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Blog / 09 Sep 2019

(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) गिग अर्थव्यवस्था (GIG Economy)

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(डेली न्यूज़ स्कैन - DNS हिंदी) गिग अर्थव्यवस्था (GIG Economy)


मुख्य बिंदु:

हाल ही में, केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी सीएसओ द्वारा भारत में बेरोज़गारी को लेकर आंकड़े जारी किए गए। जारी आंकड़ों के मुताबिक़ वित्त वर्ष 2017-18 के दौरान देश में बेरोज़गारी की दर 6.1 फीसदी रही। ये आंकड़े जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण यानी पीएलएफएस रिपोर्ट के आधार पर जारी किए गए। इसके अलावा, पिछले दो सालों में घरेलू खपत, औद्योगिक विकास और निजी निवेश में कमी के कारण रोजगार सृजन में कमी आयी है। इस तरह रोज़गार में कमी के चलते तमाम अंडरग्रेजुएट्स, प्रोफेशनल डिप्लोमा और डिग्री धारक युवा अब गिग अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे हैं।
डीएनएस में आज हम आपको गिग अर्थव्यवस्था के बारे में बताएँगे। साथ ही, इसके दूसरे पहलुओं को भी समझने की कोशिश करेंगे।

एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो फ्रीलान्स और कॉन्ट्रैक्ट आधारित नौकरियों के आधार पर विकसित हो उसे गिग अर्थव्यवस्था कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अनुबंध आधारित अस्थायी नौकरियाँ गिग अर्थव्यवस्था के दायरे में आती हैं। अमेरिका जैसे विकसित देशों में इस तरह का कांसेप्ट बहुत पहले से प्रचलित है। यहां बड़े-बड़े फर्म और कंपनियां अपनी जरुरत के मुताबिक़ काबिल कर्मचारियों को शॉर्ट-टर्म के लिए हायर करती हैं, और उनके काम के लिए उन्हें एक निश्चित मेहनताना दे दिया जाता है।

भारत में गिग अर्थव्यवस्था अभी अपने शुरुआती दौर में हैं। एक आंकड़े के मुताबिक़ देश में क़रीब 10 मिलियन लोग फ्रीलांस के तौर पर काम कर रहे हैं। ये फ्रीलान्सेर्स, आईटी आधारित कामों मसलन वेब डेवलपमेंट, वेब डिजाइनिंग, इन्टरनेट रिसर्च और डाटा एंट्री में कार्यरत हैं। साल 2018-2019 में करीब 13 लाख लोग गिग इकॉनमी के दायरे में आए। जिसके कारण गिग इकॉनमी में 30 फ़ीसदी की बढ़ोतरी देखी जा सकती है। इसमें आगे भी बढ़ोतरी की संभावनाएं जताई जा रही हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था का गिग इकॉनमी की ओर जाने का सबसे बड़ा कारण डिजिटल कम्युनिकेशन का तेज़ी से विकसित करना है। मौजूदा वक्त में डिजिटल कम्युनिकेशन ने भौगोलिक बाधाओं को बिल्कुल ख़त्म सा कर दिया है।

इस नई अर्थव्यवस्था में कर्मचारियों और रोजगार प्रदाताओं दोनों को फायदा हो रहा है। दरअसल जहां एक तरफ बड़ी-बड़ी कंपनियां कम लागत पर काबिल कर्मचारियों को हायर कर उनसे अपना काम ले रही हैं। और उन्हें पेंशन, इंसेंटिव या अन्य सुविधाएं देने की बाध्यता नहीं होती। वहीं दूसरी ओर कार्यकारी जनसंख्या को वैश्विक अर्थव्यवस्था में योगदान करने का अवसर मिलता है और उनके लिए रोजगार की उपलब्धता बढ़ जाती है। साथ ही गिग इकॉनमी के कर्मचारियों के पास अपनी पसंद का काम करने की आज़ादी होती है। वे किसी भी समय अपने काम को छोड़कर कोई नया काम कर सकते हैं।

महिलाओं के लिहाज से भी गिग इकोनामी काफी फायदेमंद साबित हो रहा है। दरअसल तमाम सामाजिक कारणों के चलते भारत में महिलाओं पर ढेरों बंदिशें से होती हैं और उन्हें बाहर काम करने से रोक दिया जाता है। ऐसे में, गिग इकोनामी के तहत उन्हें घर बैठे काम का मनचाहा विकल्प मिल रहा है और महिलाएँ भी अर्थव्यवस्था में अपना समुचित योगदान दे रही हैं।

जहां गिग इकोनामी के तमाम फायदे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ इस की चुनौतियों से भी इनकार नहीं किया जा सकता। दरअसल काम की प्रकृति और मांग को देखते हुए इतनी बड़ी कार्यकारी जनसंख्या को प्रशिक्षित करना एक मुश्किल काम है। ग़ौरतलब है कि भारत में करीब 50 फ़ीसदी जनसँख्या कार्यकारी जनसंख्या है। डेमोग्राफिक डिविडेंड का अधिकतम लाभ पाने के लिए इतनी बड़ी आबादी को जॉब की मांग के अनुसार संबंधित क्षेत्र में प्रशिक्षित करने के लिए एक बड़े प्रयास की जरूरत होगी।

गिग अर्थव्यवस्था की दूसरी चुनौती यह है कि इस पर देश के तमाम श्रम कानून लागू नहीं होते। जिसके चलते कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा का विषय मसलन मैटरनिटी बेनिफिट्स और सेक्सुअल हरासमेंट आदि पर क़ानून की पकड़ नहीं है। इसके अलावा गिग इकॉनमी रोजगार प्रदाता रोज़गार सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े लाभ नहीं देता है।

बहरहाल गिग इकॉनमी के तहत पैदा होने वाले रोज़गार भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिए एक अच्छा संकेत है। मौजूदा वक्त में देश में आर्थिक स्लोडाउन और रोजगार में कमी को देखते हुए गिग इकॉनमी को बढ़ावा देने की जरूरत है, लेकिन साथ ही इसमें मौजूद खामियों को भी दूर करना होगा। इसके अलावा हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि गिग अर्थव्यवस्था औपचारिक या परंपरागत नौकरियों में आई कमी की वजह से ही विकसित हो रही है।