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Blog / 21 Jul 2019

(Global मुद्दे) अफ़ग़ानिस्तान में शांति के प्रयास (Peace Efforts in Afghanistan)

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(Global मुद्दे) अफ़ग़ानिस्तान में शांति के प्रयास (Peace Efforts in Afghanistan)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): कमर आगा (कूटनीतिक मामलों के जानकार), विवेक काटजू (पूर्व राजदूत)

चर्चा में क्यों

8 व 9 जून को दोहा में अफ़ग़ान - तालिबान शांति वार्ता हुई। इस बैठक का मक़सद अफगानिस्तान और तालिबान के बीच शांति का रोडमैप तैयार करने की थी। ये वार्ता जर्मनी और कतर के सहयोग से आयोजित हुई थी। दो दिवसीय इस सभा में क़रीब 70 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया जिसमें अफगानिस्तान के कई कद्दावर नेता शामिल रहे। बैठक को तालिबान और अफगान प्रतिनिधिमंडल ने युद्ध को समाप्त करने की दिशा में एक प्रमुख कदम बताया और कहा कि भविष्य के राजनीतिक समझौते के लिए ये बैठक अहम होगी।

अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने तालिबान को अफ़ग़ान सरकार के साथ संघर्ष विराम के लिए बुलाई बैठक

11 - 12 जुलाई को अमेरिका, रूस, चीन और पाकिस्तान ने तालिबान को अफ़ग़ान सरकार के साथ संघर्ष विराम के लिए एक बैठक बुलाई थी। ये बैठक चीन के बीजिंग में हुई थी। अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा 12 जुलाई को जारी एक बयान के अनुसार, चारो देशों ने व्यापक और स्थायी युद्ध विराम के लिए सभी पक्षों को हिंसा को कम करने के लिए प्रोत्साहित किया। इस बैठक में चारो देशों ने तालिबान, राष्ट्रपति अशरफ़ गनी की सरकार और अन्य अफ़गानों से सीधे बातचीत करने पर ज़ोर डाला जिससे जल्द से जल्द शांति ढांचे का निर्माण किया जाए।

तालिबान अमेरिका वार्ता - जून 2019

संयुक्त राज्य के अधिकारी और तालिबान प्रतिनिधि अफ़ग़ानिस्तान में 18 साल से चल रहे युद्ध को समाप्त करने के लिए अब तक कुल सात दौर की बातचीत हो चुकी है। जून महीने के आख़िर में हुई इस वार्ता में चार अहम मुद्दे जिसमें -आतंकवाद, विदेशी सैनिकों की अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदगी, अफगान वार्ता और हमेशा के लिए युद्धविराम जैसे मसले शामिल रहे। ख़बरों के मुताबिक़ संकेत ये है अमेरिका और तालिबान दोनों ही एक दूसरे को कुछ भरोसा देंगे। इस भरोसे में तालिबान अफ़ग़ान सरकार से बातचीत, संघर्ष विराम और अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को हटाए जाने जैसी बातें सामने आ रही हैं। अमेरिका ने कहा है कि वो सितंबर में अफ़ग़ानिस्तान में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले तालिबान के साथ एक राजनैतिक समझौते पर पहुंचना चाहता है ताकि विदेश सैनिकों को देश से वापस बुलाया जा सके।

बदला है तालिबान का रुख़

तालिबान पहले अफ़ग़ान सरकार से बातचीत के लिए राज़ी नहीं था। तालिबान का कहना ये रहा है कि कि सरकार तो कठपुतली है जबकि सरकार अमेरिका चलाती है। मौजूदा वक़्त में तालिबान का रुख़ बदला है। कुछ महीने पहले मॉस्को में हुई अमेरिका - तालिबान वार्ता के दौरान तालिबान गुट का नेतृत्व कर रहे अब्बास तानिकज़ई ने दावा किया था कि - महिलाओं को अब हमसे डरने की ज़रूरत नहीं है। वो इस्लामिक क़ानून और इस्लाम संस्कृति के मुताबिक़ महिलाओं को हर अधिकार देंगे और महिलाएं उनके शासन में महफूज़ रहेंगी। इसके अलावा तालिबान ने एक संकेत ये भी दिया है कि वो संविधान को भी बदलना चाहते हैं, क्यूंकि उनके मुताबिक़ मौजूदा संविधान पश्चिमी देशों से लिया गया है। तालिबान प्रतिनिधिमंडल के मुखिया अब्बास तानिकज़ई ने कहा था कि - तालिबान समूह ताक़त के बल पर पूरी दुनिया पर कब्ज़ा नहीं करना चाहता है, और न ही इससे अफ़ग़ानिस्तान में शांति की आएगी।

अफ़ग़ानिस्तान में अब हिंसा की स्थिति क्या है?

अमरीका के स्पेशल इंस्पेक्टर जनरल फ़ॉर अफ़ग़ानिस्तान रिकंस्ट्रक्शन (सिगार) की एक रिपोर्ट के मुताबिक- अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान का नियंत्रण पिछले कुछ महीनों में बढ़ा है। । विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया के उपनिदेशक माइकल कगलमैन ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा ख़तरनाक स्तर तक पहुंच गई है। उन्होंने कहा -हिंसा के बढ़ते स्तर को तेज़ी से बढ़ती तालिबानी हिंसा के रूप में बताया गया है और अफ़ग़ान सुरक्षाबलों की कमज़ोर स्थिति को दर्शाता है।

अफ़ग़ानिस्तान के कितने भूभाग पर है तालिबान का नियंत्रण

सिगार की त्रैमासिक रिपोर्ट के अनुसार अफ़गान सरकार का देश के 55.5 फ़ीसदी इलाके पर नियंत्रण है अफ़ग़ानिस्तान की आधी आबादी उन इलाक़ों में रह रही है, जिन पर तालिबान का नियंत्रण है। दूसरे शब्दों में समझें तो क़रीब डेढ़ करोड़ लोग ऐसे इलाकों में रह रहे हैं, जहां तालिबान का प्रभुत्व है और आए दिन हमले होते रहते हैं।

कहाँ से मिलती है तालिबान को आर्थिक मदद

साल 2011 में इस संगठन की वार्षिक आय लगभग 28 अरब थी। मौजूदा वक़्त में ये आंकड़ा 105 अरब से ज़्यादा है। ख़बरों के मुताबिक़ नशे के करोबार से तालिबान कमाई करता है। दरअसल अफ़ीम सबसे ज़्यादा अफगानिस्तान में ही उगाई जाती है और इन अफीम वाले इलाके में ज़्यादातर पर तालिबान का ही नियंत्रण है।

सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से सैनिकों को बुलाने का अमेरिका ने किया था ऐलान

बीते दिनों अमेरिका ने सीरिया और अफ़ग़ानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने का ऐलान किया था। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप ने सीरिया से सैनिकों को हटाने के पीछे दावा किया था कि अमेरिका ने सीरिया में इस्लामिक स्टेट को हरा दिया है, जबकि अफ़ग़ानिस्तान के मामले में अमेरिका का कहना था कि अमेरिका दूसरे देशों के हित में युद्ध लड़ता है, जिसमें क़रीब 7 अरब डॉलर का खर्च आता है। राष्ट्रपति ट्रंप के मुताबिक़ इन युद्धों से अमेरिका को कोई फायदा नहीं है। इसके अलावा अमेरिकी सैनिकों को खोना भी अमेरिका के लिए भारी नुकसान का कारण बताया जा रहा है, जिसकी वजह से अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुलाना चाहता है।

अफ़ग़ानिस्तान में कब से मौजूद हैं अमेरिकी सैनिक

11 सितंबर 2001 को वॉशिंगटन और न्यूयॉर्क में हुए आतंकी हमले के बाद से अमरीका अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद है। उस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान पर नियंत्रण रखने वाले तालिबान ने इस हमले की ज़िम्मेदारी ली थी। अमेरिका पर किये गए इस हमले के मास्टरमाइंड और अल क़ायदा के नेता ओसामा बिन लादेन को जब तालिबान ने अमेरिका को सौंपने से इनकार किया तो मौजूदा राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ओसामा बिन लादेन का पता लगाने के लिए वहां एक सैन्य अभियान छेड़ा । इस हमले में तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता गंवा दी। क़रीब 10 वर्षों के इंतजार के बाद ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में मिला जिसे 2 मई 2011 को जलालाबाद के ऐबटाबाद में लादेन को अमरीकी नेवी सील कमांडो ने मार दिया।

आधिकारिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी नेतृत्व वाले युद्ध अभियान 2014 में समाप्त हो गये थे। लेकिन इसके बाद से तालिबान की ताक़त में काफ़ी इजाफ़ा हुआ और उनकी पहुंच भी काफी बढ़ गई। लिहाजा अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता कायम करने के प्रयास के मद्देनज़र अपने सैनिक को वहां रोके रखा।

कैसे हुआ तालिबान उदय?

90 के दशक में तालिबान का उदय उस वक़्त हुआ था जब अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। उस वक़्त लोगों को देश में शांति कायम होने की उम्मीद थी। यही वजह थी कि उन्होंने शुरुआती दौर में तालिबान का स्वागत भी किया। इसकी एक वजह ये भी थी कि सोवियत संघ की सेना की वापसी के बाद से वहां पर कई छोटे-छोटे गुट बन गए थे। इसकी वजह से वहां पर गृहयुद्ध छिड़ने की आशंका बढ़ गई थी। धार्मिक आयोजनों और मदरसों के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान में अपनी जड़ें मज़बूत करने वाले तालिबान को सऊदी अरब से फंडिंग भी की जाती थी।

तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। अपने शुरुआती दौर में तालिबान ने भ्रष्ट्राचर, अव्यवस्था पर अंकुश लगाया और अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया। 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्जा कर लिया। 1996 में तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगागनिस्तान की राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। 1997 के अंत तक तालिबान ने अफगानिस्तान के करीब 90 फीसद हिस्से पर कब्जा कर लिया था। तालिबान के पूरे शासनकाल में उसको केवल केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी। इसमें पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब शामिल था।

भारत अफ़ग़ानिस्तान सम्बन्ध

अफ़ग़ानिस्तान दक्षिण एशिया में भारत का महत्वपूर्ण साझेदार है। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध काफी मज़बूत हैं। 1980 के दशक में भारत-अफगान संबंधों को एक नई पहचान मिली थी, लेकिन 1990 के अफ़ग़ान -गृहयुद्ध और वहाँ तालिबान के आ जाने से दोनों देशों के संबंध ख़राब होते चले गए। भारत अफ़ग़ान संबंधों को मज़बूती साल 2001 में मिली जब तालिबान सत्ता से बाहर हो गया।

अफ़ग़ानिस्तान में भारत के सहयोग से निर्माण परियोजनाओं पर काम चल रहा है। भारत ने अब तक क़रीब तीन अरब डॉलर की सहायता अफ़ग़ानिस्तान को दी है। इसके अलावा भारत अफ़ग़ानिस्तान में कई मानवीय व विकासशील परियोजनाओं पर काम के साथ कला, संस्कृति, संगीत और फ़िल्मों के ज़रिए भी अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने समबन्धों को विस्तार दे रहा है। अफ़ग़ानिस्तान के मामले में भारत की सॉफ्ट पॉवर वाली कूटनीति का मक़सद वहां के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ जीतना है, जिससे भारत अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक सांस्कृतिक और राजनीतिक संबंधों की बुनियाद पर अपना असर बढ़ा सके और अफ़ग़ानिस्तान मे नए राष्ट्र के निर्माण और राजनीतिक स्थिरता स्थापित करने में अहम रोल निभा सके। दोनों देश शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सिंचाई, पेयजल, नवीकरणीय ऊर्जा, खेल अवसंरचना और प्रशासनिक अवसंरचना के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।

तालिबान के सत्ता में आने से भारत के साथ रिश्तों पर क्या असर होगा?

भारत अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में जुटा है और कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर काम कर रहा है। इसके अलावा भारत ने अफगानिस्तान में काफी निवेश कर रखा है, जिनपर तालिबानियों के प्रभुत्व में आने पर प्रभावित होने की सम्भावना होगी । मुख्य रूप से कनेक्टिविटी , व्यापार , अंतराष्ट्रीय शांति और मानवीय विकास जैसे कई काम प्रभवित होंगे इसके अलावा भारत को रूस, सेंट्रल एशिया और यूरोप से जोड़ने वाला अफगानिस्तान का रास्ता भी प्रभावित होगा। भारत को अपनी सुरक्षा के लिए अफगानिस्तान को रक्षा सहयोग भी बढ़ाना पड़ सकता है। अफगानिस्तान में पहले भी पाकिस्तान समर्थित तालिबान का शासन रहा है, जिससे भारत के हितों पर काफी असर पड़ा है।

अभी भारत वहां तीन अरब डॉलर की मदद से कई बड़ी परियोजनाओं को लागू कर चुका है। जबकि तीन अरब डॉलर की परियोजनाएं विभिन्न चरणों में है। अफगानिस्तान के 35 राज्यों में भारत की तरफ से 550 परियोजनाएं चलाई जा रही है जो वहां के आम जनता के जीवन स्तर में भारी बदलाव ला रही है। वैश्विक मंच से अफगानिस्तान व भारत लगातार एक स्वर में बोलते हैं। दोनो देश साथ मिल कर पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का खुला विरोध भी.

कैसे किया जाए तालिबानी की बातों पर यक़ीन

लम्बे वक़्त से जारी शांति वार्ता को लेकर माना ये भी जा रहा है कि कहीं ये अफगानिस्तान के लिए गले की फांस न बन जाए। क्यूंकि इसको लेकर कुछ सवाल ऐसे हैं जिनके जवाब सामने आने बाकी हैं।इसमें पहला सवाल तो ये ही है कि- तालिबान की सत्ता में वापसी करने के बाद क्या दनिया की दूसरी सरकारें तालिबान को मान्यता दे देंगी ? दूसरा सवाल ये कि- महिलाओं को लेकर तालिबान ने जो बातें कही हैं वह ज़मीनी हकीकत बनेंगी या नहीं ? तीसरा सवाल ये है कि- तालिबान की जो छवि विश्व मंच पर बनी हुई है वो किस हद तक सुधरेगी ? चौथा सवाल ये है कि- इस बातचीत के बाद यदि तालिबान सत्ता में आ जाता है या फिर नहीं भी आ पाता है तो क्या ये डर नहीं है कि इससे तालिबान का कद और बड़ा हो जायेगा। साथ ही उसका सरकार पर नियंत्रण रखने की भी संभावना रहेगी ? और आख़िरी और छठां सवाल ये कि - किसी आंतकी संगठन की सरकार में सहभागिता आख़िर कितनी जायज़ है ?