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Blog / 08 May 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन (DNS हिंदी) चुनावी बांड (Electoral Bond)

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(डेली न्यूज़ स्कैन (DNS हिंदी) चुनावी बांड (Electoral Bond)


मुख्य बिंदु:

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एसोसिएशन ऑफ डोमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर द्वारा चुनावी बॉण्ड को लेकर दायर एक याचिका के सम्बन्ध में अपना अंतरिम आदेश सुनाया। अदालत ने राजनीतिक दलों को आदेश देते हुए कहा कि वे चुनावी बॉण्ड के ज़रिए मिलने वाले अपने चंदे का ब्यौरा चुनाव आयोग को सौंपे। फिलहाल अदालत ने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। अब चुनावी बॉण्ड पर रोक लगाने से जुड़ी दूसरी याचिकाओं पर चुनावों के बाद सुनवाई की जायेगी।

डीएनएस में आज हम आपको बताएँगे कि चुनावी बॉण्ड क्या है और साथ ही इसके दूसरे पहलुओं को भी समझने की कोशिश करेंगे।

दरअसल केंद्र सरकार ने चुनावी फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने के लिये 2 जनवरी, 2018 को चुनावी बॉण्ड स्कीम का ऐलान किया था। सरकार ने फाइनेंस एक्ट-2017 के जरिये पांच बड़े कानूनों में बदलाव करके इस स्कीम को लाया था। जिसमें RBI एक्ट 1934 की धारा-31, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा- 29C, आयकर अधिनियम 1961 की धारा-31A, कंपनी एक्ट 2013 की धारा 182 और विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम 2010 की धारा 2(1) शामिल हैं।

इस योजना के तहत देश का कोई भी नागरिक या कंपनी पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए SBI की चुनिंदा शाखाओं से चुनावी बांड खरीद सकता है। ये चुनाव बांड एक हजार रुपये, दस हजार रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये के होते हैं। चुनावी बांड खरीदने वालों के नाम सार्वजनिक नहीं किये जाते हैं। दानकर्ता किस दल को यह चुनावी बांड देगा इसकी जानकारी भी गुप्त रखी जाती है। राजनीतिक दल इस चुनावी बांड को अपने निर्धारित बैंक खाते में जमाकरके भुना लेते हैं। उसके बाद इसकी सूचना उन्हें चुनाव आयोग को देना होता है।

चुनावी बांड से चंदा लेने के लिए राजनितिक पार्टियों को पिछले लोकसभा या विधान सभा चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट पाना ज़रूरी है।

ग़ौरतलब है कि जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 की धारा 29-बी में चुनावी फंडिग के तरीकों का जिक्र किया गया है। जिसमें कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति या गैर-सरकारी कंपनी द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा दिया जा सकता है। लेकिन 1968 में कॉर्पोरेट फंडिंग पर कोर्ट द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया। बाद में 1985 में कंपनी अधिनियम में संशोधन करके संसद ने कॉर्पोरेट फंडिंग को बहाल कर दिया। लेकिन चुनावी फंडिंग में फिर भी समस्या बनी रही।

इसके बाद दिनेश गोस्वामी समिति और इंद्रजीत गुप्ता समिति की रिपोर्ट में चुनावों के लिए आंशिक रूप से सरकारी सहायता देने की भी वकालत की गई। साल 2003 में सरकार ने व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट चुनावी फंडिंग को पूरी तरह से टैक्स-फ्री बना दिया। साथ ही ये भी प्रावधान कर दिया कि 20 हज़ार रुपए से कम की राशि कैश के ज़रिये चंदे के तौर पर दी जा सकती है और उसमें दानकर्ता की पहचान बताने की ज़रूरत नहीं थी। इस कारण लेकिन चुनावी फंडिंग की प्रक्रिया और भी विवादित हो गयी।

लेकिन बाद में साल 2017 में केंद्र सरकार ने चुनाव आयोग की सिफारिश पर कैश के रूप में चंदे की सीमा 20 हज़ार से घटाकर 2 हज़ार रुपए कर दी। और अब चुनावी फंडिंग को और पारदर्शी बनाने के लिये चुनावी बॉण्ड के कांसेप्ट को अमल में लाया जा रहा है।

लेकिन ये चुनावी बॉण्ड भी आरोपों से परे नहीं है और ऐसा कहा जा रहा है इसमें भी पारदर्शिता के सभी दावे खोखले ही हैं। सियासी सुधारों के लिये काम करने वाले स्वैच्छिक समूह एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने चुनावी बॉन्ड की बिक्री पर रोक की गुहार लगाते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है। याचिका में कहा गया था कि या तो चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाई जाए या चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए दानदाता का नाम सार्वजनिक किया जाए।

हाल ही में, चुनावी बॉण्ड के ज़रिये राजनीतिक दलों को 1045 करोड़ रुपए का जो चंदा दिया गया, उसमें से लगभग 95 फीसद चंदा एक विशेष राजनीतिक पार्टी के खाते में गया है। लिहाज़ा, इस बात की आशंका जताई जा रही है कि भले ही जनता इस बात से अंजान हो कि किस कंपनी ने किस दल को चंदा दिया है। लेकिन राजनीतिक दल अंदरूनी तौर पर इनके नामों से वाकिफ होते हैं।

इसके अलावा दानकर्ता और चन्दा प्राप्त करने वाली पार्टी दोनों ही RBI को रिपोर्ट करते हैं जो कि किसी-न-किसी रूप में केंद्र सरकार के अधीन है। ऐसे में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए यह पता लगाना आसान होगा कि किन कंपनियों ने विपक्षी दलों को चंदा दिया है। और फिर ये कंपनियाँ बदले की भावना का शिकार हो सकती हैं।

इसके अलावा केंद्र सरकार का ये भी कहना है कि चुनावी बांड स्कीम का उद्देश्य चुनावों के दौरान ब्लैक मनी के इस्तेमाल को रोकना है। हालांकि इस स्कीम को लेकर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग की राय भी अलग-अलग है। सरकार चुनावी बॉन्ड देने वालों की गोपनीयता को बनाए रखना चाहती है, वहीं चुनाव आयोग का पक्ष है कि पारदर्शिता के लिए दानदाताओं के नाम सार्वजनिक किए जाने चाहिए।

इसके अलावा विधि आयोग ने भी चुनावी सुधारों पर अपनी 255वीं रिपोर्ट में कहा था कि चुनावी फंडिंग में अपारदर्शिता बड़े दानदाताओं द्वारा सरकार को ‘कैप्चर’ करने जैसा है।

इन तमाम मसलों पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी का कहना है कि एक राष्ट्रीय चुनावी कोष बनाया जाना चाहिए। जिसमें सभी दानदाता योगदान दे सकते हैं। इस फण्ड में जमा राशि को मिलने वाले वोटों के अनुपात में राजनीतिक दलों के बीच बांटा जाना चाहिए। इससे न केवल दानदाताओं की पहचान सुरक्षित होगी बल्कि राजनीतिक चंदे से काला धन भी खत्म होगा।

बहरहाल अब देखना ये होगा कि तमाम जटिलताओं के बीच सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या फैसला देता है।