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Blog / 09 Feb 2019

(Global मुद्दे) INF संधि : अमेरिका - रूस में तकरार (INF Treaty: America Russia Standoff)

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(Global मुद्दे) INF संधि : अमेरिका - रूस में तकरार (INF Treaty: America Russia Standoff)


एंकर (Anchor): कुर्बान अली (पूर्व एडिटर, राज्य सभा टीवी)

अतिथि (Guest): शशांक (भारत के पूर्व विदेश सचिव), प्रो. श्रीराम सुंदर चौलिया (कूटनीतिक तथा सामरिक मामलों के जानकार)

सन्दर्भ:

चर्चा में क्यों?

अमेरिका द्वारा इंटरमीडिएट-रेंज परमाणु बल संधि को लेकर अपनी भागीदारी को स्थगित करने की घोषणा के एक दिन बाद 2 फ़रवरी को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने भी इस प्रमुख संधि में रूस की भागीदारी को स्थगित करने की घोषणा कर दी है। पुतिन ने कहा कि अगर अमेरिका प्रतिबंधित मिसाइलों को विकसित करता है तो रूस हाथ पर हाथ रख कर इंतजार नहीं करेगा।

रुसी राष्ट्रपति ने कहा, "ऐसा लगता है कि हमारे अमेरिकी सहयोगियों के लिए प्राथमिकताएं बदल गई हैं और वे चाहते हैं कि अमेरिका के पास इस प्रकार के हथियार होने चाहिए। हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी, यह बहुत ही सरल, इस मामले में हम भी वही करेंगे।"

इससे पहले क्या हुआ था?

इससे पहले 29 जनवरी को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने नाटो की एक बैठक में घोषणा की थी कि यदि रूस 60 दिनों के भीतर अपने परमाणु हथियारों को नष्ट नहीं करेगा तो अमेरिका इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज ट्रीटी (आईएनएफ) से अलग हो जाएगा, और फिर 1 फ़रवरी को अमेरिका ने इस करार ने बाहर निकलने की आधिकारिक घोषणा कर दी। संधि की शर्तों के मुताबिक़ इसके लिए छह महीनों का एडवांस नोटिस देना होता है।

गौरतलब है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 20 अक्टूबर 2018 को यह घोषणा की थी कि अमेरिका रूस के साथ दशकों पुरानी इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस (आईएनएफ) संधि से अलग हो जायेगा। उन्होंने आरोप लगाया था कि रूस इस संधि का उल्लंघन कर रहा है।

आईएनएफ करार की अवधि अगले दो साल में खत्म होने वाली थी। इससे पहले 2002 में अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने एंटी बैलिस्टिक मिसाइल संधि से अमरीका को बाहर कर लिया था।

ट्रम्प के इस फैसले पर नाटो देशों की क्या प्रतिक्रया रही?

अक्टूबर में ट्रम्प द्वारा इस करार से बाहर निकलने की घोषणा के बाद, वैसे तो नाटो ने भी अमेरिका के पक्ष में इस निर्णय का समर्थन किया था। नाटो मंत्रियों ने एक संयुक्त बयान जारी कर कहा था कि आईएनएफ समझौता ‘‘यूरो-अटलांटिक सुरक्षा के लिए अहम है और हम इस ऐतिहासिक हथियार नियंत्रण संधि की रक्षा करने के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं।’’ साथ ही उन्होंने रूस से अपनी नई मिसाइलों की क्षमताओं को लेकर स्पष्ट करने का आग्रह किया था।

लेकिन कुछ नाटो देशों ने ट्रम्प के इस निर्णय से असहमति भी जताई है। जर्मनी अमरीका का पहला सहयोगी है, जिसने ट्रंप के इस रुख़ की आलोचना की है। जर्मनी के विदेश मंत्री हाइको मास ने कहा था कि अमरीका को इसे लेकर फिर से विचार करना चाहिए और उसे यूरोप के साथ परमाणु निरस्त्रीकरण के भविष्य को लेकर सोचना चाहिए।

क्या है इंटरमीडिएट-रेंज परमाणु बल संधि?

साल 1987 में, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और यूएसएसआर के तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव ने मध्यम दूरी और छोटी दूरी की मारक क्षमता वाली मिसाइलों का निर्माण न करने के लिये इंटरमीडिएट-रेंज परमाणु बल करार यानी आइएनएफ पर दस्तख़त किये थे। 27 मई 1988 को संयुक्त राज्य अमेरिका की सीनेट ने इस करार को अपनी परमिशन दे दी और 1 जून 1988 को इसे लागू किया गया।

इस करार के तहत दोनों देशों को अपनी कुछ मिसाइलों को नष्ट करके उनकी संख्या निश्चित करनी थी। इसके अलावा इस करार के तहत दोनों देश एक-दूसरे की मिसाइलों के परीक्षण और तैनाती पर नज़र रखने की अनुमति भी देते हैं।

इसमें सभी जमीन आधारित मिसाइलें शामिल हैं। संधि में समुद्र-लॉन्च मिसाइलों को शामिल नहीं किया गया था।

इस करार की अहमियत क्या थी?

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न हथियारों की दौड़ और शीत युद्ध के खतरे को कम करने में ये करार एक महत्वपूर्ण उम्मीद के तौर पर थी। इससे अमेरिका-सोवियत संघ के बेहतर संबंधों को बढ़ावा मिला था।

INF संधि यूरोप पर मंडरा रहे परमाणु युद्ध के ख़ौफ़ को दूर करने में मददग़ार साबित हुआ।

बताया जाता है कि इस संधि के बाद 1991 तक करीब 2700 मिसाइलों को नष्ट किया गया था। जो कि वैश्विक शांति और ध्रुवीकरण के लिहाज़ से एक महत्वपूर्ण कदम था।

आईएनएफ संधि की पृष्ठभूमि

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत रूस के बीच उत्पन्न तनाव की स्थिति को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और रूस ने संयुक्त रूप से धूरी राष्ट्रों- जर्मनी, इटली और जापान के विरूद्ध संघर्ष किया था। किन्तु युद्ध समाप्त होते ही, एक ओर ब्रिटेन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दूसरी ओर सोवियत संघ में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने लगा। बहुत जल्द ही इन मतभेदों ने तनाव की भयंकर स्थिति उत्पन्न कर दी।

रूस के नेतृत्व में साम्यवादी और अमेरिका के नेतृत्व में पूँजीवादी देश दो खेमों में बँट गये। इन दोनों पक्षों में आपसी टकराहट आमने सामने कभी नहीं हुई, पर ये दोनों गुट इस प्रकार का वातावरण बनाते रहे कि युद्ध का खतरा सदा सामने दिखाई पड़ता रहता था।

बर्लिन संकट, कोरिया युद्ध, सोवियत रूस द्वारा परमाणु परीक्षण, सैनिक संगठन, हिन्द चीन की समस्या, यू-2 विमान काण्ड, साल 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट - इन सभी समस्याएँ को जटिल बनाने में शीतयुद्ध का अहम रोल रहा।

इसके अलावा शीत युद्ध ने हथियारों की एक नई होड़ को भी जन्म दिया। एक दूसरे के ऊपर हावी होने के लिए रूस और अमेरिका दोनों ने यूरोप में अपने-अपने हथियारों की तैनाती शुरू कर दी। तब यूरोप को यह आभास हुआ कि यूरोपीय ज़मीन पर किसी भी प्रकार का परमाणु संघर्ष यूरोपीय तबाही का कारण बन जाएगा। नतीज़तन 1980 के दशक में यूरोप के प्रयास से अमेरिका और सोवियत संघ ने पैरलल बातचीत के तीन सेट शुरू किए और INF इसी बात-चीत का हिस्सा था।

क्यों नाराज़ है अमेरिका?

अमेरिका का आरोप है कि रूस ने मध्यम दूरी का एक नया मिसाइल बनाया है जिसका नाम नोवातोर 9M729 है। अमेरिका का कहना है कि ये निर्माण करके रूस ने आइएनएफ करार का उल्लंघन किया है। नोवातोर 9M729 मिसाइल को नाटो देश MSC-8 के नाम से जानते हैं। अमेरिका को डर है कि रूस इस मिसाइल के ज़रिये नाटो देशों पर तत्काल परमाणु हमला कर सकता है।

अभी भी है सुलह की गुंजाईश?

अमेरिका ने कहा है कि यदि रूस INF संधि का उल्लंघन करने वाली मिसाइलों, मिसाइल लॉन्चर और संबंधित उपकरणों को नष्ट कर दे तो करार को रद्द करने का फैसला छह महीने की नोटिस अवधि के दौरान भी वापस लिया जा सकता है।

रूस ने अपने सफाई में क्या कहा?

रूस का कहना है कि नोवातोर 9M729 मिसाइल को बनाकर उसने संधि का कोई उल्लंघन नहीं किया है। पिछले महीने उसने विवादित हथियार प्रणाली पर जानकारी देने के लिए पत्रकारों और विदेशी सैन्य अधिकारियों को आमंत्रित भी किया था।

पूरे मामले में चीन की क्या भूमिका है?

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि इस मामले में अमेरिका और रूस के अलावा एक तीसरी धुरी चीन भी है। न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ अमरीका पश्चिमी प्रशांत में चीन की बढ़ती मौजूदगी को देखते हुए इस संधि से बाहर निकलने पर विचार कर रहा है।

दरअसल आइएनएफ करार ने पश्चिमी देशों पर सोवियत संघ के परमाणु हमले के खतरे को तो खत्म कर दिया था लेकिन यह संधि चीन जैसी अन्य बड़ी सैन्य शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाती है। ज़ाहिर है कि इस संधि में चीन शामिल नहीं है इसलिए वो मिसाइलों की तैनाती और परीक्षण को लेकर बंधा नहीं है, और पिछले तीन दशकों में इसने नाटकीय रूप से अपने मिसाइल शस्त्रागार का विस्तार किया है।
ऐसे में एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में चीन के बढ़ते दबदबे को देखते हुए अमेरिका को ये लग रहा है कि उसे भी अपनी मिसाइल क्षमता में इज़ाफ़ा करना चाहिए। लेकिन आइएनएफ करार के कारण अमेरिका ऐसा कर नहीं पा रहा था।

यहाँ एक बात और देखने वाली होगी कि अमेरिका इस आइएनएफ करार को एक नए सिरे से प्लान करना चाहता है, और चीन को भी इसके शर्तों के अंदर लाना चाह रहा है, अमेरिका ने कहा था कि रूस और चीन दोनों ही अपने मिसाइल कार्यक्रम को कम करे और करार को नए शर्तों के साथ दुबारा लाया जाए।

भारत पर क्या पड़ सकता है प्रभाव?

अगर अमेरिका रूस और चीन दोनों को एक साथ इस शर्त में लाना चाहता है तो ऐसे में वैश्विक समीकरणों को देखते हुए रूस और चीन की नज़दीकी शायद भारत के लिए चिंता का एक सबब हो।

  • हालांकि अगर चीन इस शर्त में शामिल होता है तो उसके हथियार प्रसार कार्यक्रमों पर कुछ रोक लग सकती है और ये भारत के लिहाज़ से एक अच्छी बात होगी।
  • चूँकि अमेरिका और रूस के बीच कड़वे संबंधों के माहौल में, उन्नत सैन्य प्रणालियों पर रूस के साथ भारत की बढ़ती साझेदारी पर भी दबाव बढ़ेगा।
  • ऐसे हालत में, भारत को घरेलू प्रयासों को बढ़ाने के लिये तत्काल अपनी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा।

निष्कर्ष

मौजूदा वक़्त में रुस के पास तक़रीबन 7,000, अमेरिका के पास तक़रीबन 6,800, फ्रांस के पास तक़रीबन 300, चीन के पास तक़रीबन 270, ब्रिटेन के पास तक़रीबन 215, पाकिस्तान के पास तक़रीबन 140, भारत के पास तक़रीबन 130 और इज़राइल के पास तक़रीबन 80 परमाणु हथियार है।

अमेरिका और रूस के इस कदम से शीत युद्ध जैसे हालत की आशंका बनने लगी है। और अनुमान लगाया जा रहा है कि दोनों देशों के बीच परमाणु हथियारों की दोबारा रेस शुरू हो जायेगी।

इस घटना के बाद अब 'न्यू स्टार्ट' करार भी खात्मे की दहलीज़ पर आ गया है हालांकि कई विश्लेषकों का मानना है कि अभी वार्ता जारी रहेगी और उम्मीद है कि अमेरिका और रूस इस बात को समझेंगे।

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