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Blog / 23 Feb 2019

(आर्थिक मुद्दे) बैंको का बढ़ता एन. पी. ए. (Rising NPA of Banks)

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(आर्थिक मुद्दे) बैंको का बढ़ता एन. पी. ए. (Rising NPA of Banks)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): अनिल कुमार उपाध्याय (बैंकिंग मामलो के जानकार), प्रो. अरुण कुमार (पूर्व प्रोफेसर, JNU)

सन्दर्भ:

क्या है एनपीए?

जब बैंकों द्वारा दिया गया क़र्ज़ डूब गया हो और उसके वापस आने की कोई उम्मीद न हो तो इस तरह के क़र्ज़ को गैर-निष्पादित संपत्ति की श्रेणी में रखा जाता है। इसे अंग्रेजी में नॉन परफार्मिंग असेट यानी एनपीए कहा जाता है। अमूमन बैंकों के लोन को तब एनपीए में शामिल कर लिया जाता है, जब तय तिथि से 90 दिनों के अंदर उस पर बकाया ब्याज तथा मूलधन की किस्त नहीं चुकाई जाती।

कब और कैसे प्रारम्भ हुई एनपीए की समस्या?

साल 2008 में अमरीका से शुरू हुई आर्थिक मंदी ने सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया था, हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना था कि भारत पर इसका प्रभाव अपेक्षाकृत कम था। लेकिन भारत इस मन्दी के प्रभाव से पूरी तरह अछूता नहीं था और भारतीय कंपनियों को भी इसका शिकार होना पड़ा था।

मंदी के दौर से बाहर आने के बाद बैंकों ने बड़ी कंपनियों को कर्ज देने में उनकी वित्तीय स्थिति और क्रेडिट रेटिंग की अनदेखी की। यानी बैंकों ने अपने बड़े कॉर्पोरेट ग्राहकों को क़र्ज़ देने से पहले उनके लोन वापस करने की क्षमता की पूरी तफ्तीश नहीं की। परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था एनपीए के जाल में फंसने लगी। उदाहरण के तौर पर अडानी समूह के ऑस्ट्रेलिया के खनन प्रोजेक्ट के लिए एसबीआई ने उन्हें क़रीब छह हज़ार करोड़ रुपये का लोन देने की बात की थी। और ये लोन उस समय दिया गया, जब अडानी समूह पहले ही 72 हज़ार करोड़ रुपये का लोन ले चुका था।

क्या प्रभाव होता है एनपीए बढ़ने का?

  • एनपीए बढ़ने से बैंकों की लोन देने की क्षमता घट जाती है और नकदी का प्रवाह घट जाता है। आम लोगों को नए लोन न मिलने पर इसका बुरा असर होगा, साथ ही लोक कल्याणकारी योजनाएं भी प्रभावित होंगी। सरकार ने भी बजट में कहा था कि वह किसानों को आसान किस्तों पर कर्ज़ देना चाहती है। लेकिन जब सरकारी बैंक कर्ज़ देने में सक्षम ही नहीं होंगे। तो इस कर्ज़ के लिए पैसा कहां से आएगा?
  • इसका दूसरा असर लघु और मध्यम उद्योगों पर होगा। भारत की अर्थव्यवस्था में लगभग 45 फ़ीसदी हिस्सेदारी लघु उद्योगों की रही है। इन उद्योगों के समुचित परिचालन के लिए एक से पांच लाख रुपये तक की रकम के लोन की ज़रूरत होती है। लेकिन बैंकों की खराब हालत से उन्हें यह रकम मिलना भी मुश्किल हो जाएगी।
  • यहाँ ध्यान देने वाली बात ये होगी कि लघु उद्योग भारत में ज़्यादा लोगों को नौकरियों पर रखते हैं। इन बैंकों से लघु उद्योगों को लोन नहीं मिलेगा तो वहाँ बेरोज़ग़ारी बढ़ना शुरू हो जाएगा।
  • एनपीए बढ़ता है तो बैंकों को ज्यादा कर्ज लेना होता है। इससे उनकी फंड जुटाने की लागत बढ़ती है जिसका बोझ ग्राहकों पर ऊंची ब्याज दरों के रूप में पड़ता है।
  • एनपीए के रूप में जब बैंक का कर्ज जब फंस जाता है तो उसकी प्रोविजनिंग के लिए उसे मुनाफे से एक निश्चित राशि अलग रखनी होती है। यानी मुनाफे में कमी आती है, और मुनाफा कम होने पर बैंक के विस्तार और ग्राहक सेवाओं पर असर होता है।

एनपीए के सम्बन्ध में आँकड़े क्या कहते हैं?

  • देश के 38 शिड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों का एनपीए 8.41 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा हो चुका है। इनमें से 90% सरकारी बैंकों में है। पूरी बैंकिंग व्यवस्था में सरकारी बैंकों की 70% की हिस्सेदारी है। वहीँ यदि आर्थिक विशेषज्ञों की मानें तो समय रहते कोई उपाय नहीं किया गया तो यह आंकड़ा 20 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच सकता है।
  • आरबीआई के मुताबिक, सरकार से मुद्रा लोन लेकर बिजनेस शुरू करने वाले पैसा नहीं चुका रहे हैं। अकेले PMMY योजना से बैड लोन का बोझ 11 हजार करोड़ रुपये तक बढ़ चुका है।
  • आपको बता दें कि प्रधानमंत्री मुद्रा योजना अप्रैल 2015 में लॉन्च की गई थी। इसके तहत बिना गारंटी के लोन मिलता है। इसके अलावा लोन के लिए कोई प्रोसेसिंग चार्ज भी नहीं लिया जाता है। इस योजना में कुल तीन तरह के लोन यानी शिशु लोन, किशोर लोन और तरुण लोन मिलते हैं।
  • रेटिंग एजेंसी आईसीआरए के आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में भारतीय बैंकों का पिछले 10 सालों में सबसे ज़्यादा पैसा डूबा है। एजेंसी के मुताबिक भारतीय बैंकों ने माना है कि इस साल मार्च तक उनका 1 लाख 44 हज़ार करोड़ रुपया "राइट ऑफ" हो गया।
  • लोन का "राइट ऑफ" होना एनपीए से भी ज़्यादा खतरनाक है। इसका आम भाषा में मतलब हुआ कि बैंकों ने यह मान लिया है कि इस साल मार्च तक कर्ज़ के तौर पर दिया गया 1.44 लाख करोड़ रुपया अब वापस नहीं मिलने वाला यानी यह डूब चुका है। जबकि एनपीए में पैसे के वापस आने की उम्मीद बाक़ी रहती है।

किन परिस्थतियों में लोन "राइट ऑफ" किया जाता है?

"राइट ऑफ" करने की सीधी वजह यह है कि जब बैंक लोन देते हैं तो उस समय जो ‘नो योर कस्टमर’ प्रक्रिया यानी केवाईसी किया जाता है उसे सही तरीके से नहीं किया जाता। इसका मतलब ये हुआ कि दिए गए कर्ज़ की पुख्ता सुरक्षा गांरटी नहीं ली जाती। देखने वाली बात ये है कि इसी बाज़ार में निजी बैंक भी काम कर रहे हैं और वे मुनाफ़े में चल रहे हैं तो फिर सरकारी बैंकों का इतना लचर रवैय्या क्यों?

किन बैंकों पर एनपीए का भार ज़्यादा है?

सरकारी बैंक एनपीए की समस्या सबसे ज्यादा झेल रहे हैं। केअर रेटिंग्स के एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी बैंकों में 8 बैंक ऐसे हैं जिनका एनपीए रेशियो 15 फ़ीसदी से ज़्यादा है। आईडीबीआई बैंक और ओवरसीज बैंक का एनपीए रेशियो तो 22 फ़ीसदी से भी ज़्यादा है। ग़ौरतलब है कि पिछले साल पहली तिमाही में बैंकों के एनपीए में 34 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है जो बैंकिंग सिस्टम के लिहाज़ से अच्छा नहीं माना जाता है

कौन से सेक्टर सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं?

सरकारी बैंकों ने सबसे ज्यादा कर्ज पांच औद्योगिक सेक्टर को दिए हैं। इनमें टेक्सटाइल, एविएशन, माइनिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर तथा सीमेंट शामिल हैं। सबसे अधिक एनपीए इन्हीं क्षेत्रों में बढ़ा है।

सरकार के अनुसार एनपीए के क्या कारण हैं?

  • वैश्विक और घरेलू मैक्रो-इकोनॉमिक अस्थिरता के कारण अर्थव्यवस्था में मंदी आई, जिससे ऋण लेने वालों की ऋण अदायगी क्षमता कमजोर हो गई।
  • परियोजनाओं की स्वीकृति में देरी के कारण इसके क़र्ज़ का लागत बढ़ जाता है। फलस्वरूप लोन वापसी में दिक्कतें आती हैं।
  • लाभ की लालच में बैंकों द्वारा कॉरपोरेट घरानों को मनमाना क़र्ज़ देना।
  • विलफुल डिफॉल्टिंग की बढ़ती घटनाएं
  • क़र्ज़ में धोखाधड़ी के मामले।
  • बैंकिंग संस्थानों में भ्रष्टाचार के मामले।

एनपीए से निपटने के लिए सरकार ने कौन से कदम उठाये हैं?

  • 5/25 रीफाइनेंसिंग स्कीम
  • एसेट रिकंस्ट्रक्शन कम्पनीज का गठन
  • स्ट्रेटेजिक डेब्ट रिस्ट्रक्चरिंग
  • एसेट क़्वालिटी रिव्यु
  • स्कीम फॉर सस्टेनेबल स्ट्रक्चरिंग ऑफ़ स्ट्रेस्ड असेट
  • विलफुल डिफॉल्टिंग से निपटने के लिए दिवाला और दिवालियापन संहिता,2016 लाया गया।
  • इन कदमों के अलावा, एनपीए की समस्या को दूर करने के लिए सरकार ने जून 2018 में एक समग्र नीति लागू किये जाने की घोषणा की है। यह समग्र नीति ‘प्रोजेक्ट सशक्त’ के नाम से लागू होगी जिसे सुनील मेहता की अध्यक्षता में गठित समिति की रिपोर्ट के आधार पर तैयार किया गया है।
  • भारत सरकार ने माली हालत सुधारने के लिए बैंकों को 2.11 लाख करोड़ रुपये की धनराशि अतिरिक्त पूंजी के रूप में देने का फैसला किया है। इनमें से 1.35 लाख करोड़ रुपये रिकैपिटलाइजेशन बांड्स के रूप में देने की योजना है।

और क्या किया जा सकता है?

  • बैंको के कामकाज को और पारदर्शी बनाने के प्रयास किये जाने चाहिए।
  • सरकारी बैंको के इंटरनल ऑडिट भी कैग द्वारा किया जाना चाहिए।
  • किसी कंपनी को क़र्ज़ देने से पहले उसकी वित्तीय स्थिति और परियोजना की व्यावहारिकता की समुचित तफ्तीश की जाने चाहिए।
  • बैंको को पीपीपी मॉडल पर विकसित करने के प्रयास किये जाने चाहिए।
  • सरकार को इस बात पर भी नज़र डालनी होगी कि क्या सरकारी बैंको में 70% स्वामित्व जरुरी है, तब जबकि 51% के स्वामित्व के साथ पीपीपी मॉडल पर बैंको को विकसित कर उनकी क्षमताओ को बढाया जा सकता है।