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Daily-current-affairs / 30 Jun 2023

मंत्रियों को बर्खास्त करने में राज्यपाल की संवैधानिक सीमाएँ - डेली न्यूज़ एनालिसिस

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तारीख (Date): 01-07-2023

संदर्भ : जीएस पेपर 2 - गवर्नर।

की-वर्ड : प्रसादपर्यंत का सिद्धांत, संवैधानिक ढांचा, भारत सरकार अधिनियम, 1935, संवैधानिक प्रमुख ।

सन्दर्भ :

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने राज्य सरकार में मंत्री सेंथिल बालाजी को बर्खास्त कर दिया।यद्यपि उन्होंने यह आदेश कानूनी सलाह लिए बिना जारी कर दिया था, बाद में केंद्रीय गृहमंत्री से वार्ता के पश्चात देर रात अपना निर्णय निलंबित कर दिया। सेंथिल इस समय ईडी की हिरासत में हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। उन पर नौकरी के बदले पैसे वसूलने समेत अन्य घोटाले का आरोप है। राज्यपाल आरएन रवि की इस कार्यवाही ने राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों और राज्य सरकारों पर उनके संभावित प्रभाव पर बहस छेड़ दी है। यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि क्या राज्यपालों के पास मुख्यमंत्री की सिफारिश के बिना व्यक्तिगत रूपसे मंत्रियों को बर्खास्त करने का अधिकार है, और तर्क दिया गया है कि इस तरह की कार्रवाइयां संघीय प्रणाली और संवैधानिक ढांचे को कमजोर कर सकती हैं।

मंत्रियों को बर्खास्त करने की राज्यपालों की शक्ति

संविधान के अनुच्छेद 164 के तहत मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है, लेकिन अन्य मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की सलाह के आधार पर की जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि राज्यपाल अपने विवेक से किसी मंत्री को नियुक्त नहीं कर सकते हैं और केवल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही किसी मंत्री को बर्खास्त कर सकते हैं।

मंत्रियों को चुनने और बर्खास्त करने का विवेक मुख्यमंत्री के पास है, जो लोगों के प्रति जवाबदेह है। संविधान राज्यपाल को इस विवेकाधिकार का प्रयोग करने का अधिकार नहीं देता है।

राज्यपालों की भूमिका को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधान

  • भारत में राज्यपालों की नियुक्ति और शक्तियों से संबंधित प्रावधान भारतीय संविधान के भाग VI में दिए गये हैं। अनुच्छेद 153 में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा, और एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकेगा है।
  • राज्यपाल दोहरी भूमिका का निर्वाह करता है, एक राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में और दूसरा राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में। यह स्थिति भारतीय राजनीति के संघीय ढांचे को बनाए रखने, केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करने के लिए महत्वपूर्ण है।
  • राज्यपाल पद के लिए पात्रता संविधान के अनुच्छेद 157 और अनुच्छेद 158 में उल्लिखित हैं। उसकी योग्यता में, भारत का नागरिक होना, कम से कम 35 वर्ष की आयु का होना, संसद या राज्य विधानमंडल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं होना और लाभ का कोई पद धारण नहीं करना, शामिल है।
  • सामान्यतया राज्यपाल का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है। यद्यपि , कुछ परिस्थितियों में कार्यकाल पहले भी समाप्त किया जा सकता है। राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह पर, राज्यपाल को बर्खास्त कर सकते हैं। ध्यातव्य है कि बिना किसी वैध कारण के बर्खास्तगी की अनुमति नहीं है। यदि राज्यपाल के कार्यों को अदालतों द्वारा असंवैधानिक और दुर्भावनापूर्ण माना जाता है तो राष्ट्रपति राज्यपाल को बर्खास्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त, राज्यपालों के पास अपने पद से इस्तीफा देने का विकल्प होता है।
  • संघवाद के सिद्धांतों को कायम रखने और राज्य सरकारों के प्रभावी कामकाज को सुनिश्चित करने में राज्यपालों की भूमिका महत्वपूर्ण है। वे केंद्र और राज्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और देश के समग्रतापूर्ण एकीकृत शासन में योगदान देते हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: भारत सरकार अधिनियम, 1935

भारत सरकार अधिनियम, 1935 को देखने पर इस विवाद में और अधिक स्पष्टताआती है। अधिनियम की धारा 51(1) में कहा गया है कि "राज्यपाल के मंत्रियों को उनके द्वारा चुना जाएगा और बुलाया जाएगा, परिषद के सदस्यों के रूप में शपथ दिलाई जाएगी, और राज्यपाल के पर्साद्पर्यंत पद पर बने रहेंगे।" यह खंड स्थापित करता है कि मंत्री राज्यपाल द्वारा चुने जाते हैं और उनकी इच्छानुसार कार्य करते हैं। धारा 51 की उपधारा 5 आगे पुष्टि करती है कि राज्यपाल मंत्रियों को चुनने और बर्खास्त करने और उनके वेतन निर्धारित करने में स्वविवेक का प्रयोग करते हैं।

भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रावधानों से, दो प्रमुख बिंदु उभर कर सामने आते हैं: मंत्रियों का चयन राज्यपाल द्वारा किया जाता है, और उनकी बर्खास्तगी राज्यपाल के विवेक पर निर्भर करती है। इस दृष्टिकोण ने औपनिवेशिक शासन के दौरान मनमाने ढंग से नियुक्ति और बर्खास्तगी की अनुमति दी।

संवैधानिक प्रमुख के रूप में राज्यपाल

तमिलनाडु के राज्यपाल की वर्तमान कार्रवाइयां स्वतंत्र भारत में राज्यपालों को प्रदत्त शक्तियों की भ्रान्ति का संकेत देती हैं। भारत की संवैधानिक व्यवस्था में, राज्यपाल केवल संवैधानिक प्रमुख हैं और केवल मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर कार्य कर सकते हैं।

भारतीय संविधान का मसौदा बनाने वाली समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ.बी.आर. अंबेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि संविधान के तहत राज्यपालों के पास कोई स्वतंत्र कार्यकारी कार्य नहीं हैं। इसलिए, मंत्रियों का चयन और बर्खास्तगी अब राज्यपाल के विवेक के अंतर्गत नहीं आती है। किसी मंत्री को चुनने और हटाने की सिफारिश करने का अधिकार मुख्यमंत्री के पास है।

प्रसाद्पर्यांत का सिद्धांत

प्रसाद्पर्यांत का सिद्धांत अंग्रेजी सिविल कानून से ली गई एक अवधारणा है, जिसके तहत क्राउन किसी भी समय अपने कार्यरत किसी भी व्यक्ति की सेवाओं को समाप्त कर सकता है। भारत में, संविधान के अनुच्छेद 310 के अनुसार संघ की रक्षा या सिविल सेवा में प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्रपति की इच्छा पर पद धारण करता है, और राज्यों में सिविल सेवा का प्रत्येक सदस्य राज्यपाल की इच्छा पर पद धारण करता है। हालाँकि, अनुच्छेद 311 एक सिविल सेवक को हटाने पर प्रतिबंध लगाता है। यह सिविल सेवकों को उनके खिलाफ आरोपों पर सुनवाई के लिए उचित अवसर दिए जाने का प्रावधान करता है। यदि जांच करना व्यावहारिक नहीं है, या राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में ऐसा करना समीचीन नहीं है, तो जांच से छूट देने का भी प्रावधान है। व्यावहारिक रूप से, यहां उल्लिखित राष्ट्रपति की इच्छा केंद्र सरकार की इच्छा है, और राज्यपाल की इच्छा राज्य सरकार की इच्छा है।

प्रसाद्पर्यांत का सिद्धांत राज्यपाल के सन्दर्भ में

प्रसाद्पर्यांत का सिद्धांत भारत सरकार अधिनियम, 1935 से भारतीय संविधान में शामिल किया गया है, यह ध्यातव्य है कि अनुच्छेद 164 का मसौदा तैयार करते समय "चयन," "बर्खास्तगी," और "विवेक" शब्द हटा दिए गए थे। यह चूक दर्शाती है कि संविधान राज्यपाल को किसी मंत्री को चुनने या बर्खास्त करने का कोई विवेकाधिकार नहीं देता है।

न्यायिक स्पष्टीकरण

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से संवैधानिक व्यवस्था में राज्यपालों की स्थिति स्पष्ट की है। शमशेर सिंह और नबाम रेबिया मामलों में, अदालत ने माना कि राज्यपाल अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग केवल अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार और अनुच्छेद 163(1) में परिभाषित सीमित विवेकाधीन शक्तियों के साथ कर सकते हैं। न्ययालय ने पूर्व निर्णयों को भी अमान्य कर दिया, जिन्होंने राज्यपालों को अनुच्छेद 164 के तहत निरंकुश शक्ति प्रदान की थी।

निष्कर्ष

तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह के बिना किसी मंत्री को बर्खास्त करना संवैधानिक रूप से गलत है। इस तरह की कार्रवाइयां संवैधानिक व्यवस्था को बाधित कर सकती हैं और राज्य सरकारों की स्थिरता के बारे में चिंताएं बढ़ा सकती हैं। यद्यपि राज्यपाल द्वारा बाद में कानूनी परामर्श के लिए बर्खास्तगी आदेश को निलंबित कर दिया गया है , परन्तु मुख्यमंत्री की सलाह के बिना किसी मंत्री को बर्खास्त करने का मुद्दा संवैधानिक ढांचे के लिए खतरा बना हुआ है।

मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न

  1. राज्य सरकारों में मंत्रियों की नियुक्ति और बर्खास्तगी के संबंध में भारत में राज्यपालों की संवैधानिक शक्तियों पर चर्चा करें। संघीय व्यवस्था और संवैधानिक ढांचे के निहितार्थों पर प्रकाश डालते हुए, मुख्यमंत्री की सिफारिश के बिना राज्यपालों द्वारा मंत्रियों को बर्खास्त करने के संभावित परिणामों की जांच करें। (10 अंक, 150 शब्द)
  2. भारत में राज्यपालों की शक्तियों पर ऐतिहासिक और न्यायिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण करें, विशेष रूप से भारत सरकार अधिनियम, 1935 और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के सन्दर्भ में । मंत्रियों को बर्खास्त करने में राज्यपालों के विवेक और नियुक्ति और निष्कासन प्रक्रिया में मुख्यमंत्रियों की भूमिका के संबंध में लेख में प्रस्तुत तर्कों का मूल्यांकन करें। (15 अंक, 250 शब्द)

Source – The Hindu

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