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Blog / 23 Aug 2019

(आर्थिक मुद्दे) बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल (50 Years of Nationalization of Banks)

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(आर्थिक मुद्दे) बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल (50 Years of Nationalization of Banks)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलो के जानकार)

अतिथि (Guest): अजय शंकर, (पूर्व उद्योग सचिव), अरिहन जैन (वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार, बिजनेस स्टैंडर्ड)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, देश के कई अहम बैंकों ने अपने राष्ट्रीयकरण के 50 साल पूरे किए। ग़ौरतलब है कि 19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। इनमें से ज्यादातर बैंकों पर बड़े औद्योगिक घरानों का कब्ज़ा था। इसके बाद साल 1980 में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

अब जब सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम के 50 साल पूरे हो गए हैं सरकार एक बार फिर से निजीकरण की तरफ बढ़ती दिख रही है। हालांकि अभी आधिकारिक तौर पर अभी किसी बैंक का निजीकरण नहीं किया गया है। बहरहाल जहाँ कुछ विशेषज्ञों ने सरकार के इस क़दम की तारीफ़ की है तो वहीं कुछ ने इसकी सफलता पर सवाल भी उठाया और इसे घाटे का सौदा बताया।

क्यों किया गया राष्ट्रीयकरण?

साल 1951 से 1968 के दौरान बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज में 68 फ़ीसदी हिस्सेदारी अकेले कारपोरेट घरानों की थी। साल 1951 से पहले ये आंकड़ा 68 फ़ीसदी के आधे पर था। यानी इस दौरान इसमें तक़रीबन 2 गुने की वृद्धि देखी गई। जबकि इसी अवधि में बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी महज 2 फ़ीसदी थी। ऐसे में, गरीबी को दूर करने के लिए इस असमानता को दूर करना बहुत जरूरी हो गया था। इसके अलावा उस समय बैंकों की ज्यादातर शाखाएं शहरों तक ही सीमित थे। ऐसे में, ग्रामीण इलाकों की पहुंच पर्याप्त बैंकिंग सेवाओं तक नहीं थी। इसलिए सरकार का यह तर्क था कि ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग सेवाओं को पहुंचाने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए।

साथ ही, यहीं वो दौर था जब देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था। तब तत्कालीन सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए हरित क्रांति को आधार बनाया था। लेकिन हरित क्रांति तभी सफल हो सकती थी, जब कृषि क्षेत्र को पर्याप्त कर्ज उपलब्ध हो पाता। लिहाजा बैंकों द्वारा देने जाने वाले कुल कर्ज़ में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ाना बहुत आवश्यक हो गया था।

राष्ट्रीयकरण का क्या लाभ रहा?

एक आंकड़े के मुताबिक, राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक की शाखाओं में 800 फ़ीसदी का विस्तार देखा गया। इसके अलावा बैंकों के जमा और उनके द्वारा दिए जाने वाले कर्ज में 11000 फ़ीसदी की वृद्धि हुई।

  • निजी हाथों में होने के चलते बैंकों में जनता का विश्वास वांछित स्तर तक नहीं हो पाया था। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों के स्थायित्व को लेकर जनता का विश्वास का स्तर काफी बढ़ गया।
  • इसके अलावा, बैंकों में सार्वजनिक जमा इतना ज्यादा हो चुका था कि उसे पूरी तरह से निजी हाथों में छोड़ना काफी चुनौती भरा हो सकता था। और तो और, इस सार्वजनिक जमा का एक बड़ा हिस्सा गैर प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को क़र्ज़ के रूप में दे दिया जाता था। शायद इसीलिए कुछ विशेषज्ञ राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को जायज़ ठहराते हैं।
  • इसका सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि अब बैंकों की शाखाएं केवल बड़े शहरों तक सीमित नहीं थी बल्कि इनका दायरा सुदूर स्थित इलाकों में भी हो गया। जिसके चलते आर्थिक समावेशन और हरित क्रांति को काफी बल मिला। साथ ही, लोगों के जेबों में कैद धन का एक बड़ा हिस्सा अब वित्तीय व्यवस्था में आ चुका था।
  • मौजूदा वक़्त में, सरकार जिस डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने में लगी हुई है, उसका भी श्रेय राष्ट्रीयकरण को देना गलत नहीं होगा क्योंकि राष्ट्रीयकरण के चलते ही बैंकिंग सेवाओं का विस्तार हुआ था और लोग इससे जुड़े। 90 के दशक में जब बैंकों को सीबीएस के जरिए अपडेट किया गया, तब से बैंकिंग सेवा में डिजिटलीकरण की शुरुआत माना जा सकता है। आज भी डिपाजिट और कर्ज के मामले में सार्वजनिक बैंकिंग का हिस्सा समूची बैंकिंग का करीब दो तिहाई है।

राष्ट्रीयकरण का क्या नुकसान रहा?

तमाम विशेषज्ञों का ऐसा कहना है कि राष्ट्रीयकरण का ये फ़ैसला सामाजिक से ज्यादा राजनीतिक था। इनका मानना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण से विकास में तेजी तो आई और इससे कृषि क्षेत्र को पर्याप्त कर्ज़ मिला। लेकिन इस प्रक्रिया में कर्ज देने की शर्तों से काफी समझौता किया गया। जिसका खामियाजा अब बैंकों को भुगतना पड़ रहा है।

जहां कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले कर्ज़ में दोगुनी बढ़ोत्तरी के बावजूद निवेश में ख़ास बढ़ोतरी नहीं हुई, वहीँ दूसरी तरफ, औद्योगिक क्षेत्र पर इसका बुरा असर साफ देखा जा सकता है। दरअसल राष्ट्रीयकरण के बाद बैंक नई कंपनियों को कर्ज नहीं देना चाहते थे और वे जोखिम से बचना चाहते थे। बैंकों द्वारा कर्ज देने की प्रक्रिया राजनीतिक सी हो गई। राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिहाज़ से मनमाने तरीके से कर्ज दिया जाता रहा। बैंकों में प्रतिस्पर्धा कम हो गई या यूं कह सकते हैं कि खत्म हो गई। इसका अंजाम समय-समय पर एनपीए के रूप में सामने आता रहा। बैंकों को बचाने का हवाला देते हुए करदाताओं की खून पसीने की कमाई के ज़रिए सरकार की इस ग़लती पर पर्दा डाला जाता रहा। इस बार भी बजट में पब्लिक सेक्टर बैंकों को 70 हजार करोड़ रुपये देने का ऐलान किया गया।

इसके अलावा जिस आर्थिक समावेशन की दुहाई देकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, वह उद्देश्य आज भी पूरा होता नहीं दिख रहा है। साथ ही राष्ट्रीयकरण के चलते इन बैंकों का प्रबंधन भी लचर तरीके से चलता रहा।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

मौजूदा वक्त में सार्वजनिक बैंक कई दिक्कतों से जूझ रहे हैं। मसलन सरकार के पास अब इतनी राजकोषीय सामर्थ्य नहीं बची है कि बार-बार सार्वजनिक बैंकों में पूंजी लगाई जा सके। साथ ही, बैंकिंग सेवाओं में तकनीकी की भूमिका लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन वर्तमान बैंकिंग ढांचा इस बदलते स्वरूप को स्वीकार करने में सक्षम नहीं है।

अब जब बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 50 साल बीत चुके हैं, ऐसे में इसका फायदा नुकसान भी सामने आ चुका है। लिहाजा सरकार को भी सोचना होगा कि वह राष्ट्रीयकरण कि इस निर्णय के साथ आगे बढ़ना चाहेगी या फिर उसे वापस लौटना चाहिए। इसका एक विकल्प यह भी हो सकता है कि सरकार बीच का रास्ता लेकर चले यानी बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी तो बनी रहे, लेकिन यह हिस्सेदारी समय के साथ कम किया जाए ताकि निजी क्षेत्र को निर्णय लेने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके।

इसके अलावा सरकार चाहे तो अपनी भागीदारी कम किये बगैर भी प्रबंधन को प्रोफेशनल बना सकती है। साथ ही, तमाम सरकारी बैंकों में सरकार की भागीदारी पचास प्रतिशत से नीचे के स्तर पर लाई जा सकती है और एक तरह से सरकारी प्रभाव एक हद तक कम किया जा सकता है।

कुल मिलाकर एक व्यापक स्तर पर यानी प्रचालन और संरचना दोनों स्तर पर सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। सरकारी बैंक सिर्फ सरकारी होने की आड़ में लगातार घाटे में नहीं चल सकते और करदाताओं का पैसा उन पर लगातार सिर्फ घाटे में जाने के लिए नहीं लगाया जा सकता।