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Daily-current-affairs / 12 Apr 2024

भारतीय राज्यों में बेरोजगारी की प्रवृति

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सन्दर्भ:

भारत में बेरोजगारी एक व्यापक और जटिल चुनौती है, जो देश की युवा आबादी की आकांक्षाओं को सीमित करती है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और मानव विकास संस्थान (IHD) द्वारा उल्लेखित, बेरोजगारी की समस्या विशेष रूप से युवा स्नातकों के बीच गंभीर रूप ले चुकी है, जिस कारण लक्षित नीतिगत हस्तक्षेपों की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है। हालांकि, केंद्र शासित प्रदेशों को छोड़कर, भारत के प्रमुख राज्यों में बेरोजगारी के परिदृश्य का गहन विश्लेषण किया जाए, तो यह स्पष्ट होता है कि बेरोजगारी के पीछे कई जटिल कारक कार्य कर रहे हैं। वर्ष 2022-23 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) के आंकड़ों का उपयोग करते हुए, यह विश्लेषण बेरोजगारी के मूल कारणों की गहन जांच करता है और इस मुद्दे को संबोधित करने के लिए संभावित समाधानों का सुझाव भी देता है।

भारत में बेरोजगारी: एक अवलोकन

वर्ष 2022-23 के दौरान भारतीय राज्यों में बेरोजगारी दरों का परिदृश्य विषमताओं और सूक्ष्म क्षेत्रीय रुझानों को दर्शाता है। 10% के करीब बेरोजगारी दर के साथ, गोवा इसका एक प्रमुख उदाहरण है, इसकी बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से तीन गुना अधिक है। उल्लेखनीय है, कि उच्च बेरोजगारी से जूझ रहे शीर्ष पांच राज्यों में से चार - गोवा, केरल, हरियाणा और पंजाब - तुलनात्मक रूप से अधिक आर्थिक समृद्धि वाले राज्य हैं। इसके विपरीत, पश्चिमी भारत में आर्थिक शक्ति के केंद्र, महाराष्ट्र और गुजरात, राष्ट्रीय औसत से काफी कम बेरोजगारी दरों को प्रदर्शित करते हैं। हालाँकि अन्य विश्लेषण, एक क्षेत्रीय पैटर्न दर्शाते हैं, जिसमें जम्मू और कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे उत्तरी राज्य सहित अधिकांश दक्षिणी राज्य (कर्नाटक को छोड़कर), राष्ट्रीय औसत से अधिक बेरोजगारी दरें दर्ज करा रहे हैं।

एक विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि विचाराधीन 27 राज्यों में से 12 राज्य राष्ट्रीय औसत से कम बेरोजगारी दर दिखाते हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश, अपनी जनसांख्यिकीय विविधता के बावजूद, इस प्रवृत्ति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, हालांकि उनकी प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम है। यह पारस्परिक अंतर्संबंध आर्थिक संकेतकों और बेरोजगारी की गतिशीलता के बीच एक जटिल प्रक्रिया को रेखांकित करता है। यह अंतर्संबंध वर्तमान बेरोजगारी दर के परिदृश्य को आकार देने वाले अंतर्निहित निर्धारकों पर त्वरित कार्रवाई का आह्वान करता है।

बेरोजगारी के निर्धारक:

भारतीय राज्यों में बेरोजगारी दर और श्रम बल में स्व-रोजगार की व्यापकता के बीच परस्पर अन्तःक्रिया रोजगार के निर्धारक तत्वों में गिरावट की स्पष्ट प्रवृत्ति के साथ-साथ नकारात्मक संबंध का संकेत देती है। साथ ही साथ यह सुझाव देती है कि स्व-नियोजित व्यक्तियों के उच्च अनुपात का दावा करने वाले राज्य कम बेरोजगारी दर प्रदर्शित करते हैं। फिर भी, कारण अस्पष्ट है; क्या स्व-रोजगार के अवसरों की कमी उच्च बेरोजगारी को बढ़ावा देती है, या क्या बेरोजगारी से जूझ रहे राज्यों में स्व-रोजगार उद्यमों को अपनाने के लिए व्यक्तियों के बीच अनिच्छा देखी जाती है? इस सन्दर्भ में सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता के जटिल तंत्रों की सूक्ष्म समझ की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है।

शहरी-ग्रामीण विभाजन बेरोजगारी की भूलभुलैया प्रकृति को उजागर करती है। श्रम बल के शहरी हिस्से और बेरोजगारी दर के बीच सकारात्मक संबंध अत्यधिक शहरीकृत राज्यों के भीतर बेरोजगारी में स्पष्ट वृद्धि को दर्शाता है। यह शहरीकरण और बेरोजगारी की दोहरी बेड़ियों में फंसे गोवा और केरल जैसे राज्यों की दुर्दशा को भी स्पष्ट करती है, जो उत्तर प्रदेश, झारखंड और मध्य प्रदेश जैसे कृषि-निर्भर राज्यों में अपेक्षाकृत उत्साहजनक रोजगार परिदृश्य के विपरीत है। वास्तव में, शहरी आकांक्षाओं और ग्रामीण लचीलेपन के इस तुलनात्मक विश्लेषण में बेरोजगारी की चुनौती की जटिलता स्पष्ट होती है, जो इस बहुआयामी समस्या से निपटने के लिए सुनियोजित नीतिगत हस्तक्षेपों की आवश्यकता को रेखांकित करती है।

शिक्षा और रोजगार का जटिल सम्बन्ध:

बेरोजगारी की इस भूलभुलैया में, शिक्षा और रोजगार के बीच का संबंध विवाद का मात्र एक केंद्र बिंदु बनकर रह गया है। भारतीय राज्यों में स्नातक श्रमबल की व्यापकता और बेरोजगारी दरों के बीच सकारात्मक संबंध नीति निर्माताओं के सामने विरोधाभासी वास्तविकता को उजागर करता है। केरल, अपने उच्च शिक्षित श्रमबल के साथ, बेरोजगारी दरों में वृद्धि से जूझ रहा है, जो स्नातक श्रमबल के अपेक्षाकृत कम अनुपात वाले गुजरात और महाराष्ट्र में देखे गए आंकड़ों के विपरीत है। यह विरोधाभास हमें इस असंगति को जन्म देने वाले अंतर्निहित कारकों की गहन जांच करने का आह्वान करता है, जो कि सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के जटिल ताने से बुना हुआ एक परिदृश्य दर्शाता है।

क्या यह संभव है कि डिग्री प्राप्त स्नातक, आवश्यक कौशल से रहित होने के कारण, खुद को आधुनिक क्षेत्र की आवश्यकताओं के अनुरूप पाएं ? या बेरोजगारी के निर्धारक कारक स्नातकों की आकांक्षाओं और श्रम बाजारों की वास्तविकताओं के बीच के विसंगति से उत्पन्न हुआ है? ये प्रश्न शैक्षिक पाठ्यक्रम और उद्योग की अनिवार्यताओं के बीच तालमेल बिठाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं जो पारंपरिक ढांचे को पार कर भविष्य की मांगों के लिए तैयार कार्यबल का पोषण करता है।

भविष्य की राह

उपर्युक्त विश्लेषणों के आधार पर, आगे का रास्ता तय करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की मांग है जो बेरोजगारी के मूल कारणों को दूर करने के लिए पारंपरिक ढांचे को का विरोध करता है। इस समय शैक्षणिक बुनियादी ढांचे को मजबूत करना एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसके अलावा शिक्षाशास्त्रीय प्रतिमानों से आगे बढ़ाते हुए समग्र कौशल विकास पहल को अपनाना चाहिए, जो तेजी से बदलते नौकरी बाजार की मांगों के अनुरूप हो। साथ ही, नीतिगत हस्तक्षेपों को शहरी-ग्रामीण विभाजन को दूर कर समावेशी विकास को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि कृषि अर्थव्यवस्थाओं की लचीलापन का लाभ उठाते हुए शहरी केंद्रों के नवाचार और रोजगार की क्षमता का उपयोग किया जा सके।

इस समय भारत बेरोजगार संबंधी नीति निर्माण एक चौराहे पर खड़ा है, जो इस विश्लेषण से प्राप्त अंतर्दृष्टि से युक्त हैं। विभिन्न क्षेत्रों में साझेदारी बनाकर, शिक्षा जगत और उद्योग के बीच तालमेल बिठाकर, उद्यमशीलता के लिए अनुकूल पारिस्थितिकी तंत्र का पोषण करके, हम ऐसे भविष्य की राह प्रशस्त कर सकते हैं जहां हर व्यक्ति को सार्थक रोजगार में पूर्णता और अवसर मिले।

 

यूपीएससी मुख्य परीक्षा के लिए संभावित प्रश्न:

  1. भारतीय राज्यों में स्व-रोजगार, शहरीकरण और बेरोजगारी दर के बीच अंतरसंबंध पर चर्चा करें। बेरोजगारी को संबोधित करने के उद्देश्य से नीतिगत हस्तक्षेपों के निहितार्थों पर प्रकाश डालें। (10 अंक, 150 शब्द)
  2. भारतीय राज्यों में स्नातक श्रम प्रसार और बेरोजगारी दर के बीच विरोधाभासी संबंध का विश्लेषण करें। बेरोजगारी की चुनौतियों को कम करने के लिए शैक्षिक परिणामों को उद्योग की मांगों के साथ संरेखित करने के लिए रणनीतियों का प्रस्ताव करें। (15 अंक, 250 शब्द)

स्रोत- हिंदू

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