारी का व्यक्तिगत सशक्तिकरण और व्यापक समाज; दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वर्तमान में किये गए कई अध्ययनों से पता चलता है, कि एक महिला की राजस्व उत्पन्न करने की क्षमता उसके और उसके परिवार के लिए निर्णयन की क्षमता को बढ़ाती है।

·       इसके अलावा शिक्षा और रोजगार; महिलाओं के विलंबित विवाह और प्रसव सहित मातृ उपार्जन क्षमता और बच्चे के स्कूल जाने की संभावना को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। संसाधनों पर नियंत्रण रखने वाली महिलाएं घरेलू हिंसा के प्रति कम संवेदनशील होती हैं और अधिक गतिशीलता का अनुभव करती हैं।

नीतिगत परिदृश्य और सीमाएँ:

·       स्व-रोजगार को समर्थन देने के लिए बनाई गई मुद्रा योजना जैसी नीतियाँ श्रम बाजार की उभरती गतिशीलता को संबोधित करने के लिए लागू की गई हैं। हालाँकि, रिपोर्ट बताती है, कि व्यवसायों के विस्तार पर उनका प्रभाव सीमित है। फिर भी लैंगिक वेतन अंतर कम हो गया है, जिसका श्रेय बढ़ती शिक्षा और उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियों में महिलाओं की सहभागिता को जाता है, यह महिला श्रमबल भागीदारी में उनकी स्थिति को मजबूत करता है।

अन्य नीतिगत आह्वान:

·    इस समय श्रम क्षेत्र में ऐसी नीतियों की आवश्यकता है जो शैक्षिक असमानताओं को दूर करें, कौशल पहल को बढ़ाएं और गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसरों के लिए अवसर तैयार करें। 2023 की द स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया रिपोर्ट सांख्यिकीय सुधारों से परे, भारत के श्रम बाजार की सूक्ष्म वास्तविकताओं पर जोर देती है, समावेशी आर्थिक विकास की सिफारिश करती है।

निष्कर्ष:

·    भारत के श्रम बाजार में लैंगिक और जातिगत विविधता महिलाओं, विशेषकर निम्न जातियों की महिलाओं; के सामने आने वाली बहुमुखी चुनौतियों को रेखांकित करती है। इस अध्ययन से प्राप्त अंतर्दृष्टि भारतीय श्रमबल में लैंगिक और जातिगत असमानताओं को संबोधित करते हुए अधिक समावेशी नीतियां बनाने के प्रयासों को प्रमुखता देती है। लिंग, जाति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के बीच सूक्ष्म अंतरसंबंध को समझकर, नीति निर्माता ऐसी नीति तैयार कर सकते हैं, जो महिलाओं को सशक्त बनाते हों, भेदभाव के चक्र को तोड़ते हुए अधिक न्यायसंगत और प्रबुद्ध भविष्य को बढ़ावा देते हों।

 

यूपीएससी मुख्य परीक्षा से संभावित प्रश्न:

1.    भारतीय श्रम बाजार, विशेषकर अनौपचारिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में लैंगिक चुनौतियों में सामाजिक अपेक्षाएं, कानूनी बाधाएं और आर्थिक कारक कैसे योगदान करते हैं? (10 अंक, 150 शब्द)

2.    जाति और लिंग पूर्वाग्रह के अंतर्संबंध पर अध्ययन के निष्कर्षों के संदर्भ में, निम्न जातियों की महिलाओं द्वारा कार्य की प्रकृति को आकार देने में शिक्षा क्या भूमिका निभाती है, और इससे जुड़े आर्थिक नुकसान को दूर करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई नीतियों का कैसे लाभ उठाया जा सकता है? चर्चा करें।(15 अंक, 250 शब्द)

 

स्रोत: - The Hindu

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