Home > DNS

Blog / 08 Sep 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध (Ban on Single Use Plastic)

image


(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध (Ban on Single Use Plastic)


मुख्य बिंदु:

आज के करीब सौ साल पहले…… 1907 में जब लियो एच. बेकलैंड ने प्लास्टिक की खोज की थी, तब किसी ने ये अंदाजा भी नहीं लगाया था कि जो प्लास्टिक मानव समाज के लिए एक वरदान के तौर पर पेश किया जा रहा है, वहीं कभी इसके लिए अभिशाप साबित होगा। यह प्लास्टिक अब इतना खतरनाक हो चुका है कि प्रधानमंत्री को लाल किले की प्राचीर से यह अपील करना पड़ा कि ‘सिंगल न्यूज़ प्लास्टिक’ के उपयोग को अब खत्म किया जाना चाहिए।

डीएनएस में आज हम आपको सिंगल यूज प्लास्टिक के बारे में बताएंगे। साथ ही, इसके दूसरे पहलुओं को भी समझने की कोशिश करेंगे।

बहुत से असंतृप्त हाइड्रोकार्बन जैसे कि एथिलीन, प्रोपेलीन के उच्च बहुलक को ही प्लास्टिक कहा जाता है। मुलायम होने के कारण इसे किसी भी आकार में आसानी से ढाला जा सकता है। निर्माण के आधार पर प्लास्टिक दो प्रकार का होता है - पहला प्राकृतिक प्लास्टिक और दूसरा कृत्रिम प्लास्टिक। प्राकृतिक प्लास्टिक एक ऐसा प्लास्टिक होता है जो गरम करने पर मुलायम और ठंडा करने पर कठोर हो जाता है। लाख इसका एक अच्छा उदाहरण है।

रासायनिक विधि से तैयार किए गए प्लास्टिक को कृत्रिम प्लास्टिक कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है - पहला थर्मोप्लास्टिक दूसरा थर्मोसेटिंग प्लास्टिक। थर्मोप्लास्टिक को गर्म करने पर यह कई रूपों में बदल जाती है। पॉलीथीन, पॉली प्रोपीलीन, पॉली विनायल क्लोरायड जैसे प्लास्टिक थर्मोप्लास्टिक की कैटेगरी में आते हैं। वहीँ थर्मोसेटिंग प्लास्टिक एक ऐसी प्लास्टिक होती है जो गर्म करने पर कठोर हो जाती है लेकिन इसे फिर से गर्म करके मुलायम नहीं बनाया जा सकता। यूरिया, फॉर्मेल्डिहाइड, पॉली यूरेथेन जैसे प्लास्टिक थर्मोसेटिंग प्लास्टिक की कैटेगरी में आते हैं।

सिंगल यूज प्लास्टिक ....... जैसा कि इसके नाम से ही जाहिर है कि एक बार इस्तेमाल करने के बाद इसे फेंक दिया जाता है। इसका नतीज़ा ये होता है कि जगह-जगह आपको प्लास्टिक कचरे का अंबार देखने को मिल सकता है। एक आंकड़े के मुताबिक हर साल दुनिया में करीब 300 मिलियन टन प्लास्टिक का उत्पादन होता है। प्लास्टिक कचरे के उत्पादन में दुनिया भर में भारत का पांचवां स्थान है। देश में हर साल 56 लाख टन कचरे का उत्पादन होता है।

अब दिक्कत यह है कि ये प्लास्टिक हजारों साल तक वातावरण में बने रहते है यानी नष्ट नहीं होते हैं। साथ ही कुल उत्पादित प्लास्टिक का मात्र 10-13% ही रीसायकल हो पाता है। और उसमें भी, पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक को रीसायकल करना बेहद मुश्किल होता है। फेंके गए प्लास्टिक ज़मीन के अन्दर या नदी के जरिए समुद्र में बह जाते हैं जहाँ ये छोटे-छोटे कणों में टूटकर खतरनाक रसायनों में तब्दील हो जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्लास्टिक कचरे का 70% हिस्सा अकेले समुद्र में पाया जाता है। ये खतरनाक रसायन समुद्री जैव विविधता को दुष्प्रभावित करने के साथ-साथ उनकी जनन क्षमता को भी बुरी तरह प्रभावित करते हैं। प्लास्टिक में अस्थिर प्रकृति का जैविक कार्बनिक एस्टर होता है जिसके कारण कैंसर होने की संभावनाएं रहती हैं।

प्लास्टिक कचरे की समस्या से निपटने के लिए सरकार द्वारा प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 लाया गया। इस नियम के तहत ऐसी कंपनियां जो अपने पैकेजिंग में प्लास्टिक का उपयोग करती हैं उन्हें ही इसे नष्ट करने की जिम्मेदारी भी लेनी होगी। इसके लिए कंपनियों को एक्सटेंडेड प्रोडक्ट रिस्पॉंसिबिलिटी प्लान यानी EPR के तहत रजिस्ट्रेशन कराना होता है। यदि कोई कंपनी EPR के तहत रजिस्ट्रेशन नहीं कराती है तो उस पर पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम 1986 और NGT एक्ट 2010 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। EPR के प्रावधानों के तहत कंपनियों को एक वेस्ट कलेक्शन सिस्टम तैयार करना होता है ताकि प्लास्टिक को प्रयोग होने के बाद उसका सही प्रबंधन किया जा सके।

केंद्र सरकार ने आगामी 2 अक्टूबर से सिंगल यूज प्लास्टिक को पूरी तरह प्रतिबंधित करने का भी फैसला लिया है। इसे देश भर में राष्ट्रव्यापी जागरूकता अभियान के तहत तीन चरणों में चलाया जायेगा। इसमें विभिन्न सरकारी एजेंसियों द्वारा ‘सिंगल यूज प्लास्टिक’ के कचरे को जगह-जगह से एकत्र किया जाएगा और इससे रीसाइक्लिंग के लिए भेजा जाएगा। सरकार का लक्ष्य 2022 तक प्लास्टिक के प्रयोग को पूरे तरीके से प्रतिबंधित करने का है। हिमाचल प्रदेश समेत देश के कुछ राज्य ऐसे हैं जहां पर कानून बनाकर प्लास्टिक के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है।

प्लास्टिक कचरे की समस्या को देखते हुए अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी कई कदम उठाये जा रहे हैं। इसी क्रम में, यूरोपीय यूनियन ने साल 2021 तक 'सिंगल यूज़ प्लास्टिक' पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की योजना बनाई है। साथ ही, कचरे के निस्तारण से जुड़ी कई अंतराष्ट्रीय समझौतों मसलन ‘बेसल कन्वेंशन’ आदि को भी लागू किया गया है।

दरअसल मौजूदा वक्त में देश में प्लास्टिक उत्पादित करने वाले कंपनियों के प्रमाणन की कोई एजेंसी नहीं है। ऐसे में, यह कंपनियां अपने सुविधानुसार मनमाने तरीके से प्लास्टिक का उत्पादन करती हैं। साथ ही, इस बाबत ये कंपनियां झूठे दावे करने से भी गुरेज नहीं करती हैं। इसलिए, अगर ‘सिंगल यूज़ प्लास्टिक’ पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाना है तो इन कंपनियों के उत्पादों की निगरानी और प्रमाणन की समुचित व्यवस्था करनी होगी। कचरे के प्रबंधन को लेकर भारत की सबसे बड़ी समस्या ग्रेडिंग की है, जिससे कूड़े में मौजूद वास्तविक प्लास्टिक का अनुमान लगाना मुश्किल होता है। प्लास्टिक कचरे का सही अनुमान न होने के चलते इसके निस्तारण की प्रक्रिया प्रभावित होती है।

हमारे दैनिक जीवन में प्लास्टिक का उपयोग इतना बढ़ गया है कि इसे अचानक प्रतिबंधित करना आसान नहीं होगा। क्योंकि कई बार ग्राहकों के सामने प्लास्टिक के उपयोग के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। इसलिए हमें कुछ इको-फ्रेंडली विकल्पों की भी तलाश करनी होगी यानी बायोडिग्रेडेबल और कम्पोस्टेबल प्लास्टिक के उत्पादन को आसान बनाना होगा ताकि इसके लागत को कम किया जा सके। इसके अलावा, सिंगल यूज़ प्लास्टिक को बैन करने के अभियान को सफल बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका स्थानीय निकायों की होगी और इन निकायों को इस बाबत पूरी तरह तैयार करना होगा।

बहरहाल किसी भी कानून या अभियान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि इसमें आम जनता की भागीदारी कितनी है। आधुनिकता की दौड़ में आज हम इतना आगे आ चुके हैं कि प्लास्टिक के उपयोग को पूरी तरह ख़त्म करना तो मुश्किल है, लेकिन इसके उपयोग को ज़रूर कम किया जा सकता है। साथ ही इसके निस्तारण की बेहतर व्यवस्था की जा सकती है।