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Blog / 27 Mar 2019

(Global मुद्दे) आतंकवाद पर चीन का रुख (China's Stance on Terrorism)

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(Global मुद्दे) आतंकवाद पर चीन का रुख (China's Stance on Terrorism)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): शिवशंकर मुखर्जी (पूर्व सचिव, विदेश मंत्रालय), संजय कपूर (दक्षिण एशियाई मामलों के वरिष्ठ पत्रकार)

चर्चा में क्यों?

पुलवामा हमले के मास्टरमाइंड और जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को एक बार फिर जीवनदान मिल गया। मसूद को संयुक्त राष्ट्र में अंतरराष्ट्रीय आंतकी करार दिए जाने जाने की राह में चीन ने चौथी बार अड़ंगा लगाया है। चीन ने संयुक्त राष्ट्र में अपने वीटो पावर के इस्तेमाल से मसूद का नाम अंतरराष्ट्रीय आंतकी की लिस्ट में नहीं आने दिया।

हालांकि इस प्रस्ताव पर अड़ंगे के बाद सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने चीन को साफ चेतावनी दी है कि अगर वो मसूद अज़हर को लेकर अपने रुख को नहीं बदलेगा तो कार्रवाई के दूसरे विकल्प भी खुले हैं।

क्या है पूरा मामला?

14 फरवरी को जम्मू कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर एक भयानक हमला हुआ था, जिसमें 40 जवान शहीद हो गए। इस हमले की जिम्मेदारी पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली थी।

दरअसल जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान का एक चरमपंथी समूह है और मसूद अज़हर इसका मुखिया है। भारत चाहता है कि मसूद अज़हर को अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी घोषित किया जाए। इसके लिए भारत सुरक्षा परिषद में गुहार लगाता रहा है, लेकिन हर बार चीन ने भारत के प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया।

इस बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ‘‘1267 अल कायदा सैंक्शन्स कमेटी'' के तहत अजहर को आतंकवादी घोषित करने का प्रस्ताव लाया गया। ये प्रस्ताव 27 फरवरी को फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका ने लाया था। लेकिन हमेशा की तरह चीन ने इस बार भी भारत की कोशिश को झटका देते हुए वर्तमान प्रस्ताव में रोड़े अटका दिए। चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसे वैश्विक आतंकी घोषित करने वाले प्रस्ताव पर तकनीकी रोक लगा दी।

भारत ने क्या प्रतिक्रया दी?

भारत के विदेश मंत्रालय ने इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि भारत निराश है। लेकिन आतंकवादियों को न्याय के कटघरे में खड़ा करने के लिए सभी उपलब्ध विकल्पों पर काम करता रहेगा। मंत्रालय ने कहा, 'हम उन देशों के आभारी हैं जिन्होंने अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की कवायद में हमारा समर्थन किया है।'

इससे पहले भी भारत ने किया था प्रयास

पिछले एक दशक में चीन मसूद अजहर को बचाने के लिए चार बार अपना असल रंग दिखा चुका है। साल 2009 में भारत खुद ये प्रस्ताव लेकर आया था। इसके बाद साल 2016 में भारत ने पी-3 देशों यानी अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन के साथ मिलकर प्रस्ताव पेश किया था। 2017 में पी-3 देशों ने ही ये प्रस्ताव पेश किया था। और इस बार भी ये प्रस्ताव फ्रांस, ब्रिटेन और अमेरिका लेकर ही आये थे।

इस बार के प्रयास में नया क्या है?

इससे पहले 2009 और 2016 में, ये प्रस्ताव भारत की तरफ से पेश किया गया था। तब चीन और पाकिस्तान ने ये राग अलापना शुरू कर दिया कि नई दिल्ली इस्लामाबाद को लेकर अपना राजनीतिक पॉइंट बनाने की कोशिश कर रहा है। बाद में साल 2017 में, भारत ने अपने प्रभावशाली रणनीतिक साझेदारों यूएस, यूके और फ्रांस से प्रस्ताव पेश करने के लिए कहा। अब इस बात की गुंजाईश नहीं रह गयी थी कि ये भारत-पाकिस्तान का आपसी झगड़ा है। यानी इसे आतंकवाद के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय समुदाय की लड़ाई के रूप में देखा गया।

इस बार, प्रस्ताव को पेश करने के लिए केवल तीन ही देश नहीं बल्कि सह प्रायोजकों के रूप में 10 और देशों का भी समर्थन मिला। इसमें जर्मनी, पोलैंड, बेल्जियम, इक्वेटोरियल गिनी, जापान, ऑस्ट्रेलिया, इटली, बांग्लादेश, मालदीव और भूटान शामिल हैं।

एक अहम् बात ये है कि क्वाड सदस्य देशों यानी अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया ने इस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया है। इसे क्वाड सदस्य देशों के रणनीतिक एकजुटता के संकेत के रूप में देखा जा रहा है।

क्या है वीटो?

वीटो लैटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है अनुमति नहीं देना। इस वक्त यूएन सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य हैं जिनमें चीन, फ्रांस, रूस, यूके और अमेरिका के पास वीटो पावर है। इस पावर का मतलब यह है कि स्थायी सदस्यों के फैसले से अगर कोई देश असहमत है तो वीटो लगाकर उस फैसले को रोक सकता है। चीन हर बार मसूद के मामले में यही करता है।

दो और भी बिंदु हैं अहम्

जैश-ए-मोहम्मद पर पहले से ही प्रतिबंध लगा हुआ है। यूएन सुरक्षा परिषद् की सूची में ये बात साफ़ है कि अजहर इसका नेता और संस्थापक है, और अज़हर को ओसामा बिन लादेन से आर्थिक सहायता मिली थी। इसके बावजूद चीन ने इस मामले में वीटो लगाया है।

अप्रैल 2018 में वुहान शिखर सम्मेलन के बाद भारत-चीन संबंधों में सुधार के आसार दिख रहे थे। इसके बावजूद, चीन पाकिस्तान प्रायोजित सीमा पार आतंकवाद को अपनी सह दे रहा है।

आखिर चीन क्यों लगा रहा है अड़ंगा?

एशिया में, चीन भारत को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और साथ ही OBOR प्रॉजेक्ट में चीन को पाक की जरूरत है। पाकिस्तान में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश कर रखा है। चीन-पाक आर्थिक गलियारा और वन बेल्ट वन रोड जैसे उसके मेगा प्रॉजेक्ट एक स्तर पर आतंकी संगठनों की दया पर निर्भर हैं। मसूद अजहर के खिलाफ स्टैंड लेने पर जैश के आतंकी उसकी परियोजनाओं और कर्मचारियों को निशाना बना सकते हैं।

  • मुस्लिम देशों और गुटनिरपेक्ष देशों के संगठन में पाकिस्तान चीन का साथ देता रहा है। ऐसे में चीन भी इसी 'दोस्ती का क़र्ज़' उतार रहा है।
  • चीन को भारत-अमेरिका की नज़दीकी फूटी आँख भी न सुहाती है, शायद इसीलिए वह भारत को मसूद जैसे मुद्दे में उलझाए रखना चाहता है।
  • ड्रैगन देश को इस बात से भी चिढ़ है कि भारत तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को शरण दिए हुए है।

दूसरे मामलों में भी चीन की रोड़ेबाजी

अजहर मामले के अलावा, परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का सदस्य बनने में भी चीन भारत की मंसूबों पर पानी फेर रहा है। नई दिल्ली ने जून 2016 में इस मामले को जोरदार तरीके से उठाया था। तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर ने एनएसजी के प्रमुख सदस्य देशों के समर्थन के लिए उस समय सियोल की यात्रा भी की थी।

भारत के उत्तर पूर्व में भी चीन पहले कई आतंकवादी संगठनों की मदद करता रहा है। बीबीसी फीचर्स की एक ख़बर के मुताबिक कुछ अर्से पहले पूर्वोत्तर भारत में नगा विद्रोही गुट एनएससीएन (यू) के अध्यक्ष खोले कोनयाक ने ये दावा किया था। बक़ौल खोले “यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा प्रमुख परेश बरुआ पूर्वोत्तर राज्यों में सक्रिय चरमपंथी संगठनों को चीनी हथियार और ट्रेनिंग मुहैया करा रहें है।”

अगर जैश पर प्रतिबन्ध लग जाता तो क्या होता?

  • मसूद संयुक्त राष्ट्र संघ के किसी भी सदस्य देश की यात्रा नहीं कर सकता था।
  • उसकी सारी चल-अचल संपत्ति जब्त कर ली जाती।
  • संयुक्त राष्ट्र से जुड़े देश के लोग मसूद की किसी तरह की मदद नहीं कर पाते।
  • कोई भी देश मसूद को हथियार मुहैया नहीं कराता।
  • पाकिस्तान को भी मजबूरन मसूद की गतिविधियों पर रोक लगानी पड़ती।

कूटनीतिक प्रयासों के तौर पर भारत आगे क्या कर सकता है?

इस बार चीन ने इस प्रस्ताव को रोकने के लिए वीटो पॉवर का इस्तेमाल नहीं किया है, बल्कि प्रस्ताव को ‘टेक्निकल होल्ड’पर रखा है। टेक्निकल होल्ड का मतलब है कि उसे प्रस्ताव पर विचार करने के लिए कुछ और वक्त चाहिए। इस हिसाब से, 'टेक्निकल होल्ड' के कारण भारत को चीन के साथ कूटनीतिक बात-चीत के लिए नौ महीने का समय मिल गया है। भारत को इस दौरान चीन को राज़ी करने के लिए अपने कूटनीतिक प्रयासों को तेज़ कर देना चाहिए।

एक हाथ दे तो एक हाथ ले: साल 2017 में, जब चीन फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स का उपाध्यक्ष बनना चाहता था तो उसे भारत के समर्थन की ज़रूरत थी। भारत ने समर्थन के लिए हामी तो भरी लेकिन बदले में पाकिस्तान के 'ग्रे लिस्टिंग' के लिए बीजिंग का समर्थन माँगा। यानी एक हाथ दे तो एक हाथ ले वाली बात। भारत को अगले नौ महीनों में कुछ इसी तरह के मौके की तलाश करनी होगी।

चीनी बाज़ारों पर निर्भरता कम करे भारत: डब्लूटीओ यानी विश्व व्यापार संधि के कारण भारत के हाथ बंधे हुए हैं, और वो चीन से आयातित वस्तुओं पर प्रतिबन्ध या हैवी टैक्स नहीं लगा सकता। डब्लूटीओ किसी भी देश को आयात पर भारी-भरकम प्रतिबंध लगाने से रोकता है। लेकिन भारत को स्वनिर्माण के क्षेत्र में ज़्यादा से ज़्यादा निवेश के ज़रिए चीनी बाजारों पर से अपनी निर्भरता को कम करना चाहिए। भारत का स्वदेशी बाजार यदि मजबूत होगा तो बिना किसी प्रतिबंध के चीनी उत्पादों का बाजार देश में सिमटता जाएगा।